काल के करघे पर आखरों की कताई, यह लेखिका, कवयित्री व चित्रकार अमृता सिन्हा का पहला काव्य संग्रह है. बोधि प्रकाशन से आए उनके इस संग्रह में कुल 55 कविताएं हैं. उनकी कविताओं में महिलाओं के जीवन के कई पहलुओं, इंतज़ार और प्रकृति के भी कई रंग मिलते हैं. उनकी कई कविताएं उस अपूर्णता और सच्चाई के एहसास से भर जाती हैं, जो हर किसी के जीवन में मौजूद है.
पुस्तक: काल के करघे पर आखरों की कताई
विधा: कविता संग्रह
लेखिका: अमृता सिन्हा
प्रकाशक: बोधि प्रकाशन
मूल्य: रु 150/-
काल के करघे पर आखरों की कताई की कविताओं को पढ़ते हुए आप मानव जीवन के विभिन्न रंगों से रूबरू होते चले जाते हैं. कई कविताओं में जहां उदासी और यादों की बसाहट है तो कई कविताओं में जीवन की सच्चाई और साहस भी मौजूद है. कई कविताओं में महिलाओं को लेकर समाज और सरकार से सवाल हैं तो कहीं बिटिया के सपनों को पूरा करने की इच्छा है.
इन कविताओं को आप एक बैठक में नहीं पढ़ सकते, क्योंकि संग्रह की कुछ कविताएं आपसे मनन का समय मांगती हैं. कविता अहसास, जिसमें आज़ादी का ज़िक्र कुछ इस तरह है: अब कोई जाल/कोई पिंजरा/उसे क़ैद नहीं कर पाएगा/ बहेलिया भी ठगा सा रह जाएगा/क्योंकि/चिड़िया ने/चख लिया है स्वाद/आज़ादी का.
इसी तरह कोरे पन्ने मेरी डायरी के, यह कविता बता जाती है कि अनकही बातें कितना कुछ कह जाती हैं. इस कविता की आख़िरी पंक्तियां उस अव्यक्त पीड़ा को बयां कर जाती हैं, जो कोरे पन्ने पर मुखर होती हैं: तार-तार हो रहे/ये अनगिन कोरे पन्ने/दर्ज करते जाते सारे आंकड़ों को/भीतर ही भीतर/चुपचाप अपनी सिसकी दबाए/तभी शायद/ये पन्ने हैं/बेहद मुखर.
जीवन को कांटों से बचाने का चाहे जितना भी जतन कीजे, लेकिन कुछ कांटे तो सभी के जीवन में मौजूद होते ही हैं. इस बात को बयान करती है कविता कैक्टस. जिसकी कुछ पंक्तियां यूं है: इन कैक्टस का क्या करूं/जो अक्सर/ दबे पांव, चुपचाप/उग आते हैं/मन के इर्द-गिर्द.
जीवन में हमारी मुलाक़ात न जाने कितने लोगों से होती है, उनमें से कुछ बड़े बेदिल भी होते हैं. कविता पत्थर में ऐसे ही लोगों की बानगी नज़र आती है. वहीं आओ जो इस बार कविता बताती है कि एक स्त्री केवल यही चाहती है कि जो भी उसके पास आए वो अपना ‘मैं’ साथ न लाए. स्त्री हमेशा देने में ही भरोसा रखती है, रिश्तों को निभाने में ही विश्वास करती है, टूटे रिश्तों को संजोने से उसे गुरेज़ नहीं होता. इस कविता की अंतिम पंक्तियां इसी बात की ओर इंगित करती सी लगती हैं: पर आओ जो इस बार/तो/छोड़ आना अपना अहं/चौखट के उस पार.
बाज़ार में सरगर्मी है, इस शीर्षक की कविता स्त्री की आस्था, परंपराओं के निर्वहन, बाज़ार, स्त्री विमर्श और बेजा स्त्री विमर्श को सामने लाती कविता है, जिसका अंत खुला हुआ है, क्योंकि कविता का अंत कहता है: स्त्री विमर्श का निष्कर्ष/आना अभी बाक़ी था. वहीं कविता सपनों के उगने तक, एक भली सी कविता है. जहां एक बच्ची के सपनों का ख़याल रखने की चिंता फूलों की तरह दर्ज हुई है.
जैसा कि मैंने ऊपर ही कहा कि संग्रह की कुछ कविताएं मनन की मांग करती हैं, इस लिहाज से इस संग्रह को पढ़ा जाना चाहिए. हां, कई जगह प्रूफ़िंग की ग़लतियां है, जिनपर आप अटक जाते हैं, जो इसे पढ़ने की आपकी लय को बाधित कर सकती हैं. बहरहाल, अमृता अपने पहले काव्य संग्रह के लिए बधाई की पात्र हैं.