एक पोता अपनी दादी की जीवनयात्रा और दादी के साथ अपने संबंधों को बेहद सहज, आत्मीय और अनूठे तरीक़े से बताता है. यह महज़ एक पोते-दादी की कहानी नहीं, बल्कि दो अलग-अलग पीढ़ियों के संबंधों की कहानी है.
मेरी दादी-मां, और सब दादियों की तरह, बूढ़ी थीं. मैं बीस साल से उनकी ऐसी ही झुर्रियोंदार बूढ़ी काया देख रहा था. लोग कहते थे कि वह कभी युवती और सुन्दर थीं और उनका पति भी था, पर इस पर विश्वास करना कठिन था. मेरे दादा का चित्र बाहर के बड़े कमरे में दीवार पर लगा था. वे ढीले-से कपड़े पहने थे और सिर पर बड़ी पगड़ी थी. लम्बी सफ़ेद दाढ़ी सीने पर नीचे तक फैली थी और वे कम-से-कम सौ वर्ष के लगते थे. वे ऐसे नहीं लगते थे जिनके एक पत्नी और कई बच्चे भी थे. ऐसे लगते थे, जिनके ढेर सारे एक औरत पोते-पोतियां ही हो सकते थे और दादी के बारे में तो यह विचार, कि वह कभी सुन्दर और जवान भी रही होंगी, एकदम ग़लत लगता था.
वह अक्सर हमें बताती थीं कि बचपन में वह क्या खेला करती थीं. उनके ये विचार हमें बहुत बेहूदा और भौंडे लगते थे और हम ये बातें उनकी सुनाई देवी-देवताओं और मसीहों की कहानियों की तरह सुनकर भूल जाते थे. उनका क़द हमेशा छोटा, शरीर मोटा और कमर झुकी-झुकी रहती थी. उनके चेहरे पर एक-दूसरे को काटती बहुत सी झुर्रियां थीं जो हर जगह से निकलकर हर किसी जगह तक दौड़ती नज़र आती थीं. हमारा मानना था कि वह हमेशा ऐसी ही थीं. वह बूढ़ी थीं, बहुत ज़्यादा बूढ़ी, इतनी ज़्यादा कि और बूढ़ी हो ही नहीं सकती थीं और पिछले बीस साल से ऐसी ही बनी रही थीं. वह सुन्दर तो हो ही नहीं सकती थीं, अच्छी ज़रूर लगती रही होंगी. वह झक सफ़ेद कपड़े पहने घर भर में उचक-उचककर घूमती रहती थीं, एक हाथ कमर पर रखे कि संतुलन बना रहे और दूसरे में सुमिरनी जिसे वह हमेशा जपती रहती थीं. उनके चांदी की तरह चमकते बाल पीले, टेढ़े-मेढ़े चेहरे पर बेतरतीब फैले होते, और होंठों से भजन बुदबुदाती रहती थीं. हां, वह बहुत अच्छी लगती थीं. वह पहाड़ों पर सर्दी के दृश्य की तरह थीं, चारों तरफ़ सफ़ेद बर्फ़ से ढंकी, जो शान्ति और संतोष की भावना जगाती है. दादी मां और मैं बहुत अच्छे मित्र थे.
मेरे माता-पिता जब शहर रहने गए तो मुझे उनके पास छोड़ गए थे और हम हमेशा साथ रहते थे. वह सवेरे मुझे जगातीं और स्कूल के लिए तैयार करती. मुझे नहलाते-धुलाते और कपड़े पहनाते समय वह मीठी आवाज़ में प्रार्थना इस तरह गुनगुनाती रहतीं, जिससे वह मुझे भी याद हो जाएं. मुझे उनकी आवाज़ अच्छी लगती थी इसलिए मैं सुनता तो रहता, लेकिन मैंने याद करने की ज़हमत नहीं मोल ली. फिर वह मेरी लकड़ी की पड़ी लातीं, जिसे उसने पहले ही साफ़ करके और खड़िया से पोत कर रखा होता था, और सरकंडे की कलम और मिट्टी का बुद्का, सब एक थैले में रखकर मुझे पकड़ा देतीं. इसके बाद हम शाम की रखी बासी रोटी पर ज़रा-सा घी और शक्कर चुपड़-कर नाश्ता करते और स्कूल के लिए चल पड़ते. वह कुछ और बासी रोटियां साथ रखतीं, जिन्हें वह रास्ते के कुत्तों को खिलाती चलती थीं.
दादी मां मेरे साथ हमेशा स्कूल इसलिए जाती थीं, क्योंकि वह गुरुद्वारे का ही हिस्सा था. ग्रन्थी हमें वर्णमाला और सवेरे की प्रार्थना सिखाता था. हम बच्चे वरांडे में दोनों तरफ़ कतार बनाकर बैठ जाते और गाने के स्वर में वर्णमाला या प्रार्थना दोहराते रहते और दादी मां भीतर जाकर ग्रन्थ साहब का पाठ करतीं, जब दोनों का काम पूरा हो जाता, हम एक साथ वापस घर लौटते इस दफ़ा गांव के कुत्ते गुरुद्वारे के दरवाज़े पर हमें मिलते. वे हमारे पीछे चलते, दादी मां द्वारा फेंकी जाने-वाली रोटियों के लिए लड़ते-झगड़ते घर तक आते.
जब हमारे माता-पिता शहर में आराम से रहने लगे, तब उन्होंने हमें भी बुला भेजा. अब हमारी घनिष्ठता खत्म हो गई; दादी मां का मेरे साथ स्कूल आना बन्द हो गया. मैं बस से अंग्रेज़ी स्कूल जाने लगा. यहां सड़कों पर कुत्ते नहीं होते थे, इसलिए दादी मां ने घर के आंगन में पक्षियों को चुग्गा डालना शुरू कर दिया. समय बीतने के साथ हमारा मिलना-जुलना भी कम होने लगा. कुछ दिन तक तो वह मुझे सवेरे जगाकर स्कूल जाने के लिए तैयार करती रहीं. जब मैं घर लौटता तो वह पूछतीं कि आज गुरुजी ने क्या सिखाया है? मैं उन्हें अंग्रेज़ी के शब्द बताता और पश्चिमी विज्ञान तथा शिक्षा की बातें, जैसे आकर्षण का सिद्धान्त, आर्किमिडीज़ का नियम, दुनिया गोल है, वगैरह, समझाकर बताता. लेकिन यह उन्हें अच्छा नहीं लगता था. इसमें वह मेरी बिलकुल मदद नहीं कर सकती थीं. अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ाई जानेवाली ये बातें उन्हें बेकार लगती थीं और उन्हें दुःख होता कि यहां भगवान और धर्म के बारे में कुछ क्यों नहीं बताया जाता. एक दिन मैंने बताया कि अब हमें संगीत भी सिखाया जाने लगा हैं. इससे उन्हें बड़ी परेशानी हुई. उनकी दृष्टि में संगीत का मतलब भोग-विलास था. वह वेश्याओं और भिखारियों के लिए ही था और सभ्य लोग इससे दूर रहते थे. इसके बाद उन्होंने मुझसे बात करना बहुत कम कर दिया.
जब मैंने यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया, मुझे एक अलग कमरा दे दिया गया. अब हमारा सम्बन्ध एकदम समाप्त हो गया. दादी मां ने चुपचाप यह अलगाव स्वीकार कर लिया. अब वह हर वक्त चरखा चलाती रहतीं और किसी से बात नहीं करती थीं. सवेरे से शाम तक वह सूत काततीं और भजन गाती रहती थीं. सिर्फ़ शाम के वक्त वह थोड़ी देर के लिए उठतीं और चिड़ियों को खाना खिलातीं. वरांडे में आराम से बैठी वह रोटियों के छोटे-छोटे टुकड़े करतीं, उन्हें चिड़ियों को डालती रहतीं और चिड़ियों का झुंड उनके इधर-उधर-चूं-चूं करता खाता और उड़ता रहता. कई चिड़ियां उनके कंधों पर, हाथ और पैरों पर और सिर पर भी बैठकर खातीं और चोंचे मारतीं, लेकिन वह उन्हें उड़ाती नहीं थीं बल्कि मुस्कुराकर रह जाती थीं. उनके लिए दिन का सबसे सुखी समय यही आधा घंटा होता था.
जब मैं उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाने लगा, तब मैंने सोचा कि दादी मां इससे बहुत दुखी होंगी. मुझे पांच साल बाहर रहना था और इस बीच पता नहीं क्या हो जाए. लेकिन दादी मां ज्यों की त्यों रहीं. उन्होंने कोई दुःख नहीं प्रकट किया. वे स्टेशन मुझे छोड़ने आईं और धीरे-धीरे प्रार्थना करती रहीं. उनके हाथ में माला थी, जिसे वह चुपचाप जपती रहीं. उन्होंने मेरा माथा चूमा और जब मैं चलने लगा तो मुझे लगा कि उनका यह चुंबन मेरे लिए कितना क़ीमती है.
लेकिन मैं जो सोचता था, वह नहीं हुआ. पांच साल बाद जब मैं वापस लौटा, तो वह मुझे लेने स्टेशन आईं. वे उतनी ही बूढ़ी लग रही थीं, जितनी मेरे जाने के दिन थीं, उससे एक दिन भी ज़्यादा नहीं. उन्होंने कुछ कहा नहीं और मुझे अपनी बांहों में भर लिया-उनकी प्रार्थना मेरे कानों में पड़ रही थी. लौटने के बाद पहले दिन भी मैंने देखा कि वह उसी तरह चिड़ियों को खाना खिलातीं उनसे हल्की-फुल्की बातें करती वैसी ही ख़ुश हैं. शाम को उनमें एक परिवर्तन दिखाई दिया. आज उन्होंने प्रार्थना नहीं की. अपने पड़ोस की औरतों को इकट्ठा किया, एक ढोलक ली और उसे बजा-बजाकर ज़ोर-ज़ोर से गाना शुरू किया. कई घंटे वह इस पुरानी ढोलक पर गाती-बजाती योद्धाओं की घर-वापसी के गीत गाती रहीं. हमें उन्हें समझाकर रोकना पड़ा कि इससे उनका तनाव बढ़ेगा. मैंने पहली बार देखा कि उन्होंने हमेशा की तरह प्रार्थना नहीं की.
दूसरे दिन सवेरे उन्हें बुखार चढ़ आया डॉक्टर बुलाया गया तो उसने देखकर कहा कि कोई ख़ास बात नहीं है, बुखार उतर जाएगा. लेकिन दादी मां ने कुछ और ही कहा. कहने लगीं कि अब उनका अन्त निकट है. उन्होंने कहा कि कई घंटे से प्रार्थना नहीं की है इसलिए अब वह किसी से बात नहीं करेंगी, बल्कि सारा समय प्रार्थना में ही बिताएंगी. हमने इसका विरोध किया. लेकिन हमारी बातों को नज़रंदाज़ करके वह शान्तिपूर्वक खाट पर लेटी चुपचाप सुमिरन फेरती प्रार्थना करती रहीं. हमारी उम्मीद से पहले ही उनके होंठ अचानक बन्द हो गए, सुमिरनी हाथ से गिर पड़ी और आंखें बन्द हो गईं. उनका चेहरा हल्का पीला पड़ गया और हम समझ गए कि वह नहीं रही हैं. हमने उन्हें बिस्तर से उठाया और जैसी प्रथा है, धरती पर रख दिया और उनके शरीर पर एक कपड़ा डाल दिया. कुछ घंटे शोक मनाने के बाद हम उनके दाह-संस्कार की तैयारी करने लगे.
शाम हुई तो हम लकड़ी की एक टिकटी लेकर उनके कमरे में गए. सूरज डूब रहा था और उसकी सुनहरी रोशनी वरांडे तक फैली हुई थी.
हमने देखा कि पूरे वरांडे और कमरे में जहां उनका शव रखा था, हज़ारों चिड़ियां चारों तरफ़ बैठी हैं. वे सब एकदम चुप थीं. मेरी मां उनके लिए रोटियां लेकर आईं और जिस तरह दादी मां उनके टुकड़े-टुकड़े करके उनके सामने डालती थीं, उसी तरह वह भी करने लगीं. लेकिन चिड़ियों ने उन पर ध्यान नहीं दिया. जब हम दादी मां की अरथी उठाकर बाहर लाए, तब वे चुपचाप उड़ गईं.
दूसरे दिन सवेरे भंगी ने रोटी के वे टुकड़े इकट्ठा किए और कूड़ेदान में डाल दिए.
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