अमेरिकी रक्षा विभाग में वरिष्ठ अभियंता हरीबाबू बिन्दल एक आला कवि भी हैं. अमेरिकी निवासी भारतीय रचनाकारों के काव्य संकलन ‘मेरा दावा है’ में प्रकाशित हरीबाबू की कविता ‘हवा’ उनकी कल्पनाशीलता का बेमिसाल उदाहरण है.
लोग क़ीमती बादाम-औ-पिस्ते
घर पर ही खाते हैं
किन्तु फोकट की हवा खाने
कश्मीर जाते हैं
हवा, पास के पार्क
औ’ घर की खिड़की पर भी मिलती है
किन्तु प्रश्न ये है,
क्या हवा खाने की चीज़ है?
जिसे खाते हैं
हवा, खाई नहीं जाती,
श्वास से ली जाती है
स्वयं नहीं ले पाते,
तो कृत्रिम दी जाती है
वैसे कुछ लोग
चाय व जॉल भी खाते हैं
जिनको कि हिन्दी नहीं आती है
हवा, चलती है,
रुक जाती है
बदनामी की हवा सर्र उड़ जाती है
हवा रुख़ बदलती है,
रंग भी
गामड़े को शहर की हवा लग जाती है
हवा दबती है,
उठती है अफ़वाहों की,
देखते ही देखते कहां फैल जाती है
हवा से बचो,
मत बहो इन हवाओं में
क्योंकि
हवा के साथ हर क्रिया लग जाती है
कवि: हरीबाबू बिन्दल
कविता संग्रह: मेरा दावा है
संग्रह संपादन: सुधा ओम ढींगरा
प्रकाशक: शिवना प्रकाशन
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