हिंदी भाषा को तकनीक के साथ जुड़ता देखना बहुत संतुष्टि देता है. और वे लोग, जो अपनी मातृभाषा से जुड़ा काम करते हैं, उसको तकनीक से जोड़ कर इसे सभी के लिए सुलभ बना रहे हैं, उनकी संतुष्टि तो अलग ही स्तर की होती है. ऐसे ही लोगों की ख़ुशियों को, उनकी सोच को इस कविता में शब्द दिए गए हैं.
मैं हिंदी का सेवक हूं, मैं भाषा का सेवक हूं,
मैं भाषा का अध्येता, अनुवादक हूं, अन्वेषक हूं
हिन्दी मेरी माता है और भाषा अन्न प्रदाता है,
माता, भाषा का नित्य ऋणि, नित्य कृतज्ञ है यह जीवन,
माता ने जन्म दिया मुझको, चलना पढ़ना सब सिखलाया,
हिंदी ने जग में भूमिका दी, भाषा ने आजीविका दी
अपने स्वेद बिन्दुओं से और किंचित अपनी प्रतिभा से,
भाषा भूमि को सींच-सींच, माता का ऋण मैं चुका रहा,
यान्त्रिक यज्ञ विधान में, हिंदी को ऊपर बढ़ा रहा
हिंदी की बढ़ती पूछ-परख, भाषा का यह विस्तृत वितान,
उत्तुंग अट्टालिका भाषा की, हिंदी का ऐसा भव्य भुवन,
है गर्व मुझे कि विश्व यज्ञ में, भाषा के इस भव्य भवन में,
किंचित आहुति मेरी हैं और कुछ ईंटें मेरी भी हैं
कवि: योगेश पालीवाल (संपर्क- [email protected])
फ़ोटो: फ्रीपिक