मन के बीच चलते वाले तमाम सवालों और कशमकश, बेचैनी को मरहूम कवि कुंवर बेचैन से बेहतर भला और कौन बता सकता था.
अधर-अधर को ढूंढ़ रही है
ये भोली मुस्कान
जैसे कोई महानगर में ढूंढ़े नया मकान
नयन-गेह से निकले आंसू
ऐसे डरे-डरे
भीड़ भरा चौराहा जैसे
कोई पार करे
मन है एक, हज़ारों जिसमें
बैठे हैं तूफ़ान
जैसे एक कक्ष के घर में रुकें कई मेहमान
सांसों के पीछे बैठे हैं
नए-नए खतरे
जैसे लगें जेब के पीछे
कई जेब-कतरे
तन-मन में रहती है हरदम
कोई नई थकान
जैसे रहे पिता के घर पर विधवा सुता जवान
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