मालविका, जिसके जीवन में सबकुछ साफ़-सुथरा यानी क्रिस्टल क्लिअर चल रहा था, क्या वाक़ई सबकुछ वैसा था? या फिर वही देवेश को समझने में भूल कर गई थी? क्या मालविका धुंध को हटा कर अपने जीवन को सचमुच क्रिस्टल क्लिअर कर पाई? जानने के लिए पढ़ें सुमन बाजपेयी की लिखी यह कहानी.
ज़िंदगी में कब, किस मोड़ पर बिलकुल ही अनपेक्षित स्थितियों से मुलाक़ात हो जाए, इसका अंदाज़ा लगा पाना इंसान के बस में तो कतई नहीं है. उतार-चढ़ाव, उथल-पुथल और अचानक लगने वाले आघात इंसान के विश्वास के संतुलन को डगमगा देते हैं. सोच-समझकर ही हर कोई अपनी दिशा का निर्धारण करता है और उसके अनुसार वह सही भी होती है…सही इसलिए क्योंकि वह उसकी तार्किक सोच और कल्पना का ही समन्वय होती है. पर फिर क्यों अचानक, कल्पनातीत घटनाओं…नहीं इसे सच कहना ज़्यादा उचित होगा, सामना हो जाता है?
गहरे घुमावदार मोड़ और कटाव केवल पहाड़ों पर ही आते हों, ऐसा उसे अब नहीं लगता. समतल, सपाट सड़कों पर चलते-चलते भी ऐसे कटाव आ जाते हैं कि उनसे गुज़रते हुए लगता है कि अब संतुलन बिगड़ा और अब गिरे… गहरी अतल गहराइयों में, कंटीली झाड़ियों और नुकीले पत्थरों के बीच…
लाख चाहने पर भी टाइमिंग कभी पर्फ़ेक्ट नहीं हो पाती है, किसी न किसी वजह से देर या अड़चनें पैदा हो जाती हैं.
फ़ोन करके आईएसबीटी से पता किया था कि देहरादून के लिए डीलक्स बस दोपहर साढ़े तीन बजे जाती है, उसी के अनुसार दोनों वहां पहुंचे थे. लेकिन जिस बस ने जाना था, वह देहरादून से दिल्ली आई ही नहीं थी. ज़ाहिर-सी बात है कि उस बस का इंतज़ार करने का मतलब था पांच-साढ़े पांच बजे तक वहीं बैठे रहकर समय बर्बाद करना.
‘‘तो?’’ उसने देवेश को प्रश्न भरी निगाहों से देखा था.
‘‘तो क्या? सामने उत्तराखंड परिवहन की बस जा रही है. उसी में बैठते हैं. अभी भी चले तो रात दस बजे से पहले देहरादून
नहीं पहुंचेंगे.’’
बस की हालत और क्राउड देख उसका मन डांवाडोल हो रहा था, पर देवेश की बात उसने कब टाली थी जो आज टालती. ठीक ही रहा था सफ़र. दोनों के पास हमेशा से ही इतनी बातें रही हैं कि कभी ख़त्म होने की नौबत ही नहीं आती. कभी-कभी सेंसलेस तो कभी हाइली इंटेलेक्चुअल टॉक्स, कभी पूअर जोक्स तो कभी पुरानी बातों की कड़ियां, बातों का क्रम जुड़ता ही जाता है.
वह और देवेश स्कूल टाइम के दोस्त हैं. दोस्त? प्रश्नचिह्न कई बार लगा है उनकी दोस्ती पर…असल में सच तो यह है कि वे दोनों चाहे दूसरों के सामने इस बात को चाहे कितना ही प्रोजेक्ट क्यों न कर लें कि वे दोनों दोस्त हैं, पर उनके अंदर प्यार का अंकुरण कब फूटा, इसका अंदाज़ा होने और समझने में उन्हें ख़ुद भी काफ़ी वक़्त लग गया था. कालेज के अंतिम वर्ष में उन्हें इस बात का एहसास हुआ था कि उनका रिश्ता केवल दोस्ती तक ही सीमित नहीं रहा है, वह प्यार का आकार ले चुका है. एक-दूसरे को बहुत अच्छे से समझने, एक-दूसरे की कमियों, ख़ूबियों और महत्वाकांक्षाओं को जानने के बाद उनके बीच छिपाने या बताने के लिए कुछ बचा ही नहीं था. सब साफ़ था-एकदम क्रिस्टल क्लिअर.
पर फिर क्या ऐसा था? उसने एक उसांस छोड़ी. कुछ देर के लिए वह उन घुमावदार रास्तों के सर्पिल बहाव से बाहर निकली. संडे था और सर्दियों की धूप को अपने जिस्म में भरने के लालच में वह बाहर बालकनी में आ बैठी. घर पर भी कोई नहीं था. वीकएंड पर वह घर आई हुई थी. मां-पापा किसी रिश्तेदार के यहां गए हुए थे और बहन के कॉलेज में वार्षिक समारोह की रिहर्सल चल रही थी इसलिए वह कॉलेज गई हुई थी. चाय पीने की उसे आदत नहीं है, पर हर्बल टी का स्वाद उसे भाने लगा है. कोई झंझट भी नहीं होता-टी बैग को गर्म पानी में डालो और चाय तैयार-नो मिल्क, नो शुगर. चाय का घूंट भरते हुए देवेश की इस बात से अनायास ही उसके होंठों पर हंसी थिरक गई.
‘‘यू आर वेरी ईज़ी गोइंग मालविका, लाइफ़ में किसी तरह के झंझट को बर्दाश्त नहीं करती हो और तुम्हारी यही बात मुझे सबसे ज़्यादा अपीलिंग लगती है. ग़ज़ब का कॉन्फ़िडेंस लेवल है तुम्हारा.’’ सूरज ने करवट ली तो उसने भी कुर्सी सरकाकर धूप के टुकड़े पर कब्ज़ा कर लिया. कैसी विडंबना है न! उसकी यही बात जो देवेश को सबसे अच्छी लगा करती थी, एक वक़्त पर आकर दंश की तरह चुभने लगी. उसकी यही क्वालिटी उसे कभी पीड़ा के सैलाब में डुबो देगी, उसने कब सोचा था…सोचा तो शायद देवेश भी नहीं होगा या फिर उसके मन के किसी भीतरी कोने में हमेशा से ही कोई लावा दहकता रहता होगा, वरना क्या यूं ही ज्वालामुखी फट सकता है?
संयोग की बात है कि दोनों ने अलग-अलग जॉब्स के लिए एक ही कंपनी में अप्लाई किया था, पर वह इसे संयोग नहीं नियति मानती है और इंटरव्यू कॉल भी एक ही दिन का आया.
‘‘अच्छा है, तुम दोनों एक ही कंपनी में नौकरी करोगे तो कम से कम किसी और शहर में नौकरी करने और एक-दूसरे से दूर रहने की कोई मजबूरी तो नहीं होगी न शादी के बाद.’’ मां को सबसे ज़्यादा ख़ुशी हुई थी इस बात से.
‘‘ओह मम्मी, नॉट अगेन. अभी शादी का ख़्याल मन में मत लाओ. फ़िलहाल मुझे और देवेश को अपना-अपना करियर बनाना है. अच्छी तरह से सेटल हो जाने के बाद ही इस बारे में सोचेंगे. अभी शादी करना हमारे एजेंडे में नहीं है.’’
‘‘शादी कोई शेड्यूल थोड़े ही होती है, जो उसे एजेंडे में शामिल किया जाए.’’ पापा ने हंसते हुए उसे छेड़ा था.
‘‘ओह कम ऑन पापा, यू नो बोथ ऑफ़ अस, सो डोंट वरी.’’
उसे इस बात की ख़ुशी थी कि उसके और देवेश के रिश्ते ने कभी मर्यादाओं को लांघने का प्रयत्न नहीं किया था. हालांकि वह एकदम बिंदास तरह की थी, पर अपनी-अपनी सीमाएं दोनों ने तय कर रखी थीं इसलिए मम्मी-पापा को दोनों का अकेले देहरादून जाना अखरा नहीं था. विश्वास के पुल र्निमित करने पड़ते हैं, उनमें लगने वाली हर सामग्री उचित मात्रा में मिलानी पड़ती है, ताकि वे पुख्ता बन सकें, तभी तो उन पर से एक किनारे से दूसरे किनारे पर आशवस्त होकर, बिना किसी भय के पहुंचा जा सकता है.
देवेश और उसके बीच भी विश्वास का एक मज़बूत पुल था, जिस पर चलकर ही उन्होंने इतना लंबा समय तय किया था. तकरार, मान-मनौवल, विचारों में टकराव…क्या नहीं हुआ उनके बीच, पर इस तरह वार और आक्षेप की स्थिति कभी पैदा नहीं हुई थी.
खिली, चटकी धूप ने अपना आंचल समेट लिया था. बालकनी में एक ठंडापन पसर गया था…बिलकुल उसके और देवेश के रिश्ते की तरह. उसे कंपकंपी महसूस हुई. शॉल को कसकर लपेट लिया. मन हुआ कुछ देर सुस्ता ले, पर कुछ काम बाक़ी था और सुबह-सुबह ही उसे देहरादून के लिए निकलना था. जिस प्रोजेक्ट की वह इंचार्ज थी, उसकी रिपोर्ट भी तैयार करनी थी.
इंटरव्यू देकर जब दोनों वापस लौटे थे तो देवेश बहुत ख़ुश था. ‘‘आई एम हंड्रेड परसेंट श्योर कि मुझे जॉब मिल जाएगी. ऐंड व्हाट अबाउट यू मालविका?’’ देवेश अपनी प्रसन्नता के आवेश में यह नहीं देख पाया था कि वह थोड़ी बुझी हुई है.
‘‘आई एम आल्सो कॉन्फ़िडेंट, बट मैं एक सवाल के जवाब में थोड़ी रूड हो गई थी. वे लोग भी बहस पर उतर आए थे, हालांकि बाद में वे कन्विन्स हो गए थे कि मैं ठीक थी. बट यू नेवर नो, मैनेजमेंट को समझना इज़ नो ईज़ी टास्क.’’
‘‘डोंट वरी मालू, तुम्हें जॉब नहीं भी मिली तो कोई बात नहीं. यू नो गर्ल्स तो सिर्फ़ शौक़ के लिए नौकरी करती हैं. फिर मैं हूं न, तुम्हें कमाकर खिलाऊंगा. तुम घर बैठकर ऐश करना. फिर बेबी सिटिंग से बढ़िया जॉब और क्या हो सकता है?’’ देवेश अपनी रौ में बोलता जा रहा था. उस पल विश्वास का पुल उसे डगमगाता हुआ लगा था. देवेश की मेंटलिटी ऐसी हो सकती है…उसे समझने में इतनी बड़ी भूल कैसे हो गई? या फिर हर पुरुष के अंदर कहीं न कहीं सामंतवादी सोच निहित ही होती है, जो उन्हें औरत को एक ही तरह के खाके में फ़िट देखने को बाध्य करती है. वह चाहे कितनी ही क़ाबिल क्यों न हो, कितनी ही शिक्षित और वैचारिक स्तर पर विकसित क्यों न हो, उसके किए हर प्रयास को शौक़ या कुछ दिनों की सनक का नाम दे दिया जाता है. उसके करियर को महत्वहीन मान उसकी योग्यता को, उसके संपूर्ण को एकदम से ही नकार दिया जाता है और उससे उम्मीद की जाती है कि वह पुरुष की अधीनता स्वीकार करने में ही अपने जीवन को सफल माने.
इक्कीसवीं सदी के पुरुष की सोच भी क्या ऐसी हो सकती है? और देवेश से तो इस तरह की उम्मीद उसे कतई नहीं थी. बचपन से वह उसे जानता है. उसके टैलेंट, उसकी महत्वाकांक्षा को पहचानता है. एमबीए में भी फ़र्स्ट क्लास हासिल कर देवेश से कहीं ज़्यादा अंक पाए थे उसने. देवेश को देखकर उसे कभी नहीं लगा था कि उसके अंदर ईर्ष्या का कीड़ा पल रहा है…न जाने कब से…कभी भनक तक नहीं पड़ने दी उसने या शायद वही जान न पाई. मालविका का उससे कहीं बेहतर होना, उसका तरक़्क़ी करना क्या उसके ईगो को आहत करता है? वह गलत थी, कुछ भी एकदम क्रिस्टल क्लिअर नहीं है देवेश की तरफ से. बहुत कुछ है जो उसने अपने भीतर छिपा रखा है.
उसके बाद जो हुआ वह देवेश के लिए ही नहीं, उसके लिए भी किसी शॉक से कम नहीं था. जॉब में सलेक्शन उसका हुआ, देवेश का नहीं, जबकि दोनों ने अलग-अलग पोस्ट के लिए इंटरव्यू दिया था.
‘‘यह कैसे हो सकता है?’’ देवेश ने ग़ुस्से से दीवार पर मुक्का मारते हुए कहा था. उसका चेहरा, आंखें लाल हो गई थीं और शरीर क्रोध से कांप रहा था. एक अजीब-सा जुनून उसके चेहरे पर छाया हुआ था, मानो अपनी इस हार के लिए वह पूरी दुनिया को तहस-नहस कर देना चाहता हो. दुख उसे भी हुआ था, पर देवेश के एक रिऐक्शन ने उसे असमंजस में डाल दिया था. नौकरी के लिए अवसरों की उसके जैसे योग्य व्यक्ति के लिए कमी नहीं हो सकती थी. और इससे क्या फ़र्क़ पड़ता कि पहले किसे नौकरी मिली, मायने तो साथ रखता था. लेकिन नहीं, फ़र्क़ पड़ा था… बहुत व्यापक. उसका रिश्तों के एकदम क्रिस्टल क्लिअर होने के दावे से झट से पर्दा उठ गया था.
‘‘आई कांट बिलीव दिस और तुमने तो कहा था कि यू वर रूड विद मैनेजमेंट. तो फिर कैसे? आई बिलीव, तुम क़ाबिलियत प्रूव नहीं कर पाईं तो अपने चार्म का यूज़ किया होगा. नो डाउट यू हैव ए र्चामिंग पर्सोना. तुम कितनी ऐम्बिशस हो क्या मैं जानता नहीं…यू कैन गो टू एनी एक्सेटेंट टू फ़ुलफ़िल योर ड्रीम्स. एक बात अच्छे से समझ लो मालविका, अगर तुम मेरे साथ ज़िंदगी बिताना चाहती हो तो तुम्हें जॉब करने का विचार मन से निकालना होगा. आई विल नॉट टॉलरेट कि तुम अपने चार्म से दूसरे मर्दो को लुभाओ.’’
देवेश फन कुचले सांप की तरह फुफकारता जा रहा था और उसका चेहरा विकृत होता जा रहा था. मालविका ने क्या इसी व्यक्ति से प्यार किया था? नहीं यह वह नहीं है…यह तो वही पुरुष है जो समाज में न जाने कितने मुलम्मे चढ़ाए सदियों से अपना अधिकार जमाए इधर-उधर घूम रहा है, यह तो उसी सोच का नुमाइंदा है जो औरत को अपने से एक कदम पीछे देखना चाहता है. बराबरी का हक़ और सम्मान देना सब दिखावा है उसके लिए…देवेश का सच उसके सामने था और उसे लग रहा था कि घुमावदार मोड़ और सर्पिल कटाव उसकी जिंदगी का संतुलन डिगाने लगे हैं. पर नहीं…वह ऐसा नहीं होने देगी. विश्वास के इस डगमगाते पुल पर पैर रखने की कोशिश तक नहीं करेगी. वह तो अंदर से इतना खोखला है कि अगर उसे दोबारा बनाने का प्रयास भी किया जाए तो भी ढह जाएगा.
उसने सोचा भी नहीं था कि देवेश उसके विश्वास को इस तरह आहत करेगा. तो क्या उसे ही उसे समझने में भूल हुई? शायद विश्वास की पट्टी इतनी कसकर उसकी आंखों में लिपटी हुई थी कि वह देवेश के चेहेरे पर चढ़े मुखौटे को देख ही नहीं पाई थी. क्रिस्टल क्लिअर…उसे कोफ़्त-सी हुई. सब मुल्लमा था. आंखों में नमी की परत जमा होने लगी. नहीं, वह कमज़ोर नहीं पड़ेगी.
‘‘तुम्हारे साथ ज़िंदगी बिताना तो दूर, मैं तुमसे दोस्ती का रिश्ता भी नहीं रखना चाहती देवेश. तुम असल में इस क़ाबिल हो ही नहीं कि किसी की दोस्ती, किसी का प्यार पाने का भी हक़ रखो. यू आर डिस्गस्टिंग. तुम खोखले हो देवेश, दिल, दिमाग़ दोनों से ही.’’
गहरी अतल गहराइयों की कंटीली झाड़ियों और नुकीले पत्थरों के बीच से वह बिना डगमगाए निकल आई थी, एकदम समतल और साफ़ रास्ते पर.
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