कई बार ज़िंदगी हमारे साथ बहुत अन्याय कर जाती है और हम कुछ भी कर नहीं पाते. कई इच्छाएं जिनके पूरे होने की तमन्ना हम ज़िंदगी भर करते हैं, जब पूरी होती हैं तो हम इस क़ाबिल नहीं होते कि उसकी ख़ुशी मना सकें. ऐसी ही विडंबनाओं से भरी है यह कहानी.
जब पूरे विश्व में कोरोना फैला हुआ था, तब भी कमला ने घुटने नहीं टेके और ज़िंदगी की दौड़ अपनी तरह से जीत ही ली. बच्चों का भविष्य बनाने के लिए मुंह में डबल मास्क लगाए वो एक प्राइवेट अस्पताल में आया बनी कोरोना मरीज़ों की तीमारदारी करती थी, जो काम कोई भी नहीं करना चाहता था. ख़ुद को सबसे दूर रख घर के बरामदे में सोती थी, ताकि उससे बीमारी किसी को न फैले. कमला भी कमाल की महिला है, कभी किसी परेशानी के आगे घुटने नहीं टेके. पिता की लाड़ली, मां की दुलारी और भाईयों के आंख का बाल थी वो. बचपन तक तो सब अच्छा चल रहा था, पढ़ाई भी ठीकठाक थी. पिता बिजली विभाग में क्लर्क थे और सपने भी बिटिया को एक सरकारी कर्मचारी से ब्याहने के थे. मां भी यही चाहती थी कि किसी तरह मैट्रिक पास कर ले, रामायण गीता पाठ कर ले, ठीक उन्हीं की तरह पति और बच्चों को दो रोटी बनाकर दे दे बस.
कमला पढ़ने में थोड़ी कमज़ोर ज़रूर थी, लेकिन सपने बड़े-बड़े ही देखती थी. उसकी छोटे-छोटे घरों वाली बिजली विभाग की कालोनी के सामने एक बड़ी आलीशान कोठी थी. उसके सामने अंग्रेज़ी में लिखा हुआ था मिर्ज़ास. जब बहुत छोटी थी तब से ही उस कोठी के बाहर खड़ी हो अंदर जाने के सपने देखती थी. कमला की अम्मा बड़ी सुघड़ थी, इससे कमला की फ़्रॉक स्वेटर सब अम्मा के ही बनाए हुए होते थे. नैननक़्श भी तराशे हुए थे इससे लगता था मानो कमला किसी बड़े आदमी की बेटी है. एक दिन उसी कोठी के सामने खड़ी निहार रही थी कि एक प्यारी सी बिलकुल परी की तरह उसी की उम्र की लड़की बाहर आई और कमला को देख उसकी आंखें सौ वॉट के बल्ब की तरह चमकने लगी. वो दौड़कर कमला के पास आई और पूछा, “मुझसे दोस्ती करोगी!”
अंधा क्या चाहे… कमला ने तुरंत गर्दन हिला हामी भर दी.
कमला को कोठी के अंदर सम्मान के साथ प्रवेश मिल गया. अंदर तो ‘एलिस इन वंडरलैंड ‘ से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत नज़ारा था. कोठी के दरवाज़े से अंदर घुसते ही बड़ा सा बगीचा. बगीचे में झूले, सी-सॉ, फव्वारे और अनगिनत रंग-बिरंगे फूल. सारा कुछ कमला के सपनों से कहीं ज़्यादा, उस पर गुलाबी परी सी दोस्त. उस परी ने अपना नाम बताया ‘अर्शी ‘,जो तो आज तक कमला ने सुना ही ना था. सोचा शायद परियों के नाम ऐसे ही होते हैं. नई दोस्त ने कमला से जब उसका नाम पूछा तो झट कल्पनाओं की उड़ान उड़ा अपने नाम के बीच से ‘म’ हटा और आख़िरी अक्षर को ‘ला’ से ‘ली’ कर उसने ख़ुद का नामकरण किया ‘कली‘. उसके बाद तो रोज़ कमला स्कूल से आने के बाद अपनी अर्शी के पास आती और दोनों बहुत सारी बातें करते, बगीचे में खेलते, तितलियों और भौरों के पीछे दौड़ते. अर्शी और कली फूलों को तोड़ पीस पानी मिला अपनी नज़र में इत्र बनाते.
कमला की ज़िंदगी में मानो बहार आ गई थी. धीरे से कमला को अर्शी के घर के अंदर प्रवेश भी मिल गया. उसके बाद अर्शी और कली की एक नई कहानी शुरू हो गई. मिर्ज़ा परिवार बड़ा भला था और उनकी मुसलमानों के बीच काफ़ी साख थी. यही नहीं, मोहल्ले के हिंदुओं के भी वो रहनुमा थे, इससे कमला के घर से भी कोई मनाही नहीं थी. कमला को मिर्ज़ा परिवार में न केवल प्यार मिल रहा था, बल्कि उसकी दूसरी ज़रूरतें भी वहां पूरी हो जाती. कमला के घर वाले भी बड़े निश्चिंत कि बेटी मिर्ज़ा साहेब के यहां पल रही है. काश… सारी ज़िंदगी इतनी आसान होती. कमला स्कूल से कई बार सीधे अपनी दोस्त अर्शी के यहां ही चली जाती. यहां तक की कई बार मिर्ज़ा साहेब का ड्राइवर ही कमला को स्कूल छोड़ देता. अर्शी अगर कमला से ना मिले तो पागल हो जाती.
ये उन दिनों की बात है जब लोग अपने मज़हब और अपनी इबादत अपने अपने दिल और घर में रखते थे. इससे अर्शी को अरबी और उर्दू की तालीम देने वाले मौलाना के सामने बैठ कमला भी अपनी सहेली के साथ इस्लाम की तालीम लेने लगी. उन दिनों कोई भी बच्चों की बातों में उलझता नहीं था. सब की ये सोच थी कि कोई मज़हब ग़लत नहीं होता. आज कमला सोचती है कि काश… आज भी ऐसा ही होता. इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक है ज़कात ऐसा मौलवी साहेब ने सिखाया था. रमज़ान के महीने में मिर्ज़ा परिवार ग़रीबों को दान दिया करता था. वो ये सारी बातें घर आ अपने अम्मा-पापा और भाइयों को बताती तो किसी को भी ये अजीब नहीं लगता, बल्कि घर में सब ख़ुश होते कि कमला कुछ अच्छा ही सीख रही है. बहुत सारी ग़रीब औरतें बुर्क़ा पहन आती थीं और मिसेज़ मिर्ज़ा उन्हें कपड़े-पैसे दिया करती थीं. हर ईद-बक़रीद में कमला के भी नए कपड़े बनते थे.
बचपन तो बना ही होता है सपनों के साथ जीने के लिए. पंछी और बच्चे एक से होते हैं वहां ना कोई राम होता और दूसरा रहीम. अब बल्कि हम इंसानों ने नारियल को हिंदू और खजूर को मुसलमान बना दिया है, लेकिन तब तो अर्शी अपनी कली से कभी राम अल्लाह तो कभी गणेश अल्लाह की कहानियां सुनती वहीं कमला रोज़ ही मौलाना साहेब से इस्लाम की पढ़ाई करती. घर आकर सबको समझाती कि हमें किस तरह लोगों की मदद करना चाहिए और रोज़ अल्लाह ताला का शुक्र अदा करना चाहिए. एक छोटी बच्ची के मुंह से ये सारी बातें बड़ों को बड़ी सुहाती थी. कोई भी इसे संप्रदायिकता का रंग नहीं देता था.
कमला बड़ी होने लगी और मौलाना के साथ उनका बेटा कमालुद्दीन भी आने लगा. उसके आने पर मिर्ज़ा साहेब ने भी कोई आपत्ति नहीं की, क्योंकि वो तो राजा थे और मौलाना मुलाजिम. कमाल अर्शी से बात करने में डरता था पर कमला से उसकी अच्छी दोस्ती हो गई थी. कमला बड़ी होती गई और कमाल उर्फ़ कमालुद्दीन से उसकी नज़दीकियां बढ़ती गईं और मिर्ज़ास के बदले वो शेख़ साहेब यानी मौलाना के घर ज़्यादा जाने लगी और मौलाना की बेटी समीन से उसकी दोस्ती हो गई. उसकी बचपन की परी अर्शी को दूसरी उसके ही स्तर की बड़े घर की, उसी की तरह इंग्लिश में गिटपीट करने वाली सहेलियां मिल गईं. अब कमला चिड़िया नहीं थी, उसे उसके दायरे का एहसास हो गया था. उसने भी अपनी उड़ान की सीमा निर्धारित कर ली थी. अब वो मिर्ज़ास के बंगले को बड़े हसरत से देखती थी, जहां उसका सारा बचपन बीता था, लेकिन कमाल और कमला अब घर के बाहर भी छुप-छुपकर मिलने लगे थे, जिसकी भनक किसी को भी न थी.
कमला ने पढ़ाई से ज़्यादा समय और दिमाग़ मौलाना से उर्दू, अरबी और इस्लाम सीखने में लगाया था, जिससे वो मौलाना साहेब की चहेती भी थी. जब चाहे वो मौलाना साहेब के घर चली जाती और वहां उसका बड़ा स्वागत भी होता था. सब कुछ बड़ा अच्छा चल रहा था, लेकिन तभी ऐसा कुछ घटा जिसने कमला की पूरी क़िस्मत ही पलट दी. कमला के बारहवीं के इम्तिहान होने वाले थे. पढ़ाई करते-करते वो बाहर की हवा खाने के बहाने बाहर निकली थी. ये उन दिनों की बात है जब हवा ही प्यार करने वालों का पैग़ाम एक दूसरे तक पहुंचाती थी. कमाल भी बहुत दिनों से अपनी कमला से नहीं मिला था, वो भी अपने घर के बाहर आया तो कमला थोड़ी दूर खड़ी मिली. दोनों एक-दूसरे को इतने दिनों बाद देख बरबस गले लग गए. दोनों को क्या पता था कि कमला को घर से अकेला निकलता देख उसके पिता नारायण जी भी उसके पीछे-पीछे चल रहे थे.
उनकी एक सख़्त पुकार, “कमला घर चलो!“ ने दोनों गले लगे प्रेमियों को हक्का-बक्का कर दिया. कमला बिना कुछ कहे चुपचाप अपने पिता के साथ घर आ गई. घर पर सब अनकहा सा ही रहा. पता नहीं अम्मा और पापा के बीच क्या बात हुई. अम्मा अपनी कमला को सुबह-सुबह ही अपने साथ ले कमला के मामा के यानी अपने भाई के घर चली आई. न मां ने रास्ते में कुछ पूछा और ना ही कमला ने कोई शिकायत की. घर पर नारायण जी अपने बेटों के सवालों का जवाब देने के लिए तरह-तरह के बहाने ढूंढ़ते रहे कि उनकी दीदी और मां कहां चले गए. उन दिनों भाई सचमुच राखी का फ़र्ज़ निभाते थे. मामा ने बहन और भांजी के असमय आने का कारण भी नहीं पूछा. सोचा ज़रूर बहन की कोई बड़ी परेशानी है, तभी इम्तिहान के मौसम में आई है. भाभी तो भाभी होती है तब भी और अब भी, वो ज़रूर भिनभिनाती रही. उसके बच्चों के भी सालाना इम्तिहान जो थे. भाई-बहन के बीच चुपचाप कुछ बातें हुईं और वो भी बहन के साथ अपनी एकलौती भांजी के लिए लड़का ढूंढ़ने में लग गए . कमला तो समझ ही नहीं पा रही थी कि उसके सपनों को किसकी नज़र कैसे लगी. उसने अपने भगवान से और कमाल के अल्ला दोनों से गुहार की कि काश… उसके सपने मुक्कमल हो जाएं, लेकिन क़िस्मत तो कुछ और लिखकर लाई थी उसके लिए.
अम्मा और मामा रोज़ पापा के ऑफ़िस में फ़ोन करके अपनी कोशिश की ख़बर करते रहते थे. कमला ने भी तक़दीर के आगे घुटने टेक दिए थे और कोई चारा भी नहीं था. उन दिनों ना फ़ोन था और ना ही आज की तरह मोबाइल फ़ोन कि किसी तरह वो अपने आशिक़ को अपना पता भी बता पाती. एक दिन मामा की खोज रंग लाई. अपनी इकलौति भांजी के लिए आनन-फ़ानन में एक लड़का उन्हें मिल गया. कहां अभिज्ञान शकुन्तलम की शकुंतला की तरह कमला और उसकी दुगनी उमर के गोपाल. गोपाल अधेड़ उम्र के थे, जिनकी एक किराने की दुकान थी. गोपाल के लिए कमला तो ‘अंधा क्या चाहे, दो आंखें ‘ की तरह थी, सो न बोलने का कोई प्रश्न ही नहीं था. न गोपाल ने पूछा कि इतनी सुंदर प्यारी लड़की की इतनी बेमेल शादी क्यों कराई जा रही है और न ही मामा ने बताया.
मामा-मामी ने ही कन्या दान किया. वहां घर पर पापा को कमला का सामान खंगालने पर कमाल के कमला को उर्दू में लिखे पत्र, एक क़ुरान शरीफ़ और कुछ उर्दू की किताबें मिलीं. एक कट्टर हिंदू बाप ने एक ही झटके में बेटी को अपनी दुनिया से निकाल फेंका. कमला के विवाह तक में आने की ज़रूरत नहीं समझी. बेचारी कमला के तो आंसू भी सूख गए थे. बिना किसी शिकायत के चुपचाप गोपाल के साथ उसकी पत्नी बन कर चली गई.
गोपाल की किराना दुकान ठीक ही चलती थी. कमला भी मशीन की तरह दिनभर घर के कामों में लगी रहती थी. गोपाल के सिर पर छोटे भाई-बहनों की ज़िम्मेदारियां थी इससे अब तक कुंवारे ही थे. कमला की फ़ोटो देख अपने आप को रोक नहीं पाए और ये सोचने की ज़हमत भी नहीं उठाई कि इतनी कमसिन कन्या का रिश्ता उनके लिए कैसे आया. गोपाल बड़े भले आदमी थे और उन्होंने कमला को भी बड़े जतन से एक महंगे आभूषण की तरह ही रखा. कमला ने पास के स्कूल में दाख़िला ले लिया और बारहवीं पास कर ली. आगे पढ़ना चाहती तो थी लेकिन गर्भ में छोटे गोपाल ने सेंध मार दी. उसके बाद तो वो घर बच्चों में ऐसी उलझी की पुराना लगभग सब भूल ही गई. कमला और बेटे राघव की उम्र में बस उन्नीस साल का ही फ़ासला था. राघव से दो साल छोटी रिया थी. गोपाल कमला को बड़ी इज़्ज़त और प्यार से रखते थे.
काश… बर्बादी ने जहां पहुंचाया था ज़िंदगी वहीं रुक जाती, लेकिन ऊपर वाले के तो खेल ही निराले हैं. जिनका इम्तिहान लेता है उनकी ही बार-बार आज़माइश होती है. राघव छह साल का और रिया चार साल की थी तभी गोपाल को ब्लड कैन्सर हुआ. बेचारी कमला… पैसा तो पैसा उसने उपवास और कमाल के सिखाए रमज़ान के पूरे रोज़े रखे और रविवार को चर्च भी गई पर गोपाल को बचा नहीं पाई. इलाज में दुकान और घर सब हाथ से निकल गए सिवाय थोड़े से गहनो के कुछ नहीं बचा. कमला के साथ सिर्फ़ राघव, रिया और पूरी जिंदगी थी.
हार मानना तो सीखा नहीं था इससे बिना कुछ सोचे, बिना मामा को बताए दोनों बच्चों को ले लखनऊ आ गई. बचपन में एक सहेली थी अमीना जो लखनऊ में रहती थी. जहां कमला के पापा क्लर्क थे, वहीं अमीना के अब्बा चपरासी थे. वो लोग भी उसी बिजली कॉलोनी में रहते थे. अमीना की शादी लखनऊ के सरकारी स्कूल के चपरासी से हुई थी. अमीना, समीना यानी मौलाना साहेब की बेटी की दोस्त थी, इससे कमला से भी उसकी दोस्ती हो गई थी. एक वही पुरानी मायके वाली पहचान थी, जो कमला के सम्पर्क में थी. एक बार वो कमला के शहर अपने किसी रिश्तेदार के बेटे की शादी में आई थी और अचानक उसकी मुलाक़ात गोपाल की दुकान में अपनी बचपन की दोस्त कमला से हो गई. उसके बाद से दोनों दोस्त पत्र के माध्यम से सम्पर्क में थे.अमीना के पति के स्कूल का फ़ोन नंबर भी उसने कमला को दिया था.
‘दोस्त इन नीड इज़ दोस्त इन डीड‘,जैसे ही कमला ने एक पीसीओ से अपनी दोस्त के पति के स्कूल के नम्बर पर फ़ोन लगाया, क़िस्मत से उठाया भी जावेद यानी उसकी सहेली के पति ने. तुरंत जावेद ने कमला को सब कुछ समेट लखनऊ आने की सलाह दी. कमला ने राहत की सांस ली और बेटे राघव और रिया को साथ ले लखनऊ चली आई और एक नई ज़िंदगी की शुरुआत हुई. कमला ने हालात के आगे कभी घुटने नहीं टेके, चाहे हवा कितनी भी उल्टी हो उसने ज़िंदगी से एक सबक़ लिया था कि उसकी क़िस्मत में सिर्फ़ लड़ना लिखा है और अब तो मक़सद भी था राघव और रिया का भविष्य.
अमीना के दिल और उसके बग़ल की खोली को उसने अपना घर बना लिया. अमीना के बच्चे रहमत और रेहाना भी लगभग राघव और रिया के हमउम्र ही थे. जावेद की मदद से उसी स्कूल में कमला को आया की नौकरी मिल गई. उसका काम सारे बच्चों को रिसेस में पानी पिलाना और सभी शिक्षक और शिक्षिकाओं को चाय पिलाना और उनके छोटे-मोटे काम करना था. दोनों बच्चों को भी अच्छे स्कूल में दाख़िला करवा दिया था. पहले साल की फ़ीस तो अपने गहने बेच कर दे दी. घर का ख़र्च किसी तरह तनख़्वाह और शाम को एक कोठी में काम कर निकल जाता, लेकिन उसे स्कूल की फ़ीस और दूसरी ज़रूरतों की चिंता थी.
यहां भी ऊपर वाले ने द्वार खोल दिए. ईद के दिन उसने अमीना को बच्चों के साथ बाहर जाते देखा, पूछने पर मालूम हुआ कि बच्चों को ले वो अमीर मुसलमानों के घर ज़कात लेने जाती है. कमला को मिर्ज़ास, अर्शी, कमाल और मौलाना याद आए और साथ ही याद आया उनका सिखाया इस्लाम. जब अमीना ने कमला के बच्चों को भी साथ ले जाने की बात की तो कमला से सहर्ष हां कर दी. चारों बच्चे बड़े ख़ुश थे. वहां से वापस आने के बाद बहुत सारे उपहारों और पैसों के साथ. उन्होंने अपनी मां कमला को बताया कि उन्हें कितनी अच्छी-अच्छी चीज़ें खाने मिलीं और तो और उन्होंने अगली ईद में कमला के चलने की भी बात की. ग़रीबी इंसान से क्या-क्या नहीं कराती. कमला को इस्लाम की मालूमात अमीना से ज़्यादा थी. मौलाना साहेब की चहेती शिष्या जो थी. उसने अमीना की सलाह मान हर ईद बक़रीद में न केवल एक बुरख़ा पहन अमीना के साथ बड़े-बड़े पैसे वाले मुसलमानों के यहां ज़कात लेने जाना शुरू किया, बल्कि सुबह-सुबह दोनों बच्चों के लिए ईद और बक़रीद के दिन ईदगाह के सामने बैठ ग़ुब्बारे बेचना भी शुरू किया. उसकी उर्दू सुन लोग अपने मन से उसे बख़्शीश भी दे देते थे. बच्चे, बच्चे थे उनकी ख़ुशियां सिर्फ़ पैसों और खाने में थीं और मां की मजबूरी भी समझने लगे थे इससे उन्होंने भी कोई ऐतराज नहीं किया.
कमला से क़रीमन और बच्चों को अमान और आयशा बनाकर वह ईद और बक़रीद के दिन कुछ पैसे जुटा अपनी आर्थिक हालत थोड़ी ठीक कर लेती थी. इसमें अमीना और जावेद भी सच्चे मन से मदद करते थे. ऐसा करते करते उसका बेटा राघव बारहवीं में आ गया. वह इंजीनियर बनने के सपने भी देखता था और कमला को पूरा विश्वास भी था कि वो बन भी जाएगा. बच्चों को बड़े होने के बाद ईदगाह आने में शर्म भी आती थी, इससे वो अकेले ही आती थी. केवल साल में दो दिनों की ही बात तो थी.
क़िस्मत के रंग ही निराले होते हैं और दिल तो दिल होता और पहली मोहब्बत कभी भुलाए नहीं भूलती. उसे अकेलेपने में अपने बच्चों के बाप से ज़्यादा कमाल की याद आती थी और ख़ासकर क़रीमन बनने के बाद. क़रीमन यानी मिसेस कमाल बनना तो उसका सपना था. अमीना कभी-कभी पहले अपने मायके जाती थी उसी ने कमला को बताया कि मौलाना साहेब का बेटा पढ़-लिखकर बड़ा इंजीनियर बन गया गया है और लखनऊ उसकी ससुराल है. कमला के दिल में हूक-सी हुई पर उसने बिल्कुल भी ज़ाहिर नहीं किया, क्योंकि उसकी चाहत का किसी को भी पता नहीं था.
पर वाह रे ऊपर वाले…एक बार फिर उसकी मर्ज़ी चली. कमला से क़रीमन बनी तो कमला को ईदगाह के बाहर बैठी ग़ुब्बारे बेच रही थी और ज़ोर-ज़ोर से गुहार भी लगा रही थी, “अल्लाह के नाम पर मेरी झोली में कुछ डाल दीजिए आपके बाल बच्चों का भला होगा साहेब.“
जो भी ग़ुब्बारा ख़रीदता उसका लाख लाख शुक्रिया अदा करती. तभी एक जाना पहचाना सा बच्चा उसके पास आया. हूबहू वही चेहरा उसके बचपन का प्यार कमाल सा वही आवाज़, “आंटी ये बड़ा ग़ुब्बारा कितने का है?”
उसे देख कमला के रोंगटे से खड़े हो गए ,उसकी आवाज़ अटक गई. किसी तरह उसने वो ग़ुब्बारा उस प्यारे से बच्चे के हाथ में दे कांपती आवाज़ में कहा, “तुम्हारे लिए फ्री, कोई पैसा नहीं.” बच्चा मुश्किल से आठ साल का होगा ग़ुब्बार. हाथ में ले ख़ुशी के मारे कूदने लगा, “अब्बू ग़ुब्बारा देखो फ्री फ़्री …”
बच्चे के बाप को देख वो सन्न रह गई. उसके रग-रग में समाया हुआ कमाल किसी और ख़ातून के बच्चे का बाप बना सामने खड़ा था. उसे देख कमला ने किसी तरह अपने को क़ाबू में रख मुंह को हिजाब से ढंका और नीचे देखने लगी. वो भी तो ठीक उसी तरह कमाल के सपनों में बसी हुई थी.
कमाल ने कहा, “ कमला! तुम कमला हो न? मेरी आंखें धोखा नहीं खा सकतीं. यहां इस तरह बुर्के में.“
कमला अपनी नज़रें झुकाए ही रही सारे ग़ुब्बारे वहीं छोड़ तुरंत खड़ी हो वहां से दौड़ पड़ी. कमाल भी अपने बच्चे का हाथ पकड़ कमला का पीछा करने लगा, लेकिन बच्चे को कमला द्वारा सड़क पर छोड़े ग़ुब्बारे दिख रहे थे. बच्चे ने कमाल से अपना हाथ छुड़ा ग़ुब्बारों की तरफ़ दौड़ लगाई और चिल्लाया, ‘‘अब्बू इतने सारे ग़ुब्बारे! सब फ्री…”
कमाल मजबूर था, बच्चे को छोड़ कैसे पुरानी मोहब्बत के पीछे दौड़े. इधर कमला दौड़ कर पास खड़े ऑटो में बैठ गई.
ऑटो वाले ने पूछा, “बीबी कहां जाना है?”
कमला तो ऊपर से नीचे तक इस जाड़े की ईद में भी पसीने से भीगी हुई थी. किसी तरह बुदबुदाते हुए कहा, “कहीं दूर चलो.“
ऑटो वाला भी हैरान, कैसी भिखारन है?ऑटो में बैठ गई और जानती भी नहीं कहां जाना है?
वो ज़ोर से चिल्लाया, “चलो उतरो ,मेरी बोहनी ना खोटी करो. चले आए हैं ऑटो में बैठने.“
कमला बेचारी दूसरी तरफ़ से उतरी. उसने चेहरे को पूरी तरफ़ से बुर्के से ढंक लिया और हताश घर की तरफ़ चल पड़ी. तभी उसने देखा, फिर वही बरसों पुरानी आवाज़ सुनाई दी, “ऑटो… ऑटो रुको. गोमती नगर चलोगे?”
ऑटो वाले ने ख़ुशी से अपना मीटर ऑन करते हुए कहा, “चलिए साहेब.“ और फिर ऑटो फुर्र हो गया.
कमला बेचारी सोचती रही गोमती नगर तो बड़े लोगों की बस्ती है और वो कहां चारबाग की झोपड़ी में रहने वाली भिखारन. घर आ पूरे दिन बिस्तर पर औंधी पड़ी रही चुपचाप. बच्चे भी नहीं समझ पाए कि मां को हुआ क्या है? राघव थोड़ा बड़ा था उसे लगा कि मां मजबूरी में क़रीमन बन वहां जाती है और किसी के द्वारा पहचान लिए जाने पर शायद शर्मसार हो रही है. पिछले कई सालों से कमला अपनी फटी चादर के पायबंद क़रीमन बन ईद और बक़रीद में सीती रही, लेकिन कभी शर्मिंदा हुई. वही कमला आज बुत बनी पड़ी थी.
जावेद और अमीना ने भी उसे ईद की सेवईयां खाने के लिए आवाज़ दी लेकिन वो बिस्तर पर औंधी पड़ी रही.
वाह रे ईश्वर हर प्रार्थना में मांगा कि एक बार तो कमाल की सूरत दिखा दे और जब आज जब दीदारे यार हुआ तो कमला ने अपना ही मुंह छिपा लिया.
फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट