मल्टीनैशनल कंपनियां में काम करनेवाले हों या सरकारी नौकरी करनेवाले, छुट्टी सभी की निजी पूंजी है. वरिष्ठ कवि नरेश चन्द्रकर बता रहे हैं, क्यों ज़रूरी हैं छुट्टियां. छुट्टियों पर उत्पादन रोकने के आरोप को वे इस बेहद गहरे अर्थों वाली कविता से ख़ारिज करते हैं.
इस वर्ष
किस महीने
कितनी किस दिन हैं छुट्टियां
हम खोज लेते हैं
वर्ष के पहले ही दिन
जैसे हमें आता है
जेब से निकालकर छुट्टे पैसे गिनना
हम हर वर्ष से निकालकर गिन लेते हैं छुट्टियां
जब तक सेवा से मुक्त न हों
हमारे लिए यह भी कमाई का ज़रिया है
जो जमा होता है
हमारी आत्मा की कमीज़ में
त्यौहार और महापुरुषों की जयंतियों के दिन
पड़नेवाले रविवार से लगता है
कमबख़्त ऐसे रविवार
सोखते हैं
हमारी निजी पूंजी
सोखते हैं
घर के काम आ सकनेवाली
हमारी जीवनदायनी क्षमता
सोखते हैं
परिवार को दे सकनेवाली हमारी आत्मीय उष्मा
या फिर कहें
रविवार से मारे गए छुट्टी के दिन
हमसे सोखते हैं
ज़रा-सी हमारी उस कोशिश को
जिससे बची रहती है जीवन की हंसी
ये छुट्टियां यूं ही नहीं बनी हैं
पृथ्वी भर पर
किसी न किसी काम में लगे लोगों के लिए
इसे आरामगाह न मानें
सौर्यवर्ष की गणनाओं में
निश्चित अंतराल खोजे गए होंगे पहले
फिर मनुष्य की क्षमता और काम के घंटों के हिसाब से
छुट्टियां बनी होंगी
परम्परा और महापुरुषों की स्मृतियों को गूंथते हुए
मूर्छित होने से रोका है हमें अब तक किसी ने
तो वे छुट्टियां ही हैं
मनुष्य को मशीन का विकल्प बनने से बचाया है किसी ने
तो वे छुट्टियां ही हैं
छुट्टियों की पाबंदी ने
घोड़े होने के एहसास से मुक्त रखा हमें
कौन कहता है
छु्ट्टियां उत्पादन रोकती हैं
किसे लगता है छुट्टियों से नदियां सूखती हैं
बिजली नहीं बनती
कौन कहता है
छुट्टियों से प्रगति के मार्ग अवरुद्ध होते हैं
मैं कहता हूं
इतना तो समझें आप
कोई क्यों चाहता है
छुट्टियों की संख्या घटे
ख़त्म हों आदमी के लिए आराम के घंटे
इतना तो समझें
कोई क्यों चाहता है
हम अपने घर पर न रह सकें
इतनी देर भी
जितनी देर में सूखते हैं
हमारे धुले हुए कपड़े!!!
कवि: नरेश चन्द्रकर (ईमेल: [email protected])
कविता संग्रह: अभी जो तुमने कहा
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ
Illustration: Pinterest