वे लोग जिनके अपने इस भरी दुनिया में खो जाते हैं, आजीवन उस खोए हुए अपने की तलाश में, उसके इंतज़ार में रहते हैं. गुमशुदा हुए लोग, जो आज तक घर नहीं लौटे या घर लौटने की हिम्मत नहीं कर सके उन लोगों की आवाज़ को इस कविता में मंगलेश डबराल ने स्वर दिया है.
शहर के पेशाबघरों और अन्य लोकप्रिय जगहों में
उन गुमशुदा लोगों की तलाश के पोस्टर
अब भी चिपके दिखते हैं
जो कई बरस पहले दस या बारह साल की उम्र में
बिना बताए घरों के निकले थे
पोस्टरों के अनुसार उनका क़द मंझोला है
रंग गोरा नहीं गेहुंआ या सांवला है
वे हवाई चप्पल पहने हैं
उनके चेहरे पर किसी चोट का निशान है
और उनकी मांएं उनके बग़ैर रोती रहती हैं
पोस्टरों के अंत में यह आश्वासन भी रहता है
कि लापता की ख़बर देने वाले को मिलेगा
यथासंभव उचित ईनाम
तब भी वे किसी की पहचान में नहीं आते
पोस्टरों में छपी धुंधली तस्वीरों से
उनका हुलिया नहीं मिलता
उनकी शुरुआती उदासी पर
अब तकलीफ़ें झेलने की ताब है
शहर के मौसम के हिसाब से बदलते गए हैं उनके चेहरे
कम खाते कम सोते कम बोलते
लगातार अपने पते बदलते
सरल और कठिन दिनों को एक जैसा बिताते
अब वे एक दूसरी ही दुनिया में हैं
कुछ कुतूहल के साथ
अपनी गुमशुदगी के पोस्टर देखते हुए
जिन्हें उनके परेशान माता-पिता जब-तब छपवाते रहते हैं
जिनमें अब भी दस या बारह
लिखी होती हैं उनकी उम्र.