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सत्ता का जन भावना के आवेग में बहना लोकतंत्र के लिए घातक है

लोकतंत्र यदि बहुमतवाद में बदल जाए तो लोकतंत्र और तानाशाही में भेद ख़त्म हो जाता है!

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
April 14, 2023
in ज़रूर पढ़ें, नज़रिया, सुर्ख़ियों में
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सत्ता का जन भावना के आवेग में बहना लोकतंत्र के लिए घातक है
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पुनर्जागरण काल में जब लोगों के भीतर मानवतावाद और तार्किक वैज्ञानिक खोजों पर बल देने वाली प्रवृत्ति जागृत हुई, तब धीरे-धीरे लोकतंत्र आया और उसमें आम जनता का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों को भेजने की बात हुई, ताकि वे जनता के हित की बात करें. और ये प्रतिनिधि एक सीमित दायरे में काम कर सकें, इसके लिए संविधान बनाया गया. संविधान के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका बनी. यदि शासन सत्ताएं, संविधान और क़ानून के बजाय जनभावना के आवेग में  बहने लगेंगी तो यह बात तात्कालिक तौर पर भले ही अच्छी लगे मगर जल्द ही इसका जनतंत्र को जड़ से ख़त्म कर देने वाली बीमारी में तब्दील होना तय है. इस बात की गहराई को पंकज मिश्र के नज़रिए से समझिए.

प्रबोधनकाल में जब उदारवाद, वैयक्तिक स्वतंत्रता, स्वतंत्र बाज़ार, स्वतंत्रता, समानता, बन्धुता, राज्य और व्यक्ति के अन्तर्सम्बन्ध, क़ानून की परिभाषा, लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) के सिद्धांत आदि गढ़े जा रहे थे, तब जो सबसे बड़ी समस्या थी, वह यह थी कि यदि डेमोक्रेसी समय की मांग है तब कैसे हर व्यक्ति को सत्ता में भागीदार बनाया जाए, आख़िर कैसे लोगों से पूछ पूछ कर नीतियां (policies) बन सकती हैं?
तब आई रिप्रेज़ेंटेटिव डेमोक्रेसी का संकल्पना कि लोग अपने बीच से कुछ लोगों को अपना प्रतिनिधि बना कर प्रतिनिधि सभा में भेजेंगे और उनकी ओर से वही प्रतिनिधि उनके हित में निर्णय लेंगे. यह तो हुई रिप्रेज़ेंटेटिव डेमोक्रेसी.

फिर बिल्कुल ऐसे ही आई गणतंत्र यानी रिपब्लिक की संकल्पना, जहां राजे-रजवाड़े नहीं होंगे और राज्य को जन प्रतिनिधि चलाएंगे. लेकिन ये जन प्रतिनिधि किस दायरे में रहकर यह काम करेंगे? उनकी शक्ति और सीमा क्या होगी? क्या वह निर्बाध और निस्सीम होगी? क्योंकि बहुमत से सत्ता मिलने और बहुमत से निर्णय लेने के क्रम में जनवाद के बहुमतवाद में बदल जाने का खतरा तो अंतर्निहित होता ही है. ऐसे में माइनॉरिटी या फिर व्यक्ति की स्वायत्तता, स्वतन्त्रता संकट में नहीं पड़ जाएगी क्या?

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जनवाद के बहुमतवाद में बदल जाने के खतरे को लगभग सभी दार्शनिक और राजनीतिक चिंतक एक बड़ा खतरा मानते थे और यह भी मानते थे कि यदि ऐसा हुआ तो तानाशाही और जनतंत्र में भेद ख़त्म हो जाएगा. जनतंत्र तानाशाही में बदल जाएगा, अल्पमत का प्रतिनधित्व शून्य हो जाएगा यानी डेमोक्रेसी का चोला रह जाएगा उसकी देह और आत्मा दोनों का कत्ल हो जाएगा. इसी खतरे की रोकथाम के लिए संविधान की संकल्पना आई कि राज्य जिस मर्यादा के भीतर रहकर काम करेगा वह अच्छी तरह परिभाषित हो, कहने का मतलब ये कि संविधान वह मर्यादा है, जिसका अतिक्रमण राज्य भी नहीं कर सकता.

संविधान राज्य, तमाम संस्थाओं, दल, व्यक्ति सबकी शक्ति का भी स्रोत होगा और उनकी सीमा भी. इस तरह दुनियाभर में संवैधानिक लोकतंत्र निर्मित हुए. मेजॉरिटी यानी बहुमत वाली सत्ता की तानशाही को रोकने के लिए तमाम संवैधानिक संस्थाएं बनीं, जिन्हें स्वत्रन्त्र बनाया गया, ताकि सत्ता यदि आवारा हो जाए तो उस पर इन संस्थाओं के ज़रिए लगाम लगाई जा सके. इसीलिए स्वतंत्र न्यायालय, चुनाव आयोग, सीएजी, सीवीसी, सीआईसी जैसी तमाम संसदीय समितियां आदि की व्यवस्था बनाई गई.

संसद के पास संविधान के भीतर रहकर क़ानून बनाने की शक्ति है, कार्यपालिका पर क़ानून के कार्यान्वयन की और न्यायपालिका यह देखेगी कि यह सब संविधान सम्मत है या नहीं और यह भी कि यदि क़ानून की व्यवस्था के विरुद्ध कोई भी काम करता है तो वह उसे दंडित करे. कहने का अर्थ यह है कि देश में बहुमत का नहीं, सरकार का नहीं, बल्कि क़ानून का शासन हो. यही रूल ऑफ़ लॉ है, जो किसी व्यक्ति और राज्यसत्ता दोनों पर समान रूप से लागू होता है. देश जनभावना से नहीं, बल्कि संविधान और क़ानून से चलता है.

जनभावना यदि यह हो कि हमको घर बैठे जीने खाने की सारी सुविधा मिल जाए तो क्या राज्य का यह कर्तव्य होगा कि वह ऐसा करे? बिल्कुल नहीं, है न! यदि बहुमत की भावना यह हो कि अंतर-जातीय, अंतर-धार्मिक विवाहों पर प्रतिबंध लग जाए जाए तो क्या राज्य का यह कर्तव्य है कि वह ऐसा क़ानून बना? बिल्कुल नहीं!

मगर क्यों? क्योंकि हम भारत के लोगों ने संविधान के ज़रिए यह आत्मार्पित किया है कि हम लिंग, जाति, धर्म, रंग, नस्ल आदि के आधार पर कोई भेद नहीं करेंगे. मतलब यह कि राज्य के अधिकार की सीमा संविधान ने सुनिश्चित कर दी है कि बस… यहीं तक. तो अब आपको समझ में आ गया होगा कि जनता की मांग और संविधान के मूल्य और क़ानून के शासन के बरक्स, राज्य के तमाम अंगों का क्या कर्तव्य है और उसे किस आधार पर फैसले लेने चाहिए.

यदि संविधान और क़ानून के बजाय जनभावना के आवेग में शासन सत्ताएं भी बहने लगेंगी तो जीभ को भले यह चाट-चटनी संस्कृति तात्कालिक तौर पर अच्छी लगे, मगर जल्द ही यह बीमारी आंत, अमाशय, आहारनाल और गुदा कैंसर में बदल जाएगी. और फिर इसका जनतंत्र को जड़ से ख़त्म कर देने वाली बीमारी में तब्दील होना निश्चत है!

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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