सुखी संसार था मेरा, बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी कर चुके थे, अब वास्तव में जीवन को भरपूर जी लेने का समय था. क्या पता था कि नियति को कुछ और ही मंज़ूर है. एक दिन सुबह दफ़्तर को निकले, दोपहर में दुर्घटना की सूचना मिली, शाम होते-होते अस्पताल में ही इन्होंने दम तोड़ दिया. देखते-देखते मेरा जीवन ख़त्म हो गया था. अपने दुख से उबरते हुए मैंने ख़ुद ही सीखा कि अब मुझे ख़ुद को कैसे संभालना है और यह बात साझा करना इसलिए ज़रूरी समझा कि मेरे जैसे कई लोग होंगे, जिन्हें संभलने की दरकार हो. शायद मेरे अनुभव उनके काम आ सकें.
मैं ऑफ़िस में थी कि अचानक इनका फ़ोन आया. बोले,‘मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है, तुम तुरंत घर आ जाओ.’ बिना एक क्षण व्यर्थ गंवाए मैं घर को भागी. वहां पहुंचकर देखा तो इन्हें सांस लेने में बुरी तरह से तकलीफ़ हो रही थी. जब तक कार में डालकर अस्पताल ले जाते, तब तक तो सब कुछ ख़त्म हो गया. एक ही क्षण में मेरा सुखी संसार बिखर गया था.
अब जीवन कैसे कटेगा मेरा? यही यक्ष प्रश्न हर उस महिला के सामने आ खड़ा होता है जिसका जीवन साथी बीच सफ़र में साथ छोड़कर अनंत यात्रा के पथ पर चला जाता है. जीवन साथी का बिछड़ना किसी भी आयु में दुखदाई ही होता है, मगर विशेषतः मध्य आयु में, जब बच्चे बड़े हों, नौकरी या पढ़ाई के सिलसिले में बाहर हों और पति-पत्नी ही एक-दूसरे का सहारा बने हुए हों, ऐसे में साथी का चले जाना सारे जीवन को स्तंभित किए देता है. दुःख को सीमा में बांधा नहीं जा सकता, मगर आगे बढ़ने के लिए, जीने के लिए इससे पार पाने का रास्ता भी ख़ुद को ही निकालना होता है. किसी एक के चले जाने से दूसरे का जीवन ख़त्म नहीं हो सकता, उसका तो वापस सामान्य जीवन में लौटना आवश्यक होता है.
स्वीकार भाव पैदा कीजिए: अक्सर अचानक घटी दुखद घटना के प्रति हमारे मन में स्वीकार भाव पैदा ही नहीं हो पाता. हम लगातार अपने आप से यह सवाल करते रहते हैं कि मेरे ही साथ यह सब क्यों?अस्वीकृति दुख का पहला चरण होती है. मेरे साथ यह नहीं हो सकता, हम लगातार यह सोचते रहते हैं. और ऐसा करके लगातार दर्द में बने रहने का अवसर पैदा करते रहते हैं. दुःख से उबरने का पहला आवश्यक चरण होता है यह स्वीकार कर लेना कि यह दुखद घटना घट चुकी है और नियति की मर्ज़ी को उलटा नहीं जा सकता. एक बार समस्या के प्रति स्वीकृति आ जाए तो समाधान की ओर बढ़ने का मार्ग दिखाई देने लगता है.
मदद मांगने में हिचकिचाएं नहीं: अपने आप को भेद्य बनाएं.अपनी परेशानी को, अपनी तकलीफ़ को छिपाए नहीं. अपनी भावनाओं को, अपनी मन:स्थिति को मित्रों और परिवार से साझा कीजिए. संभव है,आपके आसपास ऐसे लोग हों, जो इस वेदना से गुज़रे हों. उन्होंने इससे कैसे पार पाया, उनसे बात करके समझा जा सकता है. ज़रूरत पड़े तो किसी थेरैपिस्ट की मदद लेने में भी संकोच न करें. इस समय में भावनाओं के ज्वार पर क़ाबू पाना अक्सर कठिन हो जाता है. ऐसे में काउन्सलिंग और दवाएं मदद कर सकती हैं.
संगीत मदद करेगा: धीमा,सौम्य और मधुर कंठ संगीत या वाद्य संगीत मन:स्थिति संतुलित करने में बहुत मदद करता है. इसका भी सहारा लिया जा सकता है.
भावनाओं को बाहर आने दीजिए: हमारा शरीर और मन दोनों ही इस अप्रत्याशित धचके के लिए तैयार नहीं होता. ऐसे में पल-पल में मनोभावों का बदलना, भावनाओं का आवेग महसूस होना सामान्य है. भावनाओं को बाहर आने दें. रोने का मन है तो रो लें. भावनाओं का उद्वेग जितना हल्का होता जाएगा, संतुलन बनाने में उतनी ही आसानी होगी.
अपनी भावनाओं को लिखें: साथी के प्रति मन में जो भी भाव आ रहे हों या अकेलापन महसूस हो रहा हो, उसे लिखने की कोशिश करें. कुछ लोगों ने इसे पत्र के रूप में लिखा, कुछ लोगों ने व्हाट्सएप सन्देश के रूप में. कुछ ने कविता को आकार दिया और उन्हें इससे काफ़ी मदद मिली.
पुराने शौक़ को आकार दीजिए: दुख से उबरने का एक रास्ता ख़ुद को अत्यंत व्यस्त रखना भी है. यदि आप नौकरी करते हैं या अन्य कोई काम करते हैं तो बेहतर होगा जल्दी से जल्दी उस दिनचर्या में वापस चलें जाएं. इसके अलावा उन शौक़ों को फिर से ज़िंदा कीजिए, जिन्हें वक्त के अभाव में कभी छोड़ दिया था. नृत्य करना, गाना, एरोबिक्स, बागवानी, चित्रकारी आदि कुछ बेहतर विकल्प हो सकते हैं.
नया हुनर सीखिए: शोध बताते हैं कि दिमाग़ को किसी नए हुनर को सीखने में व्यस्त करने से शोक की तीव्रता घटाने में और खोया आत्मविश्वास वापस पाने में मदद मिलती है. वह हुनर सीखें जो आपके लिए एकदम नया हो, जैसे- कार चलाना, तैरना, बाइक चलाना, कढ़ाई करना, क्रोशिया चलाना आदि. इससे आत्मविश्वास बढ़ेगा और “मैं कर सकती हूं” का भाव मन में घर करता जाएगा.
ध्यान और स्व सुझाव मदद करेंगे: मन कितना ही अस्थिर क्यों न हो, रोज़ थोड़ा समय ध्यान के लिए अवश्य निकालें. संभव हो तो ध्यान का विधिवत प्रशिक्षण भी लिया जा सकता है. ध्यान में बैठकर अवचेतन को सुझाव देने का अभ्यास करें- मैं स्वस्थ हूं, प्रसन्न हूं, सामान्य जीवन की ओर वापस लौट रही हूं… लगातार यह अभ्यास करने से मन शांत होता जाएगा और जीवन की ओर वापस आने में मदद मिलेगी. धीरे-धीरे अकेलापन एकांत में बदलने लगेगा.
स्वास्थ्य का ध्यान रखें: दुख का सबसे नकारात्मक प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर पड़ता है. शोक की इन घड़ियों में खाना-पीना लगभग छूट-सा जाता है. लगातार तनाव और पोषक तत्वों की कमी स्वास्थ्य पर बुरा असर डालती है. अतः इस समय खान-पान पर ध्यान दें. मन हो या न हो, सामान्य भोजन ग्रहण करने में कोताही न करें. शरीर और मन दोनों को परिस्थिति से सामंजस्य बिठाने के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है इसलिए अपना विशेष ध्यान रखें.
सामाजिक दायरा बढ़ाएं: अकेलापन अपने आप में एक बड़ी समस्या है. और यह तब अधिक मुश़्किल पैदा करता है, जब एकल परिवार हो और बच्चे भी बाहर हों. ऐसे में अपने पुराने मित्रों के साथ वापस जुड़ें, सहायता समूह बनाएं, जो एक-दूसरे की मदद के लिए तत्पर रहते हों. साथ ही, जिनमें कुछ मनोरंजक गतिविधियां संचालित की जाती हों. कुछ महिलाओं ने अपने संगीत के पुराने शौक़ को जारी रखने के लिए संगीत समूहों में शिरकत की, कुछ ने सामाजिक गतिविधियों से जुड़े समूहों की सदस्यता ग्रहण कर ली. इन समूहों के सदस्य एक-दूसरे के साथ हमेशा खड़े रहते हैं और लगातार ऐसी गतिविधियों का आयोजन किया जाता है, जो उन्हें व्यस्त भी रखती हैं, साथ ही नया सीखने-समझने को भी प्रेरित करती हैं.
जीवन गतिमान रहने का ही नाम है और जब तक सांस है, आस कायम रहनी चाहिए. बेहतर यही होगा कि जो घटित हो चुका है उसे स्वीकार किया जाए, शोक से बाहर आकर मधुर स्मृतियों को संजोया जाए और जीवन के नए पड़ाव की ओर अग्रसर हुआ जाए. और याद रखा जाए कि समय सबसे बड़ा मरहम है. अपने आप को समय दें, जीवन के प्रति सकारात्मक नज़रिया रखें. धीरे-धीरे जीवन पटरी पर आएगा, जीवन में वापसी आसान होती जाएगी.
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट