जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य है या ब्रह्म मिथ्या और जगत सत्य. ये विवाद सदैव से चलता आया है और चलता रहेगा. किंतु इसका उत्तर जानने के लिए अगर हम पुराणो की ओर जाएं और उनका सिर्फ़ पठन ही नहीं मनन भी करें तो पाएंगे कि हमारे व्रत, उपवासों में कोई तो वैज्ञानिक आधार छिपा है, जिन्हें यदि हम समझ लें तो इन्हें बनाने के उद्देश्य से परिचित हो सकेंगे. हो सकता है हमारे द्वंद्वग्रस्त मन को पूजा की सही विधि भी मिल जाए और अपने स्तर पर कुछ सार्थक करने का संतोष भी. यहां नवरात्र में प्रथम पूज्य देवी शैलपुत्री की पूजा की प्रासंगिकता पर चर्चा कर रही हैं भावना प्रकाश.
नवरात्र के नौ दिनों में प्रथम पूज्य हैं, देवी शैलपुत्री. इनकी कथा, और कर्मकांडों द्वारा पूजन विधि तो आपको पता ही होगी. तो आगे बढ़ते हैं. पर्यावरण संरक्षण आज युग की सबसे बड़ी आवश्यकता बन गया है. और प्रकृति का सबसे सुंदर और प्रभावशाली रूप है – पर्वत. पर्वत यानी शैल की पुत्री अर्थात शुद्ध वायु और निर्मल जलधारा. पर्वत जन्मदाता है उन असंख्य छोटी-बड़ी नदियों का जो आज या तो विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्ति की कगार पर हैं या फिर प्रदूषण की मार से ऐसी कुम्हलाई अकुलाई हैं, कि उन्हें मां कहे जाने या उनकी आरती अर्चना करना व्यंग्य से अधिक और कुछ नहीं लगते. पहाड़ों से जन्मी शुद्ध वायु का भी यही हाल है. पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई और अनियोजित ‘विकास’ के ख़तरे पर आप इतने लेख पढ़ चुके होंगे कि उन्हें विस्तार देना यहां समीचीन नहीं लगता.
अब आएं पूजा के अर्थ पर. जब हम किसी की पूजा करते हैं तो इसका अर्थ क्या होता है. ध्यातव्य है कि हम मंदिर में उपयोग होने वाली कोई वस्तु कभी कूड़े में नहीं फेंकते. मंदिर या पूजा की किसी भी वस्तु को स्पर्श करते समय शुद्धता का विशेष ध्यान रखते हैं. पूज्य वस्तु हमारा सर्वाधिक ध्यान और सम्मान भरा रखरखाव पाती है. तो बस, हमें वही तो करना है. हमारे पूजा-पाठ ऋषि-मुनियों द्वारा तब की निरक्षर जनता को कुछ सिखाने या समझाने के लिए बनाए गए कर्मकांड थे, जिनके बहाने लोग असल काम रुचिपूर्वक कर भी लें और याद भी रखें. नवरात्रि की पूजन परंपरा ऋषियों द्वारा गृहस्थों के लिए बनाया गया वो अनुष्ठान है, जो उनके सामाजिक दायित्वों का दस्तावेज़ था.
वर्ष मे दो बार नौ दिन तक प्रत्येक दिन ये याद करने और इसी बहाने कुछ विशिष्ट करने का कैलेंडर, जो हमें अपने आध्यात्मिक विकास के लिए स्वयं या सामाजिक विकास के लिए सामूहिक रूप से करना होता था. दुर्भाग्य से हमने असली उद्देश्यों को भुला दिया और कर्मकांडों के अंध-भक्त बनकर रह गए.
अब हमारे सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह होता है कि हम अकेले पर्यावरण में क्या योगदान दे सकते हैं. नदियों को बचाना पहाड़ों को साधना और वायु के प्रदूषण स्तर को कम करना अकेले करने वाले तो काम हैं नहीं. मगर पूजा अकेले की जा सकती है तो कर लेते हैं. पर देवी शैल-पुत्री की वास्तविक पूजा अकेले करने के भी कुछ तरीक़े हो सकते हैं. एक नज़र डाल लीजिए शायद आपको भी ये तरीक़े पसंद आ जाएं:
चैत्र नवरात्रि के समय गर्मी के तथा शारदीय नवरात्रि के समय जाड़ों के फूलों के पौधों की कटिंग लगाने या बीज रोपने का सही समय होता है. इस दिन एक पौधा देवी मां के नाम से लगाएं तो कैसा रहेगा? यदि हम बरसात में यहां-वहां उग आए नीम, पीपल के पौधों को गमलों में सहेज लें तो उन्हें ज़मीन में रोप देना का यही मौसम है जो पहाड़ की पुत्री अर्थात शुद्ध वायु की अर्चना का सर्वोत्कृष्ट तरीक़ा होगा.
वाटर प्योरिफ़ायर के वेस्ट जाने वाले पानी का निकास किसी बाल्टी में करके उस पानी को रियूज़ किया जा सकता है.
पंछियों के लिए मिट्टी की नांद ख़रीदकर उसमें पानी रखना शुरू किया जा सकता है.
कुल मिलाकर यदि हम समझ लें कि शैलपुत्री की पूजा का अर्थ है पर्यावरण संरक्षण में एक नागरिक के नाते अपना योगदान सुनिश्चित करना तो फिर पूजा की विधि तो हम अपनी स्वयं की भी हज़ारों निकाल सकते हैं.
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