यूनाइटेड नेशन्स में वक़्ता, टेड वक्ता, शिक्षाविद्, लेखक, अभिनेता और गीतकार दीपक रमोला के कविता संग्रह ‘इतना तो मैं समझ गया हूं’ की कविता ‘दोनों खिड़कियां’ हमारे रिश्तों की हक़ीक़त बयां कर जाती है. क्या होता है जब उन जुड़वां खिड़कियों को पता चलता है कि उनमें से एक तो तोड़कर उसकी जगह दरवाज़ा बनाया जाना है?
वो दोनों खिड़कियां
जुड़वां बहनें हैं
और दोनों को इसी बात से
तक़लीफ़ है
बचपन से आज तक
झगड़ा ख़त्म नहीं हुआ दोनों का
मसले किस तरह बढ़ते गए हैं
पूछिए मत
हर छोटी बात पर लड़ती हैं
घर की मालकिन अगर पहना दे
किसी एक को नए पर्दे
तो दूसरी
सारा दिन सिसकियां भरती है
कुढ़ती है
हवा से शिकायत करती है
और खड़खड़ाकर कुछ-न-कुछ
बड़बड़ाती रहती है
वहीं दूसरा मामला शांत करने के बजाय
रेशमी फ्रॉक-सा
उड़ाती है परदा
उसी हवा के सहारे मौज करती है
उसे और चिढ़ाती है
पर दोनों हमेशा से इतनी
लड़ाकू नहीं थीं
चार बरस पहले
जब गली के किसी बच्चे की
गेंद जा लगी थी एक को
तो दूसरी की जान हाथ में आ गई थी
बड़ी डांट लगाई थी उसने
सबको बहुत कोसा था
फिर शरारत के नाम पर
पिछली दीवाली में
सरककर चुपचाप पैरों के
नीचे से
धाड़ से गिराया था पुताई वाले को
कुंडियां बजाकर दोनों ख़ूब हंसी थीं
अब यही याद करेंगी
एक-दूसरे के बारे में
जैसे ही फागुन गुज़रेगा
सुना है,
घर वाले एक को तोड़कर
दरवाज़ा बना रहे हैं
एक को विदा कर रहे हैं
लॉन में आना-जाना आसान होगा
बड़ी मालकिन कह रही थीं
पड़ोसी से
शायद हो भी जाए सहूलियत
पर अकेले उस लॉन को ताकना
बड़ा मुश्क़िल होगा उस दूसरी
जुड़वां खिड़की के लिए
रिश्ते कितने ही कड़वे क्यूं ना हों
उनके जाने के बाद
हर चीज़ पहले-सी नहीं रहती
कवि: दीपक रमोला
कविता संग्रह: इतना तो मैं समझ गया हूं
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
Illustration: Pinterest