जीवन हर पल किया जानेवाला संघर्ष है. केदारनाथ अग्रवाल की यह कविता ज़िंदा आदमी के संघर्ष को बयां करती है.
हमारी ज़िंदगी के दिन,
बड़े संघर्ष के दिन हैं
हमेशा काम करते हैं,
मगर कम दाम मिलते हैं
प्रतिक्षण हम बुरे शासन
बुरे शोषण से पिसते हैं!
अपढ़, अज्ञान, अधिकारों से
वंचित हम कलपते हैं
सड़क पर ख़ूब चलते
पैर के जूते-से घिसते हैं
हमारी ज़िंदगी के दिन,
हमारी ग्लानि के दिन हैं!
हमारी ज़िंदगी के दिन,
बड़े संघर्ष के दिन हैं
न दाना एक मिलता है,
ख़ाली पेट फिरते हैं
मुनाफाखोर की गोदाम
के ताले न खुलते हैं!
विकल, बेहाल, भूखे हम
तड़पते और तरसते हैं
हमारे पेट का दाना
हमें इनकार करते हैं
हमारी ज़िंदगी के दिन,
हमारी भूख के दिन हैं!
हमारी ज़िंदगी के दिन,
बड़े संघर्ष के दिन हैं!
नहीं मिलता कहीं कपड़ा,
लंगोटी हम पहनते हैं
हमारी औरतों के तन
उघारे ही झलकते हैं
हज़ारों आदमी के शव
कफन तक को तरसते हैं
बिना ओढ़े हुए चदरा,
खुले मरघट को चलते हैं
हमारी ज़िंदगी के दिन,
हमारी लाज के दिन हैं!!
हमारी ज़िंदगी के दिन,
बड़े संघर्ष के दिन हैं!
हमारे देश में अब भी
विदेशी घात करते हैं
बड़े राजे, महाराजे,
हमें मोहताज करते हैं
हमें इंसान के बदले,
अधम सूकर समझते हैं
गले में डालकर रस्सी
कुटिल क़ानून कसते हैं
हमारी ज़िंदगी के दिन,
हमारी क़ैद के दिन हैं!
हमारी ज़िंदगी के दिन,
बड़े संघर्ष के दिन हैं!
इरादा कर चुके हैं हम,
प्रतिज्ञा आज करते हैं
हिमालय और सागर में,
नया तूफ़ान रचते हैं
ग़ुलामी को मसल देंगे
न हत्यारों से डरते हैं
हमें आज़ाद जीना है
इसी से आज मरते हैं
हमारी ज़िंदगी के दिन,
हमारे होश के दिन हैं!
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