असाधारण दबावों और चुनौतियों का सामना करते हुए इसरो का चंद्रयान-3 बिल्कुल सटीक तरीक़े से उतर गया है. चंद्रयान-3 के तीनों हिस्सों, ऑर्बिटर, लैंडर और रोवर से किए जाने वाले प्रयोग सिर्फ़ भारत के लिए नहीं, पूरी दुनिया के लिए मायने रखते हैं. जानेमाने पत्रकार व लेखक चंद्र भूषण बता रहे हैं कि चंद्रयान-3 हमारे लिए क्या जानकारी जुटाएगा और इससे पूरी दुनिया को किन खोजों की उम्मीद है.
असाधारण दबावों और चुनौतियों का सामना करते हुए इसरो ने चंद्रयान-3 के विक्रम लैंडर को चंद्रमा की 70 डिग्री दक्षिणी अक्षांश रेखा के पास बिल्कुल सटीक तरीक़े से उतार दिया है. अंतरिक्ष विज्ञान के प्रायोगिक इतिहास में इस तरह की उपलब्धि पहली बार हासिल की गई है. पृथ्वी के दूसरी तरफ़ पड़ने वाली चंद्रमा की अदृश्य सतह पर लंबे समय तक अपना रोवर यूटू-2 चलाने का गौरव चीन ने भी हासिल किया है, लेकिन इस काम के लिए उसने चंद्रमा की भूमध्य रेखा का नजदीकी इलाक़ा ही चुना था.
कम्युनिकेशन के मामले में वह ख़ुद में एक बड़ा कमाल है. लेकिन खनिजों की दृष्टि से समृद्ध समझा जाने वाला चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुवीय इलाका इतना ऊबड़-खाबड़ है, और पृथ्वी से पल-पल का संवाद बनाए रखना वहां इतना कठिन है कि वैज्ञानिक इसे एजेंडा पर ही लाने से बचते रहे हैं.
इसरो के वैज्ञानिकों पर कई बातों का दबाव
इसरो के लिए एक और दबाव ऐन मौके पर पेश हो गया था. चार वर्ष पहले चंद्रयान-2 के अपनी मंज़िल पर पहुंचने से सिर्फ़ तीन मिनट पहले उसके साथ संवाद टूट जाना पहले ही भारी हतक का कारण बना हुआ था. ऊपर से रूस ने बिना किसी सूचना के हैट में से कबूतर निकालने की तरह 11 अगस्त को अपना यान छोड़ा और 15-16 अगस्त को उसे चंद्रमा की कक्षा में स्थापित भी कर दिया. इसके साथ ही रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रोसकॉसमॉस से इसरो की तुलना शुरू हो गई कि एक वे हैं जो पांच दिन में पाला छू लेते हैं और एक हम हैं कि यही काम 35 दिन में करते हैं.
ऊपर से तुर्रा यह कि रूसियों ने चंद्रयान से दो दिन पहले 21 अगस्त को ही अपना लूना-25 चंद्रमा उतारने की घोषणा कर रखी थी, वह भी विक्रम लैंडर से ज़रा और दक्षिण में. यानी भारत को चंद्रमा पर यान उतारना है तो उतार ले, लेकिन पहला उपग्रह छोड़ने, पहली बार इंसान को अंतरिक्ष में भेजने और चंद्रमा पर पहली बार गाड़ी दौड़ाने की तरह सबसे दक्षिण में और सबसे पहले अपना यान चंद्रमा पर उतारने का रिकॉर्ड तो रूस ही बनाएगा! इसरो की ओर से रोसकॉसमॉस को शुभकामनाएं भेजी गईं. रूसी वैज्ञानिकों ने भी कहा कि स्पेस में सबके लिए जगह है और भारत तो अपना मित्र देश ही है, लेकिन थोड़ी खटास रह गई. फिर जब लूना-25 अपनी कक्षा बदलने के दौरान दुर्घटनाग्रस्त हो गया तो दबाव और बढ़ गया कि जो काम रूस से न हो पाया वह भारत से कैसे होगा?
एक बहुत बड़ी समस्या इधर 140 करोड़ से ज़्यादा भारतीयों की अपेक्षा से भी पैदा होने लगी है, जिसकी शिकायत हमारे क्रिकेटरों को लंबे समय से रहती आ रही है. किसी भी क्षेत्र में कुछ लोग जी-जान लगाकर कुछ नया करने का प्रयास करते हैं. ऐसी कोशिशें कभी एक बार में भी कामयाब हो जाती हैं लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि आगे बढ़ने के लिए ज़्यादा ज़ोर मारना पड़ता है. सोचने की बात है कि सारे वैज्ञानिक काम यदि इसी तरह राष्ट्रीय भावना से जोड़ कर देखे जाने लगे तो क्या भारत में कोई नया रामानुजन, सीवी रमन या जगदीशचंद्र बोस खड़ा हो पाएगा?
चंद्रयान-2 का तजुर्बा काम आया
बहरहाल, दबावों और चुनौतियों के इस सिलसिले के बीच इसरो के वैज्ञानिकों का काम कितना पक्का-पोढ़ा था, इसका अंदाज़ा लगाने के लिए चंद्रयान-3 की उतराई का लाइव ग्राफ़ देखना देश-दुनिया के लिए काफ़ी रहा होगा. यह हर बिंदु पर ठीक वैसा ही रहा, जैसा इसके होने की उम्मीद की गई थी. साइंस-टेक्नॉलजी के मामले में रूस की गति भारत से एक सदी आगे समझी जाती है. इसके बावजूद लूना-25 को पार्किंग ऑर्बिट से लैंडिंग ऑर्बिट में लाने वाले थ्रस्टर्स ने ऑटोमेटिक कमांड समझने में चूक कर दी और वह अस्थिर कक्षा में पहुंचकर नष्ट हो गया. लेकिन चंद्रयान-3 के एक-एक थ्रस्टर ने कमांड के मुताबिक काम किया और विक्रम लैंडर किसी पालतू कबूतर की तरह चांद पर उतर आया.
यक़ीनन इसमें बहुत बड़ी भूमिका चंद्रयान-2 से हासिल किए गए तजुर्बे की रही और इससे सबक लेते हुए एक राष्ट्र के रूप में हमें सिर्फ़ सफलता का ही नहीं, विफलता का मूल्य भी ठीक से समझना चाहिए. इस अभियान की अगली चुनौती धूल छंटने के बाद, यानी लैंडिग के चार-पांच घंटे गुज़र जाने पर प्रज्ञान रोवर को चंद्र सतह पर चलाने और चौदह दिनों के एक चंद्र-दिन में लैंडर और रोवर के लिए निर्धारित सारे प्रयोग पूरे करने की थी और वह भी अब पूरी की जा चुकी है.
चंद्रयान-3 से किए जाने वाले प्रयोग
चंद्रयान-3 के तीनों हिस्सों, ऑर्बिटर, लैंडर और रोवर से किए जाने वाले प्रयोग सिर्फ़ भारत के लिए नहीं, पूरी दुनिया के लिए मायने रखते हैं. इनमें एक का संबंध चंद्रमा के वायुमंडल के बारे में जानकारियां जुटाने का है. जी हां, जहां हवा के नाम पर कुछ भी नहीं है, उस चंद्रमा का वायुमंडल! वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 127 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने वाला चंद्र-सतह का तापमान वहां कुछ इंच या फुट की ऊंचाई तक आवेशित कणों और वाष्पित हो सकने वाले पदार्थों का बहुत हल्का गैसीय घोल तैयार करता होगा. ऐसे पदार्थ भूमध्यरेखीय क्षेत्रों में भले नगण्य हों लेकिन विक्रम की लैंडिंग साइट पर ये मौजूद हो सकते हैं. थोड़ी राहत की बात यह है कि इस साइट पर चंद्र दिन का अधिकतम तापमान 54 डिग्री तक ही जाता है. ऐसे में गर्मी से सर्किट ख़राब होने का ख़तरा कम है.
एक महत्वपूर्ण प्रयोग ऊष्मा चालकता को लेकर किया जाना है. चंद्रमा की सतह किस तरह गरम होती है, सूरज से आने वाला रेडिएशन कितनी गहराई तक प्रवेश करता है और इंसानी रिहाइश के लिए ज़मीन खोदकर या किसी और तरीक़े से न्यूनतम कितनी आड़ वहां ज़रूरी होगी, यह भी पता लगाया जाएगा. जैसा सिलसिला अभी शुरू हुआ है, अन्य देशों के अंतरिक्ष अभियानों द्वारा निकट भविष्य में इस तरह के बहुत सारे प्रयोग वहां किए जाएंगे. लेकिन इसकी शुरुआत अगले एक-दो दिन में भारत को ही करनी है. एक बड़ा प्रयोग भूकंपों के मामले में किया जाना है. चंद्रमा को भूगर्भीय रूप से मृत, ‘जियोलॉजिकली डेड’ बताने का चलन पुराना है, लेकिन ऑर्बिटर उपग्रहों को वहां भूकंप जैसे कुछ संकेत भी मिले हैं. भारतीय भूकंपमापी वहां जो प्रेक्षण लेंगे, उनसे चंद्रमा की टेक्टॉनिक हलचलों का पता चलेगा.
और सबसे बढ़कर पानी, जिसके बारे में पहली प्रत्यक्ष जानकारी चंद्रयान-1 द्वारा चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के एक क्रेटर में गिराए गए लूनर इंपैक्ट प्रोब से उठे गुबार की जांच के क्रम में दर्ज किए गए हाइड्रॉक्सिल आयनों के रूप में ही दुनिया के हाथ लगी थी. क्या ही अच्छा हो कि विक्रम और प्रज्ञान चांद पर पानी के मामले में कोई पक्की खोज कर डालें. इसमें कोई शक़ नहीं कि चंद्रमा पर विक्रम के उतरने के साथ सिर्फ़ भारत ही नहीं, दुनिया के अंतरिक्ष विज्ञान में एक नया युग शुरू हो रहा है. चंद्रमा के साथ इंसान का रिश्ता इसके बाद उस तरह कभी नहीं टूटेगा, जैसे 1960 और 70 के दशक में हासिल की गई महान उपलब्धियों के बावजूद आधी सदी तक टूटा ही रह गया था.
फ़ोटो साभार: गूगल