देहरादून शहर में गर्मी की एक रात थी, आसमान में बादल उमड़-घुमड़ कर भी बरस नहीं रहे थे. बत्ती गुल होने की वज़ह से नींद बार-बार आजा रही थी. आधी रात को कभी झमाझम बारिश शुरू हुई तो ठंडी हवा के संग सुकून की नींद आने लगी, सुबह पांच बजे अलार्म बजा तो मैं हड़बड़ा कर जाग उठी…‘‘अरे!! यह क्या है? मैं कहां हूं?’’ दस मिनट ख़ुद को संभालने और संयत करने में लगे. आख़िर ऐसा क्या सपना देखा, जो मैं बारिश के मौसम में भी पसीने से भीगी हूं. आंखों की कोरों से पानी बह रहा है, मन एकदम रोने को था.
ओ रे मनवा तू तो बावरा है
तू ही जाने तू क्या सोचता है
तू ही जाने तू क्या सोचता है बावरे
क्यूं दिखाए सपने तू सोते जागते
जो बरसें सपने बूंद बूंद
नैनों को मूंद मूंद
कैसे मैं चलूं, देख न सकूं, अनजाने रास्ते
मैं बचपन से ऐसी ही हूं कि जागती आंखों से तो सपने देखती ही हूं, सोए सोए भी ऐसे अजीब-अजीब सपने देखती हूं कि अधिकतर सपने याद रह जाते हैं. विवाह से पूर्व जब भाई-बहनों को अपने सपने सुनाने की कोशिश करती थी तो सब मिलकर मेरा मज़ाक बनाते थे कि किताबें कम पढ़ा करो. दिनभर किताबें पढ़-पढ़कर दिमाग ख़राब होता है. विवाह बाद जब अपने पति को अपने सपने सुनाती तो वो बहुत उत्सुकता से सपने सुना करते थे फिर इन सपनो को लिख डाला करो कहकर व्यस्त हो जाते थे. व्यस्त दिनचर्या छोटे बच्चे बुज़ुर्गों का साथ, ऐसे में इतना समय ही नहीं मिलता था कि सपनों को शब्दों में ढाल डायरी के पन्नो पर लिख दिया जाए.
अपने कई सपने याद हैं लेकिन एक ऐसा सपना, जिसने मुझे लगातार कई बरस तक उद्वेलित किया कई बार उसको लिखने का साहस भी किया, लेकिन बूंद बूंद दर्द भीतर रिसता रहा. सच और सपने के मध्य तार्किकता का पुल बनती मैं अक्सर विमूढ़-सी रह जाती थी. जिंदगी सिर्फ़ ख़्वाब देखकर तो नहीं जी जाती है. हक़ीक़त की तल्ख़ जमीन पर ख़्वाब का कुछ प्रतिशत भी नज़र आए तो वो सच लगने लगते हैं.
सपने जो अंधियारे में/ज़हन के बंद गलियारों में/जब चुपके चुपके बसते हैं/दर्द के परनाले बहते हैं/टीस की सूइएं चुभती हैं/ख़ौफ़ मंज़र दिखते हैं/तब खंजर चुभते हैं
वर्ष 2012 की बात है. देहरादून शहर में गर्मी की एक रात थी, आसमान में बादल उमड़-घुमड़ कर भी बरस नहीं रहे थे. बत्ती गुल होने की वज़ह से नींद बार-बार आजा रही थी. आधी रात को कभी झमाझम बारिश शुरू हुई तो ठंडी हवा के संग सुकून की नींद आने लगी, सुबह पांच बजे अलार्म बजा तो मैं हड़बड़ा कर जाग उठी… ‘‘अरे!! यह क्या है? मैं कहां हूं?’’ दस मिनट ख़ुद को संभालने और संयत करने में लगे. आख़िर ऐसा क्या सपना देखा, जो मैं बारिश के मौसम में भी पसीने से भीगी हूं. आंखों की कोरों से पानी बह रहा है, मन एकदम रोने को था. पानी पीकर सपने को याद करने की कोशिश की तो सब बिखरी कड़ियां जुड़ने लगीं…
मैंने सपने में देखा कि मायके (मुज़फ्फरनगर ) का घर है, बड़ा-सा आंगन और आंगन में एक मृत शरीर सफ़ेद चादर से ढंका हुआ है. उसके आस पास सफ़ेद दुपट्टे ओढ़े बहुत सारी महिलाए रो रही हैं, मुझे नहीं समझ में आ रहा है कि यह मृत शरीर किसका है? रोने वाले सब चेहरे मेरे अपनों के हैं. सब बहनें, भाभियां, रिश्तेदार सब आसपास हैं. मां सामने बरामदे में चुपचाप सबको देख रही हैं. सफ़ेद दुपट्टे से सिर ढके मां पहले से बहुत बूढ़ी नज़र आ रही थी. मेरा सबसे छोटा भाई मां के पास खड़ा है और उनके कंधे पर हाथ रखे उनको सांत्वना दे रहा हैं. मां उसका हाथ कसकर थामे हैं. उफ़! यह मृत शरीर पापा तो नहीं… दांतों ने जीभ को काटा और मन ने ख़ुद को डांटा और मेरी रुलाई छूटने को थी कि आंगन के साथ वाली बैठक में बड़े दोनों भाई, पापा, चाचा और चचेरे ममेरे भाई के साथ बात करते दिखाई दिए. तो यह कौन है? जो अब इस दुनिया में नहीं है… जैसे ही मैं अपनी बहनों, भाभियों की भीड़ को चीरती आगे बढ़ने लगी तो सबने ‘अरे नीली आ गई, अरे नीली आ गई’ की आवाज़ की. मैंने जैसे ही सफ़ेद चादर उठाकर उस देह का चेहरा देखना चाहा… अलार्म की घंटी बज चुकी थी और मैं जैसे किसी और दुनिया की टाइम लाइन से इस दुनिया में पटकी जा चुकी थी.
बच्चों को स्कूल भेजने के बाद मैंने यह सपना अपने पति को सुनाया तो वो भी हैरान थे. बोले,“परेशान मत हो. दिन में किसी भी वक़्त मायके फ़ोन करके बात कर लेना.” घर में सब काम हो रहे थे हाथ और दिमाग़ दोनों में होड़ लगी थी कौन ज़्यादा तेज चलता है. दस बजते-बजते मुझसे रहा नहीं गया और मैंने झट से पापा के फ़ोन पर कॉल मिलाई तो उनकी जोशभरी आवाज़ आई,“अरे, तेरी बड़ी लम्बी उम्र है. तेरी मम्मी आज सुबह ही कह रही थी कि नीली को कॉल करो कई दिन से बात नहीं हुई. मैंने उन दोनों की तबियत की बाबत पूरी जानकारी ली और अपना ध्यान रखना कहकर फ़ोन रख दिया. मन उनको स्वस्थ जानकार भी उद्ग्विन था. बारी-बारी से सब भाइयों और बहनों को फ़ोन करके उनकी कुशल क्षेम जानी. मंझली दी ने मुझें मेरा सपना सुनकर मुझे हिम्मत दी,‘‘मैंने कहीं पढ़ा था कि आप अगर किसी की मृत्यु का सपना देखते हैं तो उनकी आयु बढ़जाती है.’’ लेकिन मेरे मन को तसल्ली नहीं मिली.
आख़िर ईश्वर सपने में क्या कहना चाहता था? मेरी काया उस सपने की माया में अभी भी उलझी थी. मेरा मन बांवरा ही रहा और उस रात सोने से पहले मेरी डायरी में चंद शब्द अंकित हुए …
मां!! रात मैंने एक सपना देखा/मयके के आंगन में सोई एक देह/और पास उसके एक सफ़ेद कपड़ो में बैठी भीड़/मैं ग़ुस्से से देख रही हूं/सब की ओर/और कहना चाह रही हूं जैसे/चुप रहो ना … /वो देह सो रही है सुकून से/ पर तुम मुझे इशारे से कहती हो/चुप रहने को/और मैं कुढ़ रही हूं/तुम्हारे ही दिए गए/अपने नीले-सफ़ेद दुप्पटे को/बार-बार उंगली पर लपेटते हुए/और अचानक मेरा रुदन और तुम्हारी सिसकियाँ एकाकार हो जाती हैं/और उसकी आवाज़ में कही दब जाती हैं/उन सफ़ेद कपड़ेवालियों की रुलाई/और मैं/लिपट जाती हूं तुमसे कसकर/कभी ना अलग होने के लिए/और अचानक आंख खुल जाती है मेरी/भोर का सूरज लालिमा लिए/आने को तत्पर आसमान में/और मैं पसीने से तरबतर/इस झमाझम बारिश में/आंखों के कोरो से बहते आंसुओं के संग/मां!! तुम ठीक हो ना/प्लीज़ कह दो/सपने झूठे होते हैं/सुबह के…
उस रात के बाद भी कई सपने आए, कुछ याद रहे कुछ भूल गई. यह सपना भी अवचेतन का कोई कोना अपने लिए चुनकर विस्मृत हो गया.
दो बरस बाद मई 2012 के अंतिम सप्ताह में उषा दीदी को सर्विक्स का कैंसर होने की ख़बर आई. हम सब भाई-बहन अपनी इस बहन के बहुत क़रीब हैं. किसी को किसी पर भी ग़ुस्सा हो, प्यार हो, परेशानी हो सबकुछ सुन लेनेवाली इस बहन को आज कैंसर… रुलाई गले तक अटक गई थी. सोलह जून को मैक्स में उनकी सर्जरी हुई. वहां से भाई ने मुझे फ़ोन करके सांत्वना दी कि अभी पहली स्टेज ही थी. डॉक्टर बोले सब ठीक हो जाएगा, लेकिन मेरा मन कमज़ोर हो रहा था, रह रह ख़्याल आता, अगर दीदी को कुछ हो गया तो…?
वो अवचेतन मन के किसी कोने में छिपी सफ़ेद चुन्नियां याद आतीं तो मन घबराने लगता था. दीदी का ऑपरेशन ठीक-ठाक हो गया था तो सब भाई-बहन बारी-बारी से उनके घर डेरा जमा कर बैठ गए अब वो बीमार वाला घर कम गर्मी की छुट्टियों में हंसी मज़ाक करता मायका ज़्यादा लगने लगा था.
दीदी को ऑपरेशन के एक माह बाद दोबारा हॉस्पिटल जाना था तो भाई भी उनके साथ गया. वहां कैंसर के भिन्न प्रकार और लक्षणों के पोस्टर लगे थे, अचानक एक पोस्टर पढ़कर भाई बोला मुंह में तो मेरे भी बहुत छाले रहते हैं. दीदी के चेकअप के दौरान भाई ने डॉक्टर से अपने छालों का ज़िक्र किया तो उन्होंने बायोप्सी जांच कराने को कहा. रिपोर्ट आते-आते अगस्त का पहला सप्ताह हो चुका था. भाई की जांच रिपोर्ट में भी मुंह का कैंसर निकल आया था. यह सुनते ही हम सब का कलेजा फट गया था. लेकिन भाई एकदम पॉज़िटिव था कि अरे कुछ नही है… इतनी जल्दी नहीं जाने वाला हूं मैं… सब ठीक हो जाएगा.
मेरा छोटा भाई पांच फ़ीट आठ इंच क़द, भरा हुआ शरीर. खेती करता एक मेहनतकश इंसान, जिसके शरीर में इतनी ताकत थी कि 100 किलो गेहूं की बोरी अपनी पीठ पर लाद कर बिना रुके सीढ़ी चढ़ जाता था. दीवार पर अगर मुक्का मार देता था तो उसकी ईंटें हिल जाती थीं. बन्दूक पिस्तौल और नई-नई कारों का शौक़ीन था. उसकी मासूम मुस्कराहट उसकी ताक़त थी कि वो अपने काम हर जगह से सफलता पूर्वक करा कर ही घर लौटता था. सभी भाई मम्मी पापा के साथ संयुक्त परिवार में रहते थे. अलग-अलग हॉस्पिटल्स में अलग-अलग डॉक्टर्स की राय ली जाने लगी. लोग आते अपनी-अपनी राय और इलाज बताते थे. ऐसे समय में भी मम्मी भी बहुत हिम्मती रहीं. हमेशा सबको सांत्वना देतीं कि देखो उषा भी ठीक है न, यह बिट्टू भी ठीक हो जाएगा. मम्मी-पापा का समय अब महामृत्युजय मन्त्र का जाप करते हुए बीतता था. भाई की लम्बी उम्र की कामना के लिए व्रत-उपवास, दान-पुण्य, उपाय किए जाने लगे थे. जो कोई जहां भी धागा बांधने को कहता, जहां भी दान देने को कहता हम सब बहनें, भाभियां करने लगते.
आख़िर में मुंबई के सर एलए ख़ान के किसी कैंसर स्पेशलिस्ट से भाई की सर्जरी करने का निश्चय हुआ. तीनों भाई फ़्लाइट से वहां गए और अगले ही दिन उनकी सर्जरी हुई. चौबीस घंटे बाद भाई को होश में आया देख कर, भाभी और मेरी रुलाई छूट गई. अभी 24 घंटे ही हुए थे और भाई का चेहरा सूज चुका था. पचास से ज्यादा स्टिच लगे थे. भीगी आंखों से इशारों में बात करते भाई ने मुझे हाथ हिला कर हिम्मत देने की कोशिश की. बड़े भाई ने प्यार से उसके सर पर हाथ रखकर कहा,‘‘बिट्टू कुछ नहीं होगा. हम सब है तेरे साथ. हमारी उम्र भी तुझे लग जाए…’’ उसने भी सर हिलाकर अनुमोदन किया कि हां, मुझे कुछ नहीं होगा. बस उसने इशारे से कहा कि दर्द बहुत है.
बाहर बैठ चाय पीते-पीते बड़े भाई ने कहा,‘‘बिट्टू को दर्द हद से ज्यादा है.’’ और मेरी उंगलियों ने लिखा- सुना होगा तुमने दर्द की भी एक हद होती है/मिलो हमसे हम आजकल उसके पार जाते हैं.
दर्द की लहरें अब हम सब के सीने में भी उठती रहती थीं, लेकिन अपने इस ताक़तवर, हंसमुख भाई को देखकर हमेशा एक पॉज़िटिव भाव आता कि भाई तुझे कभी कुछ नहीं होगा. कभी-भी कुछ नहीं होगा. कल्पना में भी यह भाव नहीं आता था कि इस भाई को कुछ हो गया तो? नहीं, इसको तो कभी कुछ हो ही नहीं सकता… भाई का इलाज के मुम्बई आना जाना लगा रहता था. हम सब एक-दूसरे को फ़ोन करके सकारात्मक बनाए रखते थे. इसी बीच मम्मी कई बार लोकल हॉस्पिटल में एड्मिट हुईं उनकी काफ़ी साल पहले ओपन हार्ट सर्जरी हो चुकी थी. पापा भी हार्ट पेशेंट थे तो दोनों की तबियत ख़राब-सी रहती थी. और वे बेटे को देखकर और परेशान रहते थे.
गर्मी की छुट्टियों में बड़े भैया जब बच्चों को लेने मसूरी आए तो उन्होंने बताया कि बिट्टू की तबियत ठीक नहीं है, दवाओ के साथ साथ किसी वैद्य जी के काढ़े भी पिलाए जा रहे हैं. एक बरस बीत चुका था. भाई कुछ स्वस्थ लगने लगा था. उसने फिर से कामकाज संभालना शुरू कर दिया था. एक दिन अचानक फिर उसकी तबियत ख़राब हुई और दोबारा सब जांच कराई गई तो पता चला कि मर्ज़ बहुत गहरे तक फैल गया है.अब कीमो करनी होगी. शुरू-शुरू में मुंबई जाकर कीमोथेरैपी कराई गई. फिर दिल्ली में मैक्स हॉस्पिटल में कीमोथेरैपी कराई जाने लगी.
भाई कई बार मुझे मिलने देहरादून आया. तब तक भाई को शायद पता चल चुका था कि अब उसके पास समय नहीं है. सौ किलो वज़न वाला भाई मात्र 52 किलो का रह गया था. कीमो के साइड इफ़ेक्ट उसके शरीर पर नज़र आने लगे थे. उसको देखते ही रुलाई छूटती थी, लेकिन उसका बिंदास मज़ाकिया अंदाज़ वैसा का वैसा ही था.
अपने पति की जॉब और बच्चों के कॉलेज में एड्मिशन के लिए मुझे दिल्ली शिफ़्ट करना था. मार्च माह में मेरा भाई एक सप्ताह तक मेरे साथ रहा. ख़ूब बातें करता बिट्टू. मेरी मनपसंद मखनी दाल को तड़का लगाता, लेकिन ख़ुद बस कल्पना मात्र से ही स्वाद को महसूस करता था. अप्रैल माह में देहरादून से दिल्ली जाते हुए रास्ते में मुज़फ्फरनगर में थोड़ी देर के लिए रुकना हुआ तो बिट्टू की हालत बेहद ख़राब थी. दर्द के मारे उसका बुरा हाल था. भाई बोल सकने में भी असमर्थ था. लिखकर बात करता था.
उसने काग़ज़ पर लिखकर कहा- “बहुत मोहब्बत हो रही है ज़िंदगी से/जब से जाना फिसल रही है मुट्ठी से”
उसके बहुत रोकने के बावजूद मुझे दिल्ली आना पड़ा. यहां अगले दिन ससुराल पक्ष में कोई फंक्शन था. एक माह बीत गया और मैं रोज़ाना फोन पर भाई की तबियत पूछती. घर के सब लोग बताते- बहुत दर्द में है. सब उदास रहते. सब पीर, दरगाह, मंदिर में दुआएं मांग रहे थे कि 30 मई 2014 शाम को तेज़ आंधी-तूफ़ान के बीच वो मनहूस खबबर आ गई, जिसको हम सब कभी नहीं सुनना चाहते थे. जिसको सुनकर आज भी विश्वास नही कर पाते हैं कि बिट्टू हम सबको छोड़ कर चला गया. उसके जाने की ख़बर सुनते ही अचानक मेरे दिमाग़ के अवचेतन कोने से वो सपना जैसे जागृत होकर बाहर आ गया. उफ़ तो यह सपना था… वो देह…
रात को दस बजे मैं रोते-बिलखते मायके पहुंची. सामने बिट्टू की देह फ्रीज़र बॉक्स में रखी थी. घर के बाहर गली में दरियां बिछी थीं और कुछ लोग बाहर खड़े थे, लेकिन घर के भीतर सिर्फ़ घर की महिलाएं ही थीं. रोना-पीटना, स्यापा क्या बताऊं? सिर्फ़ आंखें ही नही रोईं, दिल भी फट गए थे. हम सब देह से ज़िंदा थे, भीतर से सब के सब बिट्टू के साथ मर चुके थे. पूरे शहर में हर किसी की ज़ुबान पर बिट्टू की दरियादिली के क़िस्से और आंखों में आंसू थे.
अगली सुबह संस्कार के पश्चात मेरे सपने ने जैसे मुझे झंझोड़ा. लेकिन यह तो मेरा सपना नहीं था. यहां कल कोई सफ़ेद दुपट्टा पहने भीड़ नही थी. अचानक मृत्यु के बाद किसको होश था कि दुपट्टे बदल कर बैठे? यहां रात का वक़्त था, लेकिन मेरे सपने में तो सूर्य की रौशनी थी.
सत्रह दिन तक हम एक मशीन की तरह बस काम कर रहे थे, रो रहे थे और बस जी रहे थे. दर्द तो वापिस घर में आने पर उछाले मारने लगा था. कोई दिन ऐसा नहीं था, जिस दिन दोनों वक़्त खाना खाया हो. कोई ऐसा दिन नहीं था, जब हम फूट-फूटकर रोए न हों. बूढ़े मम्मी-पापा दिनभर ख़ुद को कोसते थे कि हम तो बैठे हैं, हमारा जवान बच्चा चला गया. घर का सबसे छोटा बच्चा. बिट्टू अब सपने में नज़र भी आता तो हम सबको अपना ख़्याल रखने को कहता तो कभी अपनी बिटिया और मां का ख़्याल रखने, कभी पापा को बैठक में कुछ सलाह देते हुए नज़र आता.
बिट्टू को गए डेढ़ माह हो गया था. बेटे का एड्मिशन दिल्ली हो चुका था, अब मुझे वापिस देहरादून जाना था, ताकि मय-सामान दिल्ली शिफ़्ट किया जा सके. तो मैं अकेले देहरादून आ गई. धीरे-धीरे घर भर को समेटते, पैकिंग करते, राखी का त्यौहार आ गया. बाक़ी भाई-भतीजों के लिए राखी भेजते हुए मैंने बिट्टू के नाम की राखी भी आंसुओं से भिगोकर भेज दी थी. वो अब तक की ज़िंदगी की पहली राखी थी, जब मेरा कोई भाई मेरे पास नहीं था. चौबीस घंटे तक मैंने अन्न नहीं खाया और ईश्वर से ख़ूब झगड़ा किया.
फ़ोन पर मेरी उदास आवाज़ सुनकर बच्चे और पति देहरादून आ गए और हम सामान ट्रक में लोड कर दिल्ली की तरफ़ चल दिए. सामान अगली शाम तक दिल्ली पहुंचना था और भाई की डेथ के बाद मायके जाना नहीं हुआ था तो फिर रास्ते में-सबको मिलते चलें, ऐसा सोचकर हम अचानक मायके पहुंच गए. घर जाकर मालूम हुआ कि मम्मी की तबियत ख़राब है और उनको एड्मिट किया है. मम्मी अक्सर दो-चार दिन को एड्मिट होकर घर लौट आती थीं, सो सबके चेहरे पर निश्चिंतता थी.
रात को अस्पताल का मीटिंग टाइम ख़त्म हो चुका था तो “तुम मम्मी को बिना मिले कैसे जाओगी?” यह कहकर बड़े भाई ने हम सबको रात वहीं रोक लिया.
सुबह दिल्ली आने से पहले जब मम्मी को मिलने हॉस्पिटल गई तो मम्मी को देख अचानक दिल में हौल-सा उठा.
“मम्मी ठीक रहना आप, अभी मेरे बच्चों की शादी करनी है न! नानका छक लेके नहीं आओगी,” मैंने मज़ाक किया.
‘‘हां, ठीक हूं. मैं कहां, वो तो मामा अच्छे लगते हैं नानका छक लेकरआते…’’
उनको उदास देख मैं यहां-वहां की बातें करने लगी. अचानक मम्मी ने एकदम अपने तकिए के नीचे से छोटा-सा पर्स निकाला और 500 रुपए देकर कहा,“रख ले. तेरे पापा को तो याद ही नहीं होगा कि तुझे कुछ देना भी है. बिट्टू के बाद से उनको कुछ याद ही नहीं रहता. बेटियांऔर बहनें घर से ख़ाली हाथ जाएं तो उस घर की दीवारें भी रोती हैं.
मैंने मम्मी के 500 रुपए ज़बर्दस्ती उनके पर्स में वापिस रख दिए यह कह कर कि रख लो न अपने पास. कभी-भी ज़रूरत पड़ सकती है. पापा तो घर पर हैं, यहां किससे मांगोगी?
मम्मी ने मुझे एक ठहरी-सी नज़र से देखा और बोलीं, ”तरसोगी एक दिन तुम मां के
दिए को…“
मेरा दिल रो पड़ा, लेकिन सामने से हिम्मत दिखाते हुए बोली,“क्यूं? आपसे पूरे पांच हज़ार लूंगी न, बस जल्दी ठीक हो जाओ…” तभी भाभी का फ़ोन आ गया कि हमको भी मिलना है, बहन बाहर आ जा.
अच्छा मम्मी चलती हूं, यह कहकर मैंने जब पलट कर देखा तो पाया कि मां मुझे एकटक देख रही थीं. मैं वापिस मुड़ी और मां के सिर पर हाथ रखा और कहा,”अभी हम सबको आपकी बहुत ज़रूरत है. हम सब से ज़्यादा बिट्टू के परिवार को. आपको ठीक होना ही है. मैं जल्दी ही आऊंगी.”
और मैं बाहर निकल आई. बाहर आते तक मेरी आंखों में आंसू भर आए थे. बाहर सब भाई भाभियों की भीड़ थी सब मेरे अति भावुक होने का मज़ाक बनाने लगे थे.
कार में बैठ कर मैंने अपने फ़ेसबुक स्टेटस में एक शेर लिखा:
दिल तो था तेरी पेशानी चूम लूं
मगर डर था यह आख़िरी न हो
दिल्ली जाकर मैं घर में सेट करने व्यस्त हो गई. अगली सुबह अभी पूरा घर सिमटा भी नहीं था कि उषा दीदी का फ़ोन आया कि मुज़फ्फरनगर में तो डाक्टर्स ने मम्मी को दिल्ली ले जाने का कह दिया है. अब उनको मेदांता में शिफ़्ट कर रहे हैं. मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई. मम्मी तो हिम्मत की मिसाल हैं और इतनी बीमार तो नहीं लग रही थीं कि कोई हॉस्पिटल हाथ खड़े कर दे.
मम्मी को लेकर आने वाली एम्बुलेंस के साथ साथ मैं भांजे नीरज के घर गुडगांव पहुंच गई थी. मम्मी को 17 अगस्त को मेदांता आइसीयू में शिफ़्ट किया गया था. बड़ा भाई और दीदी हर वक़्त वहां गुड़गांव मौजूद रहते, बाकी भैया और भतीजे भी वहां रहते. मैं हर शुक्रवार शाम को वहां पहुंच जाती और रविवार शाम तक अपनी विनोद दीदी के घर रहती. इस बीच मम्मी ज़्यादातर दवाओं क नशे में रहतीं या कभी टूटे फूटे शब्दों में बातचीत करतीं. कई बार समझ ही नहीं आता था कि कहना क्या चाहती हैं. मेदांता में उनको दाख़िल कराए तीन सप्ताह का समय हो गया था, लेकिन स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा था. धीरे-धीरे सब ऑर्गन्स काम करना बंद कर रहे थे. मम्मी को अब वेन्टिलेटर पर रखा हुआ था. एक दिन डॉक्टर ने कहा कि इनको घर ले जाओ. अब कुछ नहीं बचा है. हम सब निराश हो गए, लेकिन मम्मी की धड़कन अभी बाक़ी थी. यदाकदा आंखों से इशारा कर कुछ कहतीं और आंखें मूंदकर आंसू ढुलका देती थीं.
आठ सितम्बर को हम सब अपनी अपनी कार में वेन्टिलेटर पर सांसें लेती मम्मी की एम्बुलेंस के साथ साथ मायके की तरफ़ चल दिए कि अब मम्मी के प्रस्थान का समय है, लेकिन दिल्ली पार करते ही जैसे मम्मी में चेतना लौट आई थी. मम्मी की आंखें एक हैरान बच्चे की भांति पूरी तरह खुली थी. उनके हाथों में पूरी हरकत थी. घर के दरवाज़े पर जब एम्बुलेंस पहुंची तो पापा को देखकर उनकी आंखें भर आईं. सब बच्चों के पूछने पर कि बड़ी मम्मी पहचाना कौन हूं, उनकी पलकें झपक कर जवाब देतीं. मम्मी आंखों से मुस्कुरा रही थीं. ऐसे में अब कैसे वेंटीलेटर हटाकर उनको जाने दिया जाए तो वापिस उनको फ़ोर्टिज़ (गुड़गांव) हॉस्पिटल में एड्मिट किया गया.
शुरू-शुरू में जगह बदलने पर मम्मी में सुधार दिखाई दिया, लेकिन धीरे-धीर मम्मी ने रेस्पॉन्ड करना बंद कर दिया. अब उनको डायलेसिस पर भी रखा जाने लगा. बीस सितम्बर को सब डॉक्टर्स ने मीटिंग की और बताया कि मम्मी के गले में छेदकर एक पाइप डालना होगा. पापा उस दिन हॉस्पिटल में थे. उन्होंने कहा,”नहीं अब नहीं. बस अब उसको जाने दो, आख़िर कितने दर्द झेलेगी? वो अब अपने बेटे के पास जाना चाहती है.”
सिर्फ़ मशीनों के सहारे शरीर कब तक ज़िंदा रखा जा सकता था? वैसे भी उस शरीर की आत्मा ने तो जाना तय कर लिया था. बाईस सितम्बर की सुबह सब रिश्तेदारों को यह ख़बर कर दी गई थी कि मम्मी को घर ले जाना है. देर रात हम हॉस्पिटल के बिल का हिसाब-किताब करते रहे.
बाइस सितम्बर को ही ससुर जी का श्राद्ध था. हर बार पूरे विधान के साथ यह कार्य संपन्न किया जाता था तो इस बार भी मैंने आंखों में आंसू भरकर पूरी, खीर, छोले सबकुछ बनाया. चाहती तो कुछ ना भी बनाती सिर्फ़ फल देकर भी सब सकती थी, लेकिन उस दिन मन से बहुत कमज़ोर होकर सब कुछ करती रही. मेरे पति और बच्चे मेरी भावुकता को जानते थे तो उन्होंने मुझे मैं जो कर रही थी, वह सब करने दिया.
अभी खाने की थाली भरकर मंदिर में भेजी ही थी कि उषा दीदी का का कॉल आया, पूछा,‘‘कितने बजे तक आओगे?’’
मैंने कहा,‘‘बस आधे घंटे में चलने लगी हूं. मम्मी होगी न मेरे आने तक?’’
दीदी ने रोते हुए जवाब दिया,‘‘मम्मी पांच मिनट पहले ही चली गई हैं.’’
और मैं धम्म से वहीं बैठ गई. किसने रसोई समेटी, किसने बैग कार में रखे, मुझे नहीं पता. कार चलती रही और हम तीन बजे मुज़फ्फरनगर पहुंचे. मेरे पहुंचते ही शोर मच गया,‘‘नीली आ गई, नीली आ गई.’’ किसी ने बताया,‘‘ चार बजे संस्कार का समय दिया गया है.’’
हमारे पड़ोसी, राणा अंकल ने मेरे सर पर हाथ रखा,“बेटा, बहादुर बनना…’’
मैं यंत्रवत-सी क़दमों को घसीटते हुए घर के भीतर गई. सामने सफ़ेद दुपट्टा पहने महिलाओं की भीड़ थी. सफ़ेद चादर में लिपटी हुयी देह थी. सब बहनें, भाभियां थीं. बाहर बैठक में मेरे पापा भाइयों और रिश्तेदारों के साथ बैचैन से बैठे थे. मैं भीड़ को चीरती हुई मां के समीप पहुंची, जो अभी भी मां ही थीं मेरे लिए, एक बॉडी नहीं. चेहरे पर से चादर उतारते हुए मेरी आंखों से आंसू की अविरल धारा बहने लगी और मैंने मान के सीने से लिपट कर रोने लगी. मेरी भाभियां, मुझे मां से अलग कर गले से लगाकर सांत्वना देने की कोशिश कर रही थीं.
और मेरा छह बरस पहले देखा सपना मुझे सामने दिख रहा था…
आंसू बहाते हुए मन ही मन में ज़ोर-से चीख पड़ी- आख़िर यह सुबह के सपने सच क्यों होते हैं?
डायरी के ये अंश शिवना प्रकाशन की किताब ‘वो क्या था? (कुछ रहस्यमय संस्मरण)’, जिसकी एडिटर गीताश्री हैं, में दर्ज हैं.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट