छायावादी कवि सूर्यकांत निराला की कविता ‘भिक्षुक’ में एक भिक्षुक का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया गया है. भिक्षुक और उसके दो बच्चे सड़क पर पड़ी जूठी पत्तलों से भूख मिटाने का प्रयास करते हैं पर वहां भी उनका दुर्भाग्य उनका साथ नहीं छोड़ता. पत्तलों पर कुत्ते झपट पड़ते हैं. निराला ने इस कविता में समाज में व्याप्त विषमता को रेखांकित किया है. साथ ही उन्होंने वंचित समाज को अभिमन्यू की तरह संघर्ष करने का आग्रह किया है.
वह आता
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को-भूख मिटाने को
मुंह फटी-पुरानी झोली को फैलाता
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,
बाएं से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए
भूख से सूख ओंठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
घूंट आंसुओं के पीकर रह जाते
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!
ठहरो, अहो मेरे हृदय में है अमृत, मैं सींच दूंगा
अभिमन्यु-जैसे हो सकोगे तुम
तुम्हारे दु:ख मैं अपने हृदय में खींच लूंगा
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