जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य है या ब्रह्म मिथ्या और जगत सत्य. ये विवाद सदैव से चलता आया है और चलता रहेगा. किंतु इसका उत्तर जानने के लिए अगर हम पुराणो की ओर जाएं और उनका सिर्फ़ पठन ही नहीं मनन भी करें तो पाएंगे कि हमारे व्रत, उपवासों में कोई तो वैज्ञानिक आधार छिपा है, जिन्हें यदि हम समझ लें तो इन्हें बनाने के उद्देश्य से परिचित हो सकेंगे. हो सकता है हमारे द्वंद्वग्रस्त मन को पूजा की सही विधि भी मिल जाए और अपने स्तर पर कुछ सार्थक करने का संतोष भी. यहां नवरात्र में द्वितीय दिन की पूज्य देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा की प्रासंगिकता पर चर्चा कर रही हैं भावना प्रकाश.
नवरात्रि में दूसरे दिन की पूज्य देवी हैं, माता ब्रह्मचारिणी. इतना तो हम सब जानते हैं कि माता पार्वती ने पर्वतराज हिमालय के यहां जन्म लेकर भगवान शंकर को पाने के लिए कठिन तपस्या की थी. ब्रह्म का एक अर्थ होता है तपस्या और चारिणी का अर्थ आचरण करने वाली; तो ब्रह्मचारिणी देवी की पूजा पार्वती जी के तपस्वी रूप की पूजा है. अब आगे बढ़ते हैं, इसके प्रतीकार्थ की ओर.
तप का अर्थ क्या है? मिट्टी के बर्तन बनाने के बाद उन्हें भट्टी में तपाया जाता है, ताकि वो दृढ़ हो सकें. प्राचीन काल में यहीं से ‘तपना’ शब्द लिया गया और शिक्षा मतलब आकार ग्रहण करने के बाद अपने शरीर, मन और आत्मा को सुदृढ़ करने हेतु अथवा स्वेच्छा से उसे कठिन नियमों में बांधने वाले विद्यार्थी तपस्वी या ब्रह्मचारी कहलाते थे. ब्रह्मचर्य आश्रम का अर्थ ही पौराणिक काल में विद्या तथा साधना की उम्र से था. क्योंकि ये माना जाता था कि तपश्चर्या अर्थात् दिनचर्या को सख़्त अनुशासन में बांधे बिना ज्ञानार्जन असंभव है. यही ‘तपश्चर्या’ आज विद्यार्थी जीवन से अपेक्षित होती है. धीरे-धीरे किसी निश्चित उद्देश्य के लिए शरीर, मन और आत्मा की समस्त शक्तियां लगाकर पूर्ण निष्ठा तथा एकाग्रता के साथ सुनियोजित और निरंतर श्रम करने की क्रिया ‘तपस्या’ के अर्थ में रूढ़ हो गई.
अब हम कोई पौराणिक कथा उठाकर देखें कि जहां वर्णन आता है कि अमुक ने वर्षों तक कठिन तपस्या की. तो इसका अर्थ यही तो होता है कि उसने दीर्घकाल तक अपनी इंद्रियों को वश में किया यानी शरीर या मन को मनोरंजन देने वाली चीज़ों को त्यागकर अपना ध्यान केवल अपने लक्ष्य पर केंद्रित करने के लिए नियोजित किया और एकाग्रता से परिश्रम किया. नवरात्रि का ये दूसरा दिन बस यही संदेश देने के लिए है.
अब आगे बढ़ते हैं इस सवाल की ओर कि इस तपस्या का जन साधारण के जीवन में क्या महत्त्व है और वर्ष में दो बार नौ दिन ये कर लेने से क्या हो जाएगा.
जीवन में ऐसी बहुत सारी चाहतें और सपने होते हैं, जिन्हें हम केवल अपने आलस्य के कारण नहीं पूरे कर पाते. बहुत से सामाजिक योगदान ऐसे हैं, जैसे कुछ वंचितों को विद्यादान देना अथवा आसपास की स्वच्छता या पर्यावरण में योगदान या कुछ नहीं तो अपने शरीर को दृढ़ता प्रदान करने हेतु व्यायाम और मन की शांति के लिए प्राणायाम आदि जो हम कहते हैं कि समयाभाव के कारण नहीं कर पाते.
हमारे त्योहारों के संस्थापक ऋषि जानते थे कि आलस्य प्रगति का सबसे घातक और समीपवर्ती शत्रु है. और गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के बाद जब लोगों पर किसी गुरु का अनुशासन नहीं रहेगा तो उन्हें ‘तपश्चर्या’ अर्थात् शरीर और मन को स्वस्थ और सुदृढ़ रखने की गतिविधियों को बनाए रखने के लिए, स्व अनुशासन के लिए प्रेरित करने को उन्होंने व्रत-पूजन के नियम बनाए. ब्रह्म मुहूर्त में उठकर, नहा-धोकर, प्राणायाम-ध्यान करके पूजा करने की बाध्यता लोगों में जल्दी उठने की आदत छूटने नहीं देगी. ऋतुओं के संधिकाल में नौ दिन सात्विक खाना खाने से सात्विक खाने की सरसता याद रहेगी.
अब आज के समय में भी इसकी यही प्रासंगिकता है. आज के युग में ब्रह्मचारिणी देवी की पूजा ये है कि अपने फ़ैमली फ़िज़िशन की बात याद कर उसे व्यवहार में बदलना कि कैल्शियम खा आप चाहे जितना लो, शरीर में लगेगा व्यायाम से ही.
आज तनाव और अवसाद भरे जीवन में शारीरिक व्यायाम और प्राणायाम पर, और पौष्टिक और संतुलित आहार की आवश्यकता पर आपने बहुत निबंध पढ़े होंगे तो इसमें विस्तार में जाना समीचीन नहीं.
इस लेख में हम ये समझ सकते हैं कि नवरात्रि में अगर हम ये ज़रूरी समझते हैं कि सुबह किचन में अपना काम शुरू करने से पहले या ऑफ़िस जाने से पहले पूजा करनी है और इस वजह से जल्दी उठ जाते हैं. थोड़- सा समय अपने शरीर और मन को दृढ़ बनाने और स्वस्थ रखने के लिए निकाल लेते हैं तो यही सही ढंग है देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा का. आज हमारे बहुत से संतापों का कारण होता है सुबह के अलार्म को बंद कर सो जाने का प्रमाद. और अगर हमारी पूजा हमें उस अलार्म को ‘स्नूज़’ करने से बचा लेती है तो ये तपस्या हुई और अगर नौ दिन बाद इसके सुपरिणाम सुखद लगने के फलस्वरूप हम इसे अपनी आदत में तब्दील कर ले जाते हैं तो ये तपस्या का वांछित वरदान है.
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