फ़िलहाल सोशल मीडिया पर सुप्रीम कोर्ट की ट्रोलिंग जारी है. वजह है सुप्रीम कोर्ट के हाल ही में दिए गए कुछ फ़ैसले. हालांकि प्रजातंत्र में जनता को यह बात भली-भांति मालूम होनी चाहिए कि उसके अधिकारों का रक्षक सुप्रीम कोर्ट ही है, वही है जो उनके लिए लोकतंत्र की गारंटी बनाए रखता है. लोकतंत्र संविधान के अनुसार चलता है अत: इस मामले में जनता का यह जानना ज़रूरी है कि क्या वाक़ई संविधान में दिए गए अधिकारों के तहत सुप्रीम कोर्ट संसद में बनाए गए क़ानूनों की समीक्षा कर सकता है? और भगवान दास हमें यही बात बता रहे हैं.
अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने दो महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई करे हुए कुछ फ़ैसले दिए हैं, जिनसे केंद्र सरकार में बेचैनी है. पहला है तमिल नाडु का. जिसमें उसने तमिल नाडु के गवर्नर को ताक़ीद की है कि वो राज्य की विधान सभा से पास बिल पर अनंत समय तक नहीं बैठ सकता और रुके हुए बिलों को पास घोषित कर दिया. और प्रेसिडेंट को भी यह कहा कि जो बिल उसके पास है उस पर वो 3 महीनों में निर्णय लें. इसी के साथ उसने यह भी टिप्पणी की कि गवर्नर का व्यवहार असंवैधानिक और ग़ैरक़ानूनी है.
दूसरे महत्वपूर्ण फ़ैसले में हाल ही मे पास सेंट्रल वक़्फ़ क़ानून जिसको सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी उस पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने सरकार से कई कड़े सवाल पूछे और ये कह दिया कि इसमें वो कोई अंतरिम फ़ैसला भी दे सकती है. इस कड़े रुख़ के बाद जब सरकारी वकील ने ये वादा किया कि जब तक केस का फ़ैसला नहीं हो जाता, बिल के उन प्रावधानों में, जिनमें याचिकाकर्ताओं को आपत्ति है, यथास्थिति में कोई बदलाव नहीं किया जाएगा. इसके बाद कोर्ट ने अंतरिम फ़ैसला नहीं दिया और सुनवाई जारी रखी है.
ज़ाहिर है, इसके बाद सरकार के समर्थकों द्वारा सुप्रीम कोर्ट की भी ट्रोलिंग शुरू हो गई. एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति ने कहा कि कोर्ट सुपर-पार्लियामेंट के समान काम कर रही है और कोर्ट को राष्ट्रपति को निर्देश देने का अधिकार नहीं है. एक केंद्रीय मंत्री ने भी लगभग धमकीभरे शब्दों में कहा कि न्यायपालिका को कार्यपालिका के काम में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, अगर ऐसा हुआ तो हम न्यायपालिका के कार्य में हस्तक्षेप कर सकते हैं. सरकार के एक सांसद ने कह दिया कि अगर कोर्ट ही क़ानून बनाएगी तो संसद को ताला लगा देना चाहिए. सोशल मीडिया पर तो बहुत हो अभद्र भाषा में कोर्ट पर टिप्पणी शुरू हो गई सरकार के अंधभक्तों द्वारा. कोर्ट को धर्म विरुद्ध बताया जाने लगा, ये बहुत आसान तरीक़ा होता है जनता को भड़काने का.
लेकिन सच्चाई क्या है? क्या सुप्रीम कोर्ट को पार्लियामेंट के बनाए क़ानून की समीक्षा का अधिकार नहीं है . जवाब है, बिल्कुल है. संविधान के अनुच्छेद 13, 32 और 136 सुप्रीम कोर्ट को ये अधिकार देते है कि अगर पार्लियामेंट कोई क़ानून बनाती है, जो संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है या जनता के मौलिक अधिकारों का हनन करता है तो सुप्रीम कोर्ट को हक़ है कि वो उसकी विवेचना करे और ज़रूरी हो तो उसको निरस्त कर दे. मिसाल के तौर पर कल्पना कीजिए कि अगर कल कोई सरकार अपने संख्या बल के आधार पर पार्लियामेंट में यह बिल पास कर दे कि सरकारी नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी नहीं होगी और ये बिल सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए आ जाए तो ज़ाहिर-सी बात है कि कोर्ट उसे संविधान विरुद्ध मानकर निरस्त कर देगी. उसे ये करना ही होगा, क्योंकि ऐसा बिल समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है. अगर कोई प्रदेश सरकार ऐसा बिल पास कर दे, जिसमें पुलिस को असीमित अधिकार मिल जाए, जिसमें इसे किसी भी व्यक्ति को लंबे समय तक जेल में रखा जा सके तो ऐसे क़ानून का दुरुपयोग होगा ही. अगर कोर्ट को इस तरह के क़ानूनों की विवेचना और उन्हें निरस्त करने का अधिकार नहीं होगा तो उस राज्य को पुलिस स्टेट बनते देर नहीं लगेगी.
भारत एक संवैधानिक लोकतंत्र है, जिसमें संविधान सबसे ऊपर है, और जितने भी संवैधानिक पद और संस्थाएं है वो सब संविधान के नीचे हैं, यहां तक कि पार्लियामेंट भी. और संविधान में ही ये लिखा है कि संविधान की समीक्षा का अधिकार केवल सुप्रीम कोर्ट को है. पहले के दशकों में भी जब जब सरकारों ने मनमाने क़ानून लागू करने की कोशिश की तो कोर्ट ने ही उनको ख़ारिज किया और लोकतंत्र बच पाया. जो लोग आज सुप्रीम कोर्ट को ट्रोल कर रहे है, वो आज अस्तित्व में ही नहीं होते अगर सुप्रीम कोर्ट ने 70 के दशक में तत्कालीन सरकार की मनमानियों पर रोक न लगाई होती.
जब भी कोई तानाशाही सरकार आती है तो उसे कोई भी वो संस्था पसंद नहीं आती, जो उसकी मनमानियों पे रोक लगाए. भारत के संविधान निर्माताओं ने इसीलिए बड़ी समझ-बूझ से शक्तियों के विभाजन (separation of power) की बात की और कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को एक दूसरे के कंट्रोल से अलग रखा.
जिन देशों में इस तरह का विभाजन नहीं है, वहां लोकतंत्र कमजोर पड़ गया और देर-सवेर तानाशाही की ज़द में चला गया. रशिया यानी रूस में प्रेसिडेंट पुतिन ने संविधान में संशोधन करके अपने आपको 2036 तक प्रेसिडेंट घोषित किया हुआ है, क्योंकि वहां की सुप्रीम कोर्ट पूरी तरह स्वायत्त नहीं है और वहां का राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट पर काफ़ी प्रभाव रखता है.
पिछले साल इजरायल में जब वहां की सरकार ने इजरायल सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों को सीमित करने की कोशिश की थी तो जनता सड़कों पर आ गई थी और जमकर प्रदर्शन हुए। जनता को एहसास हो गया था कि अगर लोकतंत्र और अपने अधिकारों को बचाना है तो उसे अपने सुप्रीम कोर्ट को बचाना होगा. आख़िर में सरकार को झुकना पड़ा और फ़ैसला वापस लेना पड़ा.