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चुभन: रेनू मंडल की कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
August 17, 2022
in नई कहानियां, बुक क्लब
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चुभन: रेनू मंडल की कहानी
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कभी-कभी अपनी ही ग़लतियां हमें चुभने लगती हैं. अपनी ग़लतियों की चुभन से यदि हम जीवन का नया अनुभव लेते हैं, कुछ नया सीख कर ख़ुद को तराश लेते हैं तो यही कहा जाएगा ना कि- चुभन अच्छी होती है! इस कहानी की चुभन भी आपको मीठी लगेगी.

 

सौम्या ने गर्म दूध के साथ मुझे और रवि को दवाई दी और बोली, ‘‘मम्मी, आप कहें तो मैं अपनी छुट्टी बढ़ा लूं?’’
‘‘नहीं सौम्या. पहले ही तुम्हारी काफ़ी छुट्टियां हो चुकी हैं. वैसे भी तुम्हारे पापा और मैं अब ठीक हैं. तुम निश्चिंत होकर ऑफ़िस जाओ.’’
सौम्या जाने के लिए मुड़ी तो मेरे मन में भावनाओं का ज्वार-सा उमड़ पड़ा. स्नेहवश मैंने उसका हाथ थाम लिया और भावुक स्वर में बोली, ‘‘इन दस दिनों में तुमने अपने पापा और मेरा कितना ख़्याल रखा. अपने आराम की तनिक भी परवाह नहीं की. ईश्वर हर मां को तुम्हारे जैसी बहू दे.’’
‘‘और हर बहू को आप दोनों जैसे सास ससुर,’’ सौम्या लाड़ से बोली. उसका चेहरा आन्तरिक ख़ुशी से आहालादित हो उठा था. सास के मुख से निकले प्रशंसा के शब्द उसके हद्वय को तृप्त कर गए. स्नेहिल स्वर में वह बोली, ‘‘मम्मी, मैंने ऐसा अनोखा तो कुछ भी नहीं किया. आप दोनों सिर्फ़ अंकुर के ही नहीं मेरे भी मां-पापा हैं. आप दोनों का ख़्याल रखना मेरा पहला फ़र्ज़ है. अब आप आराम कीजिए. शाम को मिलते हैं.’’
सौम्या चली गई. उसके जाते ही रवि बोले, ‘‘क्या बात है मधु? आज अचानक सौम्या के लिए तुम्हारे हद्वय में प्रेम की सरिता क्यों प्रवाहित होने लगी? उस पर इतनी मेहरबान क्यों हो उठी हो?’’
‘‘क्यों क्या मैं उसे प्यार नहीं करती? उसपर अपनी ममता नहीं लुटाती? मैंने हैरानी से उनकी ओर देखा.
‘‘करती हो, बेशक़ करती हो, लेकिन वह स्नेह तुम्हारे अन्तर्मन की गहराईयों से उपजा नहीं होता. उसमें बनावटीपन की बू आती है. कहीं इस ममता की वजह वह पैसा तो नहीं जो अब तुम्हें वापिस मिल गया है.’’ रवि का कटाक्ष मेरे हद्वय को बीधता चला गया. मैं मर्माहत हो उठी. विगत दिनों से मन पर रखा बोझ और बढ़ गया. एक कातर दृष्टि उन पर डाल मैं बेडरूम में चली आई.
क्या आवश्यकता थी रवि को यह सब कहने की जबकि वह भलीभांति जानते हैं कि मैं अपनी ही नज़रों में इस कदर शर्मिंदा हूं कि रातों को ठीक से सो भी नहीं पाती. अपनी ही सोच जब पछतावे का रुप लेती है तो हृदय कितना बेचैन रहता है, यह मुझसे बेहतर भला कौन समझ सकता है? काश मैं स्वयं को अपनी छोटी सोच से मुक्त कर पाती. एक दीर्घ निःश्वास भरकर मैंने अपनी आंखें बंद कीं तो अतीत की स्मृतियां मन के आंगन में उतर आईं.
दो वर्ष पूर्व की ही तो बात है जब अंकुर की जॉब लगी थी और उसके विवाह के लिए रिश्तों की झड़ी लग गई थी. एक पढ़ी-लिखी, जॉब करने वाली ख़ूबसूरत बहू की आस लिए मैं लड़की तलाशने लगी थी. एक शाम अंकुर ऑफ़िस से लौटा तो उसके साथ उसकी फ्रेंड थी.
‘‘मां, पापा, यह सौम्या है. मेरे ही ऑफ़िस में है.’’ मैंने और रवि ने सौम्या को हाथों हाथ लिया हम दोनों की अनुभवी आंखों ने तुरंत भांप लिया था कि सौम्या अंकुर को पसंद है.
रात में अंकुर ने मुझसे पूछा, ‘‘मां, आपको सौम्या कैसी लगी?’’
‘‘बिल्कुल अपने नाम के जैसी सौम्य, ख़ूबसूरत. मुझे ऐसी ही बहू चाहिए.’’
‘‘ओह मां, आप कितनी अच्छी हो. मुझे उम्मीद नहीं थी, आप इतनी आसानी से तैयार हो जाओगी,’’ अंकुर ने प्रसन्नता से मेरे गले में बांहें डाल दी थीं.
‘‘अरे, लड़की इतनी अच्छी है उसपर तुम्हारी पसंद की है फिर मेरे इंकार की भला क्या वजह होगी?’’ मैं मुस्कुरा दी थी.
इस बात को अभी दो दिन ही बीते थे कि पुनः सौम्या को अंकुर के साथ आया देख मैं और रवि चकित थे. सबको कॉफ़ी सर्व करते हुए मैं बोली थी, ‘‘हमने सोचा था, अब तुम अपने घर वालों से हमें मिलवाओगी? ’’
‘‘आंटी, इससे पहले कि बात आगे बढ़े, मैं एक ज़रूरी बात आपसे कहना चाहती हूं. मैं तब छोटी ही थी, जब मेरे पापा का स्वर्गवास हो गया था. मम्मी ने टीचिंग करके मेरी परवरिश की. इकलौती बेटी होने के नाते मैं चाहती हूं कि मैं और अंकुर सदैव मम्मी का ख़्याल भी रखें. न सिर्फ़ फिज़ीकली, बल्कि मैं अपनी सैलेरी से हर माह मम्मी को 15 हज़ार रुपए देना चाहती हूं. यह बात अंकुर भी आपसे कह सकते थे, लेकिन मैंने ही मना कर दिया. मैं अपने मन की बात मैं आपसे ख़ुद ही कहना चाहती थी, ताकि मेरे और आपके बीच एक बॉन्डिंग बने. एक मज़बूत रिश्ता कायम हो.’’
सौम्या की बातों ने रवि को बहुत प्रभावित किया. वह बोले, ‘‘बेटी, मैं तुम्हारी स्पष्टवादिता और नज़रिए की प्रशंसा करता हूं. तुम चाहतीं तो ये बात हमसे छिपा भी सकती थीं.’’
‘‘नहीं अंकल, रिश्तों की बुनियाद सच्चाई और ईमानदारी पर रखी जानी चाहिए, ऐसा मेरा विश्वास है.’’
‘‘सौम्या, तुम न केवल अपनी मम्मी के प्रति संवेदनशील हो, बल्कि तुम्हारी नज़रों में हमारे रिश्ते का भी इतना सम्मान है, यह बात मुझे अभिभूत कर गई. मधु, तुम देखना एक अच्छी बेटी होने के साथ साथ सौम्या एक अच्छी बहू भी साबित होगी,’’ रवि ने मेरी ओर देखकर कहा तो मैं मुस्कुरा दी.
रात में रवि ने पूछा, ‘‘मधु, आज सौम्या की बातें सुनकर तुम कुछ बोली क्यों नहीं?’’
‘‘सच कहूं रवि, सौम्या की अपनी मम्मी के प्रति परवाह से मैं ख़ुश हूं, लेकिन उसका उन्हें हर माह रुपये देना मेरे गले से नहीं उतर रहा. विवाह के बाद लड़की की सैलेरी पर उसकी ससुराल वालों का हक़ होता है, मायके का नहीं.’’
रवि ने हैरत और क्रोध के मिलेजुले भाव से मुझे देखा, ‘‘कैसी बातें कर रही हो मधु? एक ओर तुम आधुनिक होने का दम भरती हो और दूसरी ओर ऐसी पुरातनपंथी सोच? मधु, क्या सौम्या को पालने में उसकी मां को वो तकलीफ़ें नहीं उठानी पड़ी होंगी जो हमने अंकुर को बड़ा करते हुए उठाईं? बेटी को इंजीनियर बनाने में क्या उसकी मां की तपस्या और पैसा निहित नहीं है? यह किस किताब में लिखा है कि बेटे के मां बाप का अपने बेटे और बहू दोनों के पैसे पर हक़ होगा और बेटी के मां बाप का किसी पर कोई हक़ नहीं? अरे, आजकल 15 हज़ार रुपए से होता ही क्या है! हां, यह पैसा उन्हें मॉरल सपोर्ट ज़रूर देगा.’’
रवि की ये बातें सुन कर मैंने अनमने भाव से सहमति में गरदन हिला दी थी.
अंकुर और सौम्या का विवाह धूमधाम से सम्पन्न हो गया. सौम्या ने जल्द ही अपने मृदु व्यवहार से सबका दिल जीत लिया. किंतु मेरे पूर्वाग्रह से ग्रसित मन में यह चुभन सदैव बनी रही कि ससुराल के हक़ का पैसा सौम्या अपनी मम्मी को देती है. उस वक़्त मै इस सच को भुला बैठी थी कि वक़्त और ज़िन्दगी कभी एक से नहीं रहते हैं. सीधी सपाट राहों पर चलते चलते यकायक मोड़ आ जाते हैं और ज़िन्दगी की दिशा और दशा दोनों बदल जाती हैं.
अंकुर और सौम्या का दस दिनों के लिए सिंगापुर घूमने जाना और इस दौरान रवि और मेरी देहरादून में एक विवाह समारोह में की हुई शिरकत, आज सोच रही हूं कि क्या यह नियति द्वारा रचा कोई खेल था? दो दिन देहरादून में रहकर हम वापिस लौट रहे थे. तभी पीछे से तेज़ रफ़्तार से आती एक गाड़ी ने ओवरटेक करने के प्रयास में हमारी कार को टक्कर मारी. रवि सड़क पर जा गिरे और बेहोश हो गए. उनके सिर से ख़ून बह रहा था. मुझे भी काफ़ी चोटें आईं थीं. हादसा इतना अप्रत्याशित था कि मैं संज्ञाशून्य सी बस देखती रह गई थी. लोगों ने तुरंत हमें हास्पिटल पहुंचाया. रवि का अविलम्ब ऑपरेशन आवश्यक था.
मैंने एक पल गंवाए बिना सौम्या की मम्मी कीर्ति जी को फ़ोन किया. ऐक्सिडेंट दिल्ली के निकट हुआ था इसलिए उन्होंने आने में देर नहीं लगी. आते ही उन्होंने हास्पिटल की फ़ीस से लेकर सभी औपचारिकताएं पूरी कीं. उस समय उनका दिया वह संबल और अपनत्व ताउम्र क्या मैं भुला सकूंगी? उस संबल से ही तो रवि को जीवनदान मिला था. उनके आपरेशन के बाद मुझे अहसास हुआ कि कितना कुछ गुज़र गया था. मृत्यु को इतने क़रीब से देखकर अब भी मन भयभीत और उद्वेलित था. जीवन की क्षणभंगुरता शिद्दत से महसूस हो रही थी. लग रहा था कि क्यों इंसान व्यर्थ की विकृतियां मन में पालता है?
आधी रात में घबराए हुए अंकुर और सौम्या सिंगापुर से वापिस लौटे. आते ही उन्होंने सब कुछ सम्भाल लिया था. दस दिन हास्पिटल में रहकर हम घर आ गए.
आज मुझे प्रतीति हो रही थी, इस एक्सीडेंट के बहाने नियति ने मेरी अंतरात्मा के द्वार पर दस्तक दी थी. मेरी सोई हुई संवेदनाओं को जगाया था. बड़ी से बड़ी क़ीमत चुकाकर भी मैं कीर्ति जी के इस ऋण को कभी चुका नही सकती थी.
विचारों के गलियारे से बाहर आई तो शाम हो चली थी. अंकुर और सौम्या ऑफ़िस से आए तो रवि ने अंकुर को अपना मोबाइल देते हुए कहा, ‘‘बेटे, कीर्ति जी ने मुसीबत में कितना पैसा ख़र्च किया है. मेरे अकाउन्ट से उन्हें वह पैसे भेज दो.’’
‘‘अरे पापा, हास्पिटल से आते ही मम्मी ने वह पैसा उन्हें लौटा दिया था. शायद वह आपको बताना भूल गईं.’’ अंकुर ने बताया.
अंकुर के वहां से जाते ही रवि ने पश्चाताप् भरे स्वर में कहा, ‘‘मधु, सुबह मैंने तुम्हारा दिल दुखाया. तुम्हें इतना कुछ कहा फिर भी तुम ख़ामोश रहीं. मेरा विरोध नहीं किया?’’
‘‘क्योंकि मैं उसी के योग्य हूं,’’ मैंने भर्राए स्वर में कहा.
‘‘नहीं मधु, मुझे और शर्मिंदा मत करो,’’ यह कहते हुए रवि ने स्नेह से मेरा हाथ थाम लिया.
उनके सुखद स्पर्श की गरमाहट से मेरे मन की समस्त वेदना पिघल गई.

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