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कॉफ़ी: भावना शेखर की छोटी कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
June 2, 2021
in नई कहानियां, बुक क्लब
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कॉफ़ी: भावना शेखर की छोटी कहानी
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पति-पत्नी में बेइंतहां प्यार होना अच्छा है. इस प्यार-मोहब्बत से जीवन का सफ़र आसान हो जाता है और किसी तीसरे साथी की ज़रूरत भी महसूस नहीं होती. पर कभी-कभी यह प्यार कुछ अनजानी-सी घटनाओं को अंजाम दे देता है, जिनके बारे में हम सोच ही नहीं पाते और फिर रिऐक्ट करने का तो जैसे सवाल ही नहीं पैदा होता. डॉक्टर दिवाकर के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ…

हवाई जहाज के उड़ान भरते ही डॉक्टर दिवाकर का दिल बैठने लगा. मानो कोई कलेजा निचोड़ रहा हो. इस शहर को अलविदा कहते दिल के हज़ार टुकड़े हो रहे थे. बरसों बाद मजबूरी के तहत यहां आना पड़ा, लेकिन आज इस शहर से उनकी यह आख़िरी मुलाक़ात थी. कभी नहीं सोचा था जिस शहर ने इतना कुछ दिया, वहीं अपना सब कुछ लुटाकर इस तरह ख़ाली हाथ लौटना पड़ेगा.
उनका जन्म पढ़ाई-लिखाई उनकी डॉक्टरी की डिग्री सब इसी शहर की सौगात है. इसी शहर की बसंती हवा में उनके प्यार की ख़ुशबू फैली थी, उनकी जया… उनका पहला और आख़िरी प्यार भी तो इसी शहर में मिला.
तीन दिनों के लिए एक सेमिनार में भाग लेने जया अपने शहर इंदौर से यहां आई थी, सेमिनार की औपचारिक मुलाकातों ने जन्म-जन्म का रिश्ता जोड़ दिया. दोनों का प्यार ऐसे परवान चढ़ा कि जया बरसों के लिए इस शहर की होकर रह गई. तीन साल की कोर्टशिप और तीस बरस का दांपत्य! क़दम दर क़दम साथ चलते-चलते दोनों एक दूसरे के बालों की सफ़ेदी के साक्षी बने और चेहरे पर जाल फैलाती महीन लकीरों के राज़दार भी. रसोई से लेकर अस्पताल तक के संगी-साथी. दिवाकर जया के लिए चाय बनाते तो जया दिवाकर के लिए कॉफ़ी. शादी के बारह साल बाद भी औलाद का मुंह न देख पाए. आज-सी सुविधा होती तो सेरोगेसी या कोई दूसरा विकल्प सोचते. आख़िर बेइंतहा प्यार के मारे दोनों एक दूजे का बच्चा बन बैठे. अठारह साल पहले यह शहर छोड़ दिया, मुंबई आ बसे. ढलती उम्र में दो मंज़िला घर ख़रीदा, जिसकी निचली मंज़िल पर साझा क्लिनिक और ऊपर घर बना लिया. दोनों का चौबीस घंटे का साथ उन्हें और क़रीब ले आया. जया क्लिनिक से थककर आती, दिवाकर उसकी पीठ पर मूव मलते. दिवाकर को थका देख जया कटोरी में तेल ले आती और एक शिशु की तरह उंगली की पोरों की नर्म थपथपाहट से मालिश करती. इतवार को क्लीनिक बंद रहता, यह दिन दोनों का अपना था. दोनों मिलकर अपने टेरेस के दर्जनों पौधों को दुलराते, उनसे बतियाते, पसंदीदा गज़लें सुनते, कहीं घूम आते या कोई वेबसीरीज देखते. दोनों एक दूजे के साथ इतने पूरे थे कि किसी अधूरेपन का अहसास न होता. इस पूरेपन के कारण कोई ख़ास दोस्त मित्र भी न बन पाए.
“सुनो, अपनी बहनों से भी कट-सी गई हो, मुझे कुछ हो गया तो तुम बिलकुल अकेली हो जाएगी. कभी रिश्तेदारों के पास भी आया जाया करो.”
“अच्छा, तुम तो बहुत रिश्तेदारी निभाते हो अपने सगे वालों से!” जया ने उलाहना देती.
“…और सुनो, तुम कहीं नहीं जाओगे, मुझे विदा करके ही पीछे पीछे आ जाना…. मेरे सिवा किसी के हाथ की कॉफ़ी भी तो तुम्हें पसंद नहीं!”
“अच्छा, और मैं तुम्हें जाने दूंगा? तुम गईं तो मेरी हेड मसाज कौन करेगा?”
और फिर इस अधेड़ जोड़े की जवान खिलखिलाहटों को सुनकर पौधे भी झूम उठते. पर पिछले छह महीनों में पौधे मुरझा गए हैं. न उन्हें वक़्त पर पानी मिलता, न दिवाकर और जया की हंसी की ऊष्मा. जया बीमार है… बहुत बीमार. दिवाकर उसे लेकर बेहद चिंतित हैं. नर्सिंग होम उनके सहयोगी संभालते हैं. वे तो जया की संभाल में ही लगे हैं. दवा, इंजेक्शन, तरह-तरह के टेस्ट… इसी में जीवन सिमट गया है.
अचानक दिवाकर को तेज़ सिर दर्द उठा. जया होती तो कॉफ़ी पिलाती. इस ख़्याल के साथ ही कॉफ़ी की भीनी भीनी ख़ुशबू नथुनों में भर गई.
“सर, योर कॉफ़ी!” खनकती आवाज़ के साथ एयर होस्टेस ने प्याला बढ़ा दिया.
हतप्रभ दिवाकर ने प्याला थामते हुए पूछा,”पर मैंने तो ऑर्डर नहीं किया.”
“सर, पीछे आपकी वाइफ़ ने कहा कि सीट नम्बर पंद्रह डी पर मेरे पति को कॉफ़ी की ज़रूरत है.”
दिवाकर को काटो तो ख़ून नहीं. हकलाते हुए बोले,”मेरी पत्नी का शव तो कार्गो में है.”

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