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ओए अफ़लातून
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गीतांजलि: जया शर्मा दीक्षित की कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
July 13, 2023
in नई कहानियां, बुक क्लब
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गीतांजलि: जया शर्मा दीक्षित की कहानी
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जीवन कितना अप्रत्याशित है. हम सोचते कुछ हैं, कुछ और ही सपने संजोते हैं, लेकिन कई बार नियति अपने कोई और खेल रच कर, जो हमने सोचा हो उसके उलट ही चलती जाती है. जब तक जीवन है, उसे शिद्दत से जी लेने की सीख देती कहानी.

मैं गीतांजलि हूं… नहीं-नहीं थी. एक मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की. मेरे मां-बाप के अलावा मेरे घर में मेरी दो बहनों और एक भाई था. आज आप इस दुनिया में मुझसे मिल नहीं पाएंगे, क्योंकि मैं इस दुनिया को छोड़ कर जा चुकी हूं… लेकिन आज मैं आपको अपनी कहानी जीवन के बारे में कुछ समझाने के लिए सुना रही हूं. मैं बहुत कुछ करना चाहती थी पर समय की मार ने मुझको ऐसा पछाड़ा कि क्या ही कहूं? नियति के आगे मैं ऐसी विवश हुई कि आज हूं ही नहीं. इसे ईश्वर के दर्दनाक इंसाफ़ कहूं या ये कहूं कि हम सब कहीं न कहीं समय के आगे कमज़ोर पड़ ही जाते हैं.

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मैं अपनी क्लास में अव्वल आती थी. मेरा सपना था कि मैं बड़े होकर सॉफ़्टवेयर इंजीनियर बनूं. मेरे मां और मेरे पिताजी ने कोई कसर नहीं छोड़ी मुझे पढ़ाने में. और मैंने अपनी मेहनत से उस मुक़ाम को हासिल भी किया, जिसकी मुझे बहुत ख़ुशी थी.
मुझे याद है वह कॉलेज का आख़िरी दिन था और मेरा यह सपना कि मैं ग्रैजुएट होकर अपने माता-पिता को गौरवान्वित करूं, वह पूरा हो गया था. हम सारी सहेलियों ने कन्वोकेशन सेरिमनी में बहुत सारे फ़ोटो खिंचवाए. ख़ुश तो थी मैं, लेकिन यह दुख तो बहुत हो रहा था कि मैं अपने दोस्तों से बिछड़ जाऊंगी और पता नहीं कौन, कहां, कब चला जाएगा. ज़िंदगी आगे क्या मोड़ लाने वाली है इस दुख के साथ-साथ इस बात की थोड़ी ख़ुशी और थोड़ा सा एक्साइटमेंट भी था कि न जाने जीवन आगे कौन सा रास्ता मेरे लिए खोलने जा रहा था.

मैंने अपने माता-पिता को इतना ख़ुश कभी नहीं देखा था जितना वह आज थे और यही तो मैं चाहती भी थी. बचपन से मैं उनकी बहुत लाड़ली बिटिया थी. मैंने कभी भी अपने माता-पिता को परेशान नहीं किया, जबकि मेरा भाई अमित हमेशा ही पढ़ने में उन्हें बहुत परेशान करता था. मुझे याद है परीक्षाओं के दिनों में वह कैसे मेरे पीछे-पीछे लगा रहता था कि दीदी मुझे यह बता दो और जिस दिन उसकी गणित की परीक्षा होती थी उस दिन तो हमारे घर में एक अलग ही समा बन जाता था. पापा ऑफ़िस से घर जल्दी आ जाते कि आज मैं अमित को पढ़ाऊंगा. लेकिन जनाब एक दिन में तो पढ़ाई होती भी नहीं है. कहां मैं और मेरी बहन प्रीति गणित की परीक्षा के दिन बिल्कुल सुकून से रहते थे और कहां अमित पापा के सामने तरह-तरह के बहाने बनाता रहता और मार भी खाता. पर मजाल है कि एक भी सवाल उससे हो जाता हो. न तो उसको कोई फ़ॉर्मूला याद होता और न ही उससे कुछ हल निकलता. उस दिन तो घर पर महाभारत हो रही होती थी मम्मी और पापा के बीच में. पापा को हम दोनों बहनों से बहुत उम्मीदें थीं और वह पूरी भी होती दिख रही थीं. मेरे ग्रैजुएट होने तक प्रीति का भी इंजीनियरिंग में दाख़िला हो गया था और वह भी अपनी पढ़ाई के लिए हॉस्टल चली गई.

मैं उन मेघावी छात्रों में से थी जिनका कैंपस सलेक्शन हुआ था तो मुझे नौकरी के लिए दर-दर भटकना नहीं पड़ा. मुझे एक बड़ी मल्टिनैशनल सॉफ़्टवेयर कंपनी में जॉब मिल गया था. दिन प्रतिदिन मेहनत कर मैंने अपनी लगन से ऑफ़िस में काफ़ी अच्छी जगह बना ली थी. उस दिन हमारे यहां कोई पार्टी थी. अक्सर बड़ी-बड़ी कंपनियों में किसी भी त्यौहार से पहले ही हम लोग पार्टी मना लेते थे. हम लड़कियों को कल्चरल ड्रेस में जाना था. हम सब ने साड़ी पहनना तय किया. दो रात पहले ही मैंने मम्मी से उनकी सबसे अच्छी और महंगी साड़ी प्रेस करवा कर रख ली थी और उसके साथ के गहने और मैचिंग पर्स और जूते यानी तैयारी पूरी थी.

जुलाई का महीना था और बारिश का मौसम, क्योंकि हम दिल्ली में रहते थे तो यहां उस वक़्त बहुत ज़्यादा बारिश तो नहीं होती थी, लेकिन हां मानसून की शुरुआत हो जाती थी. पार्टी से एक दिन पहले मुझे हल्का सा बुख़ार था, लेकिन मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और पेरासिटामॉल खाकर मैं सो गई, क्योंकि अगले दिन मुझे साड़ी पहनकर ऑफ़िस जो जाना था. मैंने रितु को पहले ही बता दिया था कि वह मुझे पिकअप कर ले. रितु मेरे साथ ही काम करती थी और हम दोनों का सलेक्शन एक ही दिन हुआ था. सुबह छह बजे जब मेरी आंख खुली और मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा था. मैं उठी और मेरे क़दम हल्के से लड़खड़ाए और मैं गिर पड़ी. ऐसा लग रहा था मानो पैरों में जान ही न हो. न जाने क्या हो गया था मुझे, अचानक ही मेरे पैर जैसे काम नहीं कर रहे थे. मैंने अपनी मां को ज़ोर से आवाज़ लगाई, ‘‘ मां… मां, यहां आओ देखो तो मुझे क्या हो रहा है.’’

आवाज़ सुनते ही मेरे मां और पिताजी मेरे कमरे में आए और मुझे उठा कर बिस्तर पर लिटा दिया. उन्होंने कहा, ‘‘तू ढंग से खाती-पीती नहीं है न इसी की वजह से तुझे कमज़ोरी आ गई होगी.’’

पर यह क्या! मुझे ऐसा लगने लगा था जैसे मेरा कमर के नीचे का हिस्सा काम ही न कर रहा हो. पिताजी यह बात सुनते ही घबरा गए उन्होंने फौरन अपनी गाड़ी निकाली और मुझे हॉस्पिटल ले आए. हॉस्पिटल लाते लाते अचानक से मुझे सांस लेने में तकलीफ़ होने लगी. मुझे ऐसा लगा कि जैसे मेरे हाथों ने भी काम करना बंद कर दिया था. डॉक्टर जल्दी-जल्दी इन्वेस्टिगेशन कराने लगे और पता चला कि मैं एक भयानक बीमारी गुलियन बैरी सिंड्रोम की शिकार हो गई हूं. मुझे कई सारी महंगी दवाइयां दी गईं, पर कुछ नहीं हुआ मेरी तबीयत बिगड़ती रही और जब मुझे होश आया तो मैंने पाया कि मैं आईसीयू में थी और मेरे मुंह में मोटा सा पाइप लगा था. मैं मशीन के ज़रिए सांस ले रही थी. मैं वहां से उठकर जाना चाहती थी, पर मेरे हाथ-पैर कुछ भी तो काम नहीं कर रहे थे. सिर्फ़ दिमाग़ था जो सब कुछ सोच रहा था और और हर तरह के विचार उसमें आ-जा रहे थे.

मुझे आसपास मेरे माता-पिता भी नज़र नहीं आ रहे थे. केवल आईसीयू में अजीब-अजीब तरह की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं. सिर पर जलती हुई लाइट और मेरे बगल में एक रखी हुई मशीन जिसमें से मेरी सांस आ जा रही थी और उन पाइप में से बार-बार खर खर खर-खर की आवाज़ हो भि रही थी. बहुत तकलीफ़ हो रही थी. उठकर जाने का मन कर रहा था नाक में भी पाइप था. तभी वहां का नर्सिंग स्टाफ़ आया और मेरे सिर पर हाथ रख कर बोला, ‘‘गीतांजलि कैसी हो? ठीक हो क्या?’’

इस प्रश्न का मैं क्या जवाब देती. सैकड़ों सवाल मेरे दिमाग़ में आ रहे थे कि आख़िर मुझे हुआ क्या है. मुझे बहुत बेचैनी हो रही थी. मैं अपनी गर्दन और आंखें, वे अंग जिन्हें मैं हिला सकती थी, उन्हें ज़ोर-ज़ोर से हिलाने लगी. तभी डॉक्टरको बुलाया गया. उन्होंने मुझे इंजेक्शन दिया जिसकी वजह से मैं गहरी नींद में चली गई. दो-तीन दिन यही सिलसिला चलता रहा मैं उठती और मुझे सुला दिया जाता. हालांकि मुझे दर्द का एहसास कहीं भी नहीं था फिर यह सब क्यों लगा रखा था? दिमाग़ में यही सबसे बड़ी उलझन थी. मैं उठ क्यों नहीं पा रही? कभी-कभी मम्मी-पापा मिलने आते तो उन्हें देखकर सिर्फ़ आंखों से आंसू निकल जाते. वह भी बहुत दयनीय स्थिति में मुझे देखते. बस मेरे सामने आंसू न बहा सकने की उनकी बेबसी उनकी आंखों में झलकती. यही सब चलता रहा क़रीब एक हफ़्ते बाद डॉक्टर ने तय किया कि मेरे स्वास्थ्य में कोई भी बदलाव नहीं आ रहा था तो मेरे गले में से छेद करके एक सांस का रास्ता बनाएंगे, क्योंकि पाइप पर कब तक रखा जाए? यह भी हो गया. ऐसे ही दिन पर दिन निकलते रहे. मैं एक ऐसी पेशेंट बन गई जो आईसीयू में सबसे ज़्यादा रही.

सारे लोग मुझ पर बहुत ध्यान देते पर मुझे तो एक ही इंसान का इंतज़ार रहता और वह थे डॉक्टर देवाशीष. इंसान का शरीर चाहे काम करे या न करे, पर दिमाग़ तो बहुत काम करता है. वह हर तरह की फ़ीलिंग समझता है. उसे तो सुख-दुख, प्यार, अपनापन हर चीज़ का एहसास होता है. मुझे भी डॉक्टर देवशीष बहुत अच्छे लगने लगे. वह आते और मुझसे पूछते, ‘‘हाऊ आर यू गीतांजलि?’’ और मैं उन्हें आंखों से बताती कि मैं ठीक हूं. मन भी बड़ा विचित्र है कभी-कभी तो मैं डॉ देवाशीष को बुलाने के लिए ज़ोर से सांस लेना शुरू कर देती और स्टाफ़ को लगता कि मेरी तबीयत ख़राब है फिर वह झट से डॉ देवाशीष को बुला लेते. और उनके ही आते मैं ठीक हो जाती. पता नहीं क्यों मेरा मन करता था कि वह यहीं रहें… मेरे आसपास. हालांकि उनका आईसीयू का रोटेशन ख़त्म होने वाला था, मैंने बात करते सुना था स्टाफ़ को.

तीन महीने कैसे निकल गए पता ही नहीं चला. मुझे नर्सिंग स्टाफ़ ने कहा भी था कि गीतांजलि अगर तुम बार-बार ऐसे तबीयत ख़राब करोगी तो हमें पता ही नहीं चल पाएगा कि कब तुम सच बोल रही हो कब झूठ. और तुम्हारे गले का इलाज कर करके उसका साइज छोटा हो गया है तो तुम ऐसा मत करो. हां, मुझे वह घुटन महसूस होने लगी थी. अचानक ही मुझे एकदम सांस लेने में तकलीफ़ होने लगती तब वह एक पाइप डालकर मेरे गले में से जमा हुआ बलगम निकालते. और मैं फिर ठीक हो जाती. एक दिन की बात है मैंने सब से झूठ बोला पता नहीं मुझे ऐसा लगने लगा था कि जैसे मैं अब जाने वाली हूं और मुझे डॉक्टर देवाशीष को देखना था उनसे आख़िरी मुलाक़ात करनी थी. मैंने ऐसे ही सांस ना आने का बहाना बनाया पर वो नहीं आए, क्योंकि उस दिन से उनका रोटेशन बदल गया था. दूसरे डॉक्टर ने मुझे देखा और बोलें, ‘‘रिलैक्स गीतांजलि तुम ठीक हो कोई दिक़्क़त नहीं है.’’ मैं शांत हो गई. मुझे पता चल गया था कि वह अब नहीं आएंगे.

एक दिन मेरी मम्मी को फ़ोन आया कि नानी की तबीयत बहुत ख़राब हो गई है और वह सिर्फ़ एक दिन के लिए मेरठ जाना चाहती हैं. मम्मी मुझे बता कर गई थीं, लेकिन फिर भी जाने क्यों मुझे बुरा लग रहा था. आज बहुत सुबह से नींद भी आ रही थी और ऐसा लग रहा था मानो बार-बार मुझे कोई बुलाने आ रहा हो. मम्मी एक दिन के लिए गईं और उसी बीच मेरी तबीयत अचानक बिगड़ी और फिर मैं कभी उठ नहीं पाई.

मुझे पता है कि आपको यह सुनकर बुरा लग रहा होगा कि गीतांजलि चली गई. पर यह सोचिए कि मेरे माता-पिता और मेरा परिवार जो डेढ़ साल से मेरे साथ हॉस्पिटल में लगे हुए थे, उनको थोड़ा तो रिलैक्सेशन महसूस हुआ होगा. ग़म सबको होता है अपने बच्चे को खोने का, लेकिन वह ज़िंदगी ही क्या जो किसी पर बोझ बन जाए और आख़िर कितने दिन तक किसी पर कोई बोझ बना रहे? यह ज़िंदगी यहीं तक थी. इतना ही कष्ट लिखा था और अगले जन्म में फिर से स्वस्थ पैदा भी तो होना था.

अपनी कहानी के ज़रिए मैं कहना चाहती हूं कि जब तक जीवन है, इसे खुलकर जिएं. क्या पता कब किस कर्म का कोई हिसाब चुकाते हुए ज़िंदगी किस पल हमें अलविदा कह दे. क्योंकि यह भी तो सच है न कि किसी के बिना ज़िंदगी रुकती नहीं है. परेशानियां होती हैं, दुख होता है लेकिन समय के साथ-साथ लोग आपके बिना रहना सीख लेते हैं. यही जीवन है. तो जब तक जीवन है, इसका पूरा आनंद लें, जीवटता से जिएं.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

Tags: fictiongitanjalijaya sharma dixitshort storystoryकहानीगीतांजलिजया शर्मा दीक्षितफ़िक्शनशॉर्ट स्टोरीस्टोरी
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