तहजीब का शहर कहा जानेवाला लखनऊ अपनी निराली नफ़ासत के लिए मशहूर है. इस शहर में झगड़ों में भी उसी नफ़ासत की झलक दिखती है.
शायद ही कोई ऐसा अभागा हो जिसने लखनऊ का नाम न सुना हो; और युक्तप्रांत में ही नहीं, बल्कि सारे हिंदुस्तान में, और मैं तो यहां तक कहने को तैयार हूं कि सारी दुनिया में लखनऊ की शोहरत है. लखनऊ के सफेदा आम, लखनऊ के खरबूजे, लखनऊ की रेवड़ियां-ये सब ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें लखनऊ से लौटते समय लोग सौगात की तौर पर साथ ले जाया करते हैं, लेकिन कुछ ऐसी भी चीज़ें हैं जो साथ नहीं ले जाई जा सकतीं, और उनमें लखनऊ की जिंदादिली और लखनऊ की नफासत विशेष रूप से आती हैं.
ये तो वे चीज़ें हैं, जिन्हें देशी और परदेशी सभी जान सकते हैं, पर कुछ ऐसी भी चीज़ें हैं जिन्हें कुछ लखनऊवाले तक नहीं जानते, और अगर परदेसियों को इनका पता लग जाए, तो समझिए कि उन परदेसियों के भाग खुल गए. इन्हीं विशेष चीज़ों में आते हैं लखनऊ के ‘बांके’.
‘बांके’ शब्द हिंदी का है या उर्दू का, यह विवादग्रस्त विषय हो सकता है, और हिंदीवालों का कहना है-इन हिंदीवालों में मैं भी हूं-कि यह शब्द संस्कृत के ‘बंकिम’ शब्द से निकला है; पर यह मानना पड़ेगा कि जहां ‘बंकिम’ शब्द में कुछ गंभीरता है, कभी-कभी कुछ तीखापन झलकने लगता है, वहां ‘बांके’ शब्द में एक अजीब बांकापन है. अगर जवान बांका-तिरछा न हुआ, तो आप निश्चय समझ लें कि उसकी जवानी की कोई सार्थकता नहीं. अगर चितवन बांकी नहीं, तो आंख का फोड़ लेना अच्छा है; बांकी अदा और बांकी झांकी के बिना ज़िंदगी सूनी हो जाए. मेरे ख़्याल से अगर दुनिया से बांका शब्द उठ जाए, तो कुछ दिलचले लोग खुदकुशी करने पर आमादा हो जाएंगे. और इसीलिए मैं तो यहां तक कहूंगा कि लखनऊ बांका शहर है, और इस बांके शहर में कुछ बांके रहते हैं, जिनमें ग़ज़ब का बांकपन है. यहां पर आप लोग शायद झल्ला कर यह पूछेंगे-‘म्यां, यह ‘बांके’ है क्या बला? कहते क्यों नहीं?’ और मैं उत्तर दूंगा कि आप में सब्र नहीं; अगर उन बांकों की एक बांकी भूमिका नहीं हुई, तो फिर कहानी किस तरह बांकी हो सकती है!
हां, तो लखनऊ में रईस हैं, तवायफें हैं और इन दोनों के साथ शोहदे भी हैं. बकौल लखनऊवालों के, ये शोहदे ऐसे-वैसे नहीं हैं. ये लखनऊ की नाक हैं. लखनऊ की सारी बहादुरी के ये ठीकेदार हैं और ये जान ले लेने तथा दे देने पर आमादा रहते हैं. अगर लखनऊ से ये शोहदे हटा दिए जाएं, तो लोगों का यह कहना, ‘अजी, लखनऊ तो जनानों का शहर है.’ सोलह आने सच्चा उतर जाए.
जनाब, इन्हीं शोहदों के सरगनों को लखनऊवाले ‘बांके’ कहते हैं. शाम के वक़्त तहमत पहने हुए और कसरती बदन पर जालीदार बनियान पहनकर उसके ऊपर बूटेदार चिकन का कुरता डाटे हुए जब ये निकलते हैं, तब लोग-बाग बड़ी हसरत की निगाहों से उन्हें देखते हैं. उस वक़्त इनके पट्टेदार बालों में करीब आध पाव चमेली का तेल पड़ा रहता है, कान में इत्र की अनगिनती फुरहरियां खुंसी रहती हैं और एक बेले का गजरा गले में तथा एक हाथ की कलाई पर रहता है. फिर ये अकेले भी नहीं निकलते, इनके साथ शागिर्द-शोहदों का जुलूस रहता है, एक-से-एक बोलियां बोलते हुए, फबतियां कसते हुए और शोखियां हांकते हुए. उन्हें देखने के लिए एक हजूम उमड़ पड़ता है.
तो उस दिन मुझे अमीनाबाद से नख्खास जाना था. पास में पैसे कम थे; इसलिए जब एक नवाब साहब ने आवाज़ दी, ‘नख्खास’ तो मैं उचक कर उनके इक्के पर बैठ गया. यहां यह बतला देना बेजा न होगा कि लखनऊ के इक्केवालों में तीन-चौथाई शाही ख़ानदान के हैं, और यही उनकी बदकिस्मती है कि उनका वसीका बंद या कम कर दिया गया, और उन्हें इक्का हांकना पड़ रहा है.
इक्का नख्खास की तरफ़ चला और मैंने मियां इक्केवाले से कहा,‘कहिए नवाब साहब! खाने-पीने भर को तो पैदा कर लेते हैं?’
इस सवाल का पूछा जाना था कि नवाब साहब के उद्गारों के बांध का टूट पड़ना था. बड़े करुण स्वर में बोले,‘क्या बतलाऊं हुजूर, अपनी क्या हालत है, कह नहीं सकता! खुदा जो कुछ दिखलाएगा, देखूंगा! एक दिन थे जब हम लोगों के बुजुर्ग हुकूमत करते थे. ऐशोआराम की ज़िंदगी बसर करते थे; लेकिन आज हमें-उन्हीं की औलाद को-भूखों मरने की नौबत आ गई. और हुजूर, अब पेशे में कुछ रह नहीं गया. पहले तो तांगे चले, जी को समझाया-बुझाया, म्यां, अपनी-अपनी किस्मत! मैं भी तांगा ले लूंगा, यह तो वक़्त की बात है, मुझे भी फायदा होगा; लेकिन क्या बतलाऊं हुजूर, हालत दिनोंदिन बिगड़ती ही गई. अब देखिए, मोटरों-पर-मोटरें चल रही हैं. भला बतलाइए हुजूर, जो सुख इक्के की सवारी में है, वह भला तांगे या मोटर में मिलने का? तांगे में पालथी मार कर आराम से बैठ नहीं सकते. जाते उत्तर की तरफ़ हैं, मुंह दक्खिन की तरफ़ रहता है. अजी साहब, हिंदुओं में मुरदा उलटे सिर ले जाया जाता है, लेकिन तांगे में लोग जिंदा ही उलटे सिर चलते हैं और जरा गौर फरमाइए! ये मोटरें शैतान की तरह चलती हैं, वह बला की धूल उड़ाती हैं कि इंसान अंधा हो जाए. मैं तो कहता हूं कि बिना जानवर के आप चलनेवाली सवारी से दूर ही रहना चाहिए, उसमें शैतान का फेर है.’
इक्केवाले नवाब और न जाने क्या-क्या कहते, अगर वे ‘या अली!’ के नारे से चौंक न उठते.
सामने क्या देखते हैं कि एक आलम उमड़ रहा है. इक्का रकाबगंज के पुल के पास पहुंचकर रुक गया.
एक अजीब समां था. रकाबगंज के पुल के दोनों तरफ़ करीब पंद्रह हजार की भीड़ थी; लेकिन पुल पर एक आदमी नहीं. पुल के एक किनारे करीब पचीस शोहदे लाठी लिए हुए खड़े थे, और दूसरे किनारे भी उतने ही. एक खास बात और थी कि पुल के एक सिरे पर सड़क के बीचोंबीच एक चारपाई रक्खी थी, और दूसरे सिरे पर भी सड़क के बीचोंबीच दूसरी. बीच-बीच में रुक-रुककर दोनों ओर से ‘या अली!’ के नारे लगते थे.
मैंने इक्केवाले से पूछा,‘क्यों म्यां, क्या मामला है?’
म्यां इक्केवाले ने एक तमाशाई से पूछकर बतलाया,‘हुजूर, आज दो बांकों में लड़ाई होनेवाली है, उसी लड़ाई को देखने के लिए यह भीड़ इकट्ठी है.’
मैंने फिर पूछा,‘यह क्यों?’
म्यां इक्केवाले ने जवाब दिया,‘हुजूर, पुल के इस पार के शोहदों का सरगना एक बांका है और उस पार के शोहदों का सरगना दूसरा बांका. कल इस पार के एक शोहदे से पुल के उस पार के दूसरे शोहदे का कुछ झगड़ा हो गया और उस झगड़े में कुछ मार-पीट हो गई. इस फिसाद पर दोनों बांकों में कुछ कहा-सुनी हुई और उस कहा-सुनी में ही मैदान बद दिया गया.’
‘अरे हुजूर! इन बांकों की लड़ाई कोई ऐसी-वैसी थोड़ी ही होगी; इसमें ख़ून बहेगा और लड़ाई तब तक खत्म न होगी, जब तक एक बांका ख़त्म न हो जाए. आज तो एक-आध लाश गिरेगी. ये चारपाइयां उन बांकों की लाश उठाने आई हैं. दोनों बांके अपने बीवी-बच्चों से रुखसत लेकर और कर्बला के लिए तैयार होकर आवेंगे.’
इसी समय दोनों ओर से ‘या अली!’ की एक बहुत बुलंद आवाज़ उठी. मैंने देखा कि पुल के दोनों तरफ़ हाथ में लाठी लिए हुए दोनों बांके आ गए. तमाशाइयों में एक सकता सा छा गया; सब लोग चुप हो गए.
पुल के इस पारवाले बांके ने कड़ककर दूसरे पारवाले बांके से कहा,‘उस्ताद !’ और दूसरे पारवाले बांके ने कड़ककर उत्तर दिया,‘उस्ताद!’
पुल के इस पारवाले बांके ने कहा,‘उस्ताद, आज खून हो जाएगा, खून!’
पुल के उस पारवाले बांके ने कहा,‘उस्ताद, आज लाशें गिर जाएंगी, लाशें!
पुल के इस पारवाले बांके ने कहा,‘उस्ताद, आज कहर हो जाएगा, कहर!’
पुल के उस पारवाले बांके ने कहा,‘उस्ताद, आज कयामत बरपा हो जाएगी, कयामत!’
चारों ओर एक गहरा सन्नाटा फैला था. लोगों के दिल धड़क रहे थे, भीड़ बढ़ती ही जा रही थी.
पुल के इस पारवाले बांके ने लाठी का एक हाथ घुमाकर एक कदम बढ़ते हुए कहा,‘तो फिर उस्ताद होशियार!’
पुल के इस पारवाले बांके के शागिर्दों ने गगन-भेदी स्वर में नारा लगाया,‘या अली!’
पुल के उस पारवाले बांके ने लाठी का एक हाथ घुमाकर एक कदम बढ़ाते हुए कहा,‘तो फिर उस्ताद संभलना!’
पुल के उस पारवाले बांके के शागिर्दों ने गगन-भेदी स्वर में नारा लगाया,‘या अली!’
दोनों तरफ़ के दोनों बांके, क़दम-ब-क़दम लाठी के हाथ दिखलाते हुए तथा एक-दूसरे को ललकारते आगे बढ़ रहे थे, दोनों तरफ़ के बांकों के शागिर्द हर कदम पर ‘या अली!’ के नारे लगा रहे थे, और दोनों तरफ़ के तमाशाइयों के हृदय उत्सुकता, कौतूहल तथा इन बांकों की वीरता के प्रदर्शन के कारण धड़क रहे थे.
पुल के बीचोंबीच, एक-दूसरे से दो कदम की दूरी पर दोनों बांके रुके. दोनों ने एक-दूसरे को थोड़ी देर गौर से देखा. फिर दोनों बांकों की लाठियां उठीं, और दाहिने हाथ से बाएं हाथ में चली गईं.
इस पारवाले बांके ने कहा,‘फिर उस्ताद!’
उस पारवाले बांके ने कहा,‘फिर उस्ताद!’
इस पारवाले बांके ने अपना हाथ बढ़ाया, और उस पारवाले बांके ने अपना हाथ बढ़ाया. और दोनों के पंजे गुंथ गए.
दोनों बांकों के शागिर्दों ने नारा लगाया,‘या अली!’
फिर क्या था! दोनों बांके ज़ोर लगा रहे हैं; पंजा टस-से-मस नहीं हो रहा है. दस मिनट तक तमाशबीन सकते की हालत में खड़े रहे.
इतने में इस पारवाले बांके ने कहा,‘उस्ताद, ग़ज़ब के कस हैं!’
उस पारवाले बांके ने कहा,‘उस्ताद, बला का ज़ोर है !’
इस पारवाले बांके ने कहा,‘उस्ताद, अभी तक मैंने समझा था कि मेरे मुकाबिले का लखनऊ में कोई दूसरा नहीं है.’
उस पारवाले बांके ने कहा,‘उस्ताद, आज कहीं जाकर मुझे अपनी जोड़ का जवां मर्द मिला!’
इस पारवाले बांके ने कहा,‘उस्ताद, तबीयत नहीं होती कि तुम्हारे जैसे बहादुर आदमी का ख़ून करूं!’
उस पारवाले बांके ने कहा,‘उस्ताद, तबीयत नहीं होती कि तुम्हारे जैसे शेरदिल आदमी की लाश गिराऊं!’
थोड़ी देर के लिए दोनों मौन हो गए; पंजा गुंथा हुआ, टस-से-मस नहीं हो रहा है.
इस पारवाले बांके ने कहा,‘उस्ताद, झगड़ा किस बात का है?’
उस पारवाले बांके ने कहा,‘उस्ताद, यही सवाल मेरे सामने है!’
इस पारवाले बांके ने कहा,‘उस्ताद, पुल के इस तरफ़ के हिस्से का मालिक मैं!’
उस पारवाले बांके ने कहा,‘उस्ताद, पुल के इस तरफ़ के हिस्से का मालिक मैं!’
और दोनों ने एक साथ कहा,‘पुल की दूसरी तरफ़ से न हमें कोई मतलब है और न हमारे शागिर्दों को!’
दोनों के हाथ ढीले पड़े, दोनों ने एक-दूसरे को सलाम किया और फिर दोनों घूम पड़े. छाती फुलाए हुए दोनों बांके अपने शागिर्दों से आ मिले. बिजली की तरह यह ख़बर फैल गई कि दोनों बराबर की जोड़ छूटे और उनमें सुलह हो गई.
इक्केवाले को पैसे देकर मैं वहां से पैदल ही लौट पड़ा क्योंकि देर हो जाने के कारण नख्खास जाना बेकार था.
इस पारवाला बांका अपने शागिर्दों से घिरा चल रहा था. शागिर्द कह रहे थे,‘उस्ताद, इस वक़्त बड़ी समझदारी से काम लिया, वरना आज लाशें गिर जातीं.’
‘उस्ताद हम सब-के-सब अपनी-अपनी जान दे देते!’
‘लेकिन उस्ताद, ग़ज़ब के कस हैं.’
इतने में किसी ने बांके से कहा,‘मुला स्वांग ख़ूब भरयो!’
बांके ने देखा कि एक लंबा और तगड़ा देहाती, जिसके हाथ में एक भारी-सा लट्ठ है, सामने खड़ा मुस्कुरा रहा है.
उस वक़्त बांके खून का घूंट पीकर रह गए. उन्होंने सोचा-भला उस्ताद की मौजूदगी में उन्हें हाथ उठाने का कोई हक़ भी है?
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