दिवंगत कवि-कथाकार राही मासूम रज़ा की रचनाएं अपनी संवेदनशीलता के लिए जानी जाती रही हैं. छोटी-सी कविता ‘ढलता सूरज, घटता चांद, बूढ़ा पेड़’ प्रतीकों के सहारे भौतिक दूरियों को धता बताती है.
जब भी मैं तुझको याद आऊं
तू ये सोच के दिल मत छोटा करना
मेरे-तेरे बीच न जाने कितना ज़ुबानों के दरिया हैं
कितनी तहज़ीबों के समंदर
धूप की झीलें
छांव के जंगल
तू इस दूरी से मत घबरा
क़ुर्बत का मौसम तो वही है,
देख तो दिल के अंदर!
दूरी चाहे जितनी भी हो
मैं तो तुझसे दूर नहीं हूं
ढलता सूरज बनकर तेरे घर में आख़िर कौन आता है
घटते चांद का भेस बदल कर
तेरी खिड़की पर मैं ही दस्तक देता हूं
और वो बूढ़ा पेड़ भी मैं हूं
जिसका साया
झुक कर तेरे सर का बोसा लेता है
जब
जब भी मैं तुझको याद आऊं
मरियम तू बस
ढलते सूरज,
घटते चांद की जानिब यूं ही देख लिया कर
और उस पेड़ की मीठी छांव से अपने आंसू पोंछ के आगे बढ़ जाया कर
कवि: राही मासूम रज़ा
कविता संग्रह: ग़रीबे-शहर
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन