इधर करोना के दौरान थिएटर में जाकर फ़िल्में देखना तो सपनों की बात जैसा हो गया था. लेकिन काफ़ी समय के बाद फ़िल्म चेहरे से जुड़े अदाकारों, कहानीकारों और निर्देशक के नाम ने थिएटर की ओर खींचा तो फ़िल्म देखने भारती पंडित ने सिनेमा हॉल का रुख़ किया. वे बता रही हैं कि कैसी है यह फ़िल्म, ताकि हमारे पाठक इस फ़िल्म को देखने या न देखने का मन बना सकें.
फ़िल्म: चेहरे
सितारे: अमिताभ बच्चन, इमरान हाशमी, अन्नू कपूर, रघुवीर सहाय, सिद्धांत कपूर, क्रिस्टल डिसूज़ा, रिया चक्रवर्ती
लेखक: रंजीत कपूर, रूमी जाफ़री
निर्देशक: रूमी जाफ़री
रेटिंग: 2.5/5 स्टार
कोरोना महामारी के चलते करीब डेढ़ साल बाद थिएटर में जाकर फ़िल्म देखने का साहस किया. अमिताभ, अन्नू कपूर और रूमी जाफ़री के नामों ने आकर्षित किया चेहरे फ़िल्म की ओर. बर्फ़ीले पहाड़ों तले एक बड़ा-सा घर, उसमें एक रिटायर्ड जज, दो रिटायर्ड वक़ील, एक जल्लाद, एक रिहा हुआ अपराधी और उसकी बहन, एक अजनबी और मुक़दमे का खेल… यही है फ़िल्म चेहरे का मूल कथानक. इस घर में अजनबी समीर यानी इमरान हाशमी को जबरन आने पर मजबूर किया जाता है. मुक़दमे के खेल के रूप मे शुरू हुआ यह वृत्तान्त समीर के अतीत के गुनाहों को सामने ले आता है और उसे कोर्ट सज़ा-ए-मौत देता है. कुल मिलाकर बात यह कि जो अपराधी वास्तविक कोर्ट के चंगुल से बच निकलते हैं या उनका अपराध ज़ाहिर ही नहीं हो पाता, उन्हें ये बुजुर्ग इस कोर्ट में लाकर उनके गुनाह क़ुबूल करवाते हैं और सज़ा देते हैं.
रंजीत कपूर की मूल कहानी को रूमी जाफ़री ने पटकथा का रूप दिया है. कथ्य के रूप में यह एक निहायत ही नया प्रयोग है, जिसमें रूमी पचास प्रतिशत तक सफल रहे हैं. फ़िल्म की 90 प्रतिशत कहानी घर में बने कोर्ट रूम में चलती है. फ़िल्म की शुरुआत बेहद प्रभावशाली है, जिसमें अमिताभ “जिस्म चले जाते हैं, चेहरे रह जाते हैं” यह ख़ूबसूरत कविता अपनी दमदार आवाज़ में और ख़ास अंदाज़ में पढ़ते हुए नज़र आते हैं. फ़िल्म की शुरुआत भयंकर बर्फ़बारी वाले मौसम में समीर के अपनी बीएमडबल्यू कार से दिल्ली जाने के सफ़र से होती है. रास्ते में पेड़ गिराया जाता है और इस बहाने से समीर को इस घर में लाया जाता है. फिर शुरू होता है खेल के रूप में मुक़दमा, समीर का एक छोटा-सा कथन कि आगे बढ़ने के लिए सब कुछ करना पड़ता है, उसके मृत बॉस ओसवाल और उनकी पत्नी का ज़िक्र और धीरे-धीरे बात समीर के अतीत को उघाड़ने पर आती जाती है. समीर मानता है कि कोई भी आदमी तब तक बेगुनाह होता है जब तक कि उसका गुनाह पकड़ा न जाए. महत्वाकांक्षी होना और उसके लिए कुछ कर गुज़रना यदि गुनाह है तो यह गुनाह हरेक व्यक्ति करता है. उसका यही कथन उसके गले की हड्डी बन जाता है और वक़ील जाफ़री यानी अमिताभ बच्चन उससे सच उगलवा लेते हैं.
शुरुआत के दस-पंद्रह मिनिट कहानी समझ में नहीं आती. क्या होने वाला है उलझन बनी रहती है. फिर धीरे-धीरे फ़िल्म पकड़ बनाती है और अब क्या होगा, उत्सुकता जगाती है. समीर के अतीत को जिस तरह से सामने लाया जाता है वह दिलचस्प है. इंटरवल तक उत्सुकता बनी रहती है. चूंकि फ़िल्म संवाद प्रधान है, संवादों की अधिकता है. इसमें रूमी कई जगह सफल हुए हैं तो कहीं संवाद उबाऊ भी हो गए हैं. फ़िल्म का सबसे ख़राब हिस्सा है अंतिम हिस्से का 10 मिनिट का अमिताभ का मोनोलॉग. यहां ऐसिड अटैक, निर्भया कांड का ज़िक्र क्यों हुआ, समझ में नहीं आया. ऐसा लगा कि अमिताभ को एकदम पिंक फ़िल्म याद आ गई हो. उस हिस्से को झेलना मुश्क़िल हो जाता है. अदालत मे इंसाफ़ नहीं, फ़ैसला होता है, यह कथन प्रभाव छोड़ता है. न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी न बांधना अच्छा प्रतीक लगा. घर को कोर्ट रूम बनाकर लिए गए सीन बेहतर प्रकाश और दृश्य संयोजन से अच्छे बन पड़े हैं, मगर अंतिम सीन में बर्फ़ चटकने वाला दृश्य निहायत ही घटिया तरीक़े से फिल्माया गया है.
अभिनय की बात करें तो सबसे बेहतर रहे अन्नू कपूर, जो स्वाभाविक फ्रेम में रहे. अमिताभ पहले दृश्य को छोड़कर बाक़ी हर जगह ओवर ऐक्टिंग करते से नज़र आए. रघुवीर यादव जैसे प्रतिभाशाली अभिनेता का कोई उपयोग नहीं किया गया. रिया और सिद्धांत कपूर के पास करने के लिए कुछ ख़ास था नहीं. यह बात भी स्वाभाविक तौर पर निकल आती है कि रिया को अभिनय बिल्कुल नहीं आता. इमरान अपने स्वाभाविक रूप में औसत अभिनय करते नज़र आए हैं. फ़िल्म को थोड़ा कसकर संपादित किया जाता और संवादों की लंबाई घटाई जाती तो कसावट आती. गीतों की ज़रूरत थी नहीं, दो गीत हैं, जो बस बजते हैं और याद नहीं रहते. कुल मिलाकर सलाह यही कि बहुत दिनों बाद थिएटर मे जाना चाहते हैं, धीमा थ्रिलर पसंद है, अमिताभ और इमरान हाशमी को पसंद करते हैं और आप थोड़ा धीरज रखते हैं तो अवश्य देखने जाइए. अन्यथा थोड़े दिन में ओटीटी प्लैटफ़ॉर्म पर आ ही जाएगी, तब घर में देखिए, ताकि जब मन चाहे, बंद कर सकें.
फ़ोटो: गूगल