अरुण चन्द्र रॉय की कविता ‘डरता हूं मेरे बच्चे’ बयां करती है एक मध्यवर्गीय कस्बाई पिता का भय.
कार्टून चैनलों के
काल्पनिक पात्रों
और चरित्रों में
जब तुम्हारी
डूबी आंखों को देखता हूं
भविष्य का रंग
मुझे काला दिखने लगता है
डांट नहीं पाता मैं
अपने पिता की तरह
क्योंकि स्वयं को
कमज़ोर पाता हूं मैं
तुम्हारे यूनिट टेस्ट के
सामान्य ज्ञान विषय के
प्रश्न पत्र में जब देखता हूं
कुछ कारों के मॉडल,
टीवी चैनलों के लोगो
या फिर कार्टून के चित्र
जिन्हें पहचानना होता है तुम्हें
नाम लिखना होता है उनका
मैं ख़ुद हल नहीं कर पाता
यह प्रश्न पत्र
असफल पाता हूं स्वयं को
हताश हो जाता हूं मैं
जब चाहता हूं
लिखो तुम एक निबंध
गाय पर
दिवाली पर
होली पर
नेहरु जी पर
गांधी जयंती पर
बाढ़ की विभीषिका पर
या फिर किसी यात्रा वृत्तांत पर
तुम्हें तैयारी करनी होती है
डांस प्रतियोगिता की
या फिर अभ्यास करना होता है स्केटिंग की
बदलते परिवेश में
तुम्हारे बदलते तेवर को देख
ख़ुश होते हुए भी
ख़ुश नहीं हो पाता मैं
तुम्हारी ख़राब होती
लिखावट को देख
चाहता हूं थोड़ी और मेहनत करो तुम
अपनी लिखावट पर, लिखो नियम सुलेख
तुम्हारी दलील कि आगे सब कुछ
लिखा जाना है कंप्यूटर पर
हार जाता हूं मैं लेकिन
ख़ुशी नहीं होती तुम्हारी जीत पर भी
जब तुम
सो रहे होते हो
तुम्हारे चेहरे पर
मंद मुस्कान तिरती रहती है
देवदूत से लगते हो तुम
जिन्हें देख
रोता हूं
हंसता हूं
एक अदृश्य भय से
डरता हूं मेरे बच्चे
और तुम्हे गले लगा
सो जाता हूं मैं भी
ना जाने कब तुम कहने लगो
‘पापा अलग कमरा चाहिए मुझे भी!’