इंसान रिश्तों को निभाना चाहता है, जीवन को जीना चाहता है. सुख-दुख, मीठा-खट्टा जीवन का हर अनुभव लेना चाहता है, पर ग़रीबी की मजबूरी उस रिश्तों को उस तरह देखने नहीं देती, जैसे रिश्ते होने चाहिए. सुदामा पांडे ‘धूमिल’ की कविता का सार यही है.
घर में वापसी
मेरे घर में पांच जोड़ी आंखें हैं
मां की आंखें पड़ाव से पहले ही
तीर्थ-यात्रा की बस के
दो पंचर पहिए हैं
पिता की आंखें
लोहसांय की ठंडी शलाखें हैं
बेटी की आंखें मंदिर में दीवट पर
जलते घी के
दो दिए हैं
पत्नी की आंखें आंखें नहीं
हाथ हैं, जो मुझे थामे हुए हैं
वैसे हम स्वजन हैं, क़रीब हैं
बीच की दीवार के दोनों ओर
क्योंकि हम पेशेवर ग़रीब हैं
रिश्ते हैं; लेकिन खुलते नहीं हैं
और हम अपने ख़ून में इतना भी लोहा
नहीं पाते,
कि हम उससे एक ताली बनवाते
और भाषा के भुन्ना-सी ताले को खोलते,
रिश्तों को सोचते हुए
आपस में प्यार से बोलते,
कहते कि ये पिता हैं,
यह प्यारी मां है, यह मेरी बेटी है
पत्नी को थोड़ा अलग
करते-तू मेरी
हमसफ़र है,
हम थोड़ा जोखिम उठाते
दीवार पर हाथ रखते और कहते
यह मेरा घर है
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