जिस तरह की इन दिनों में समाज में जागरूकता है, पैरेंट्स अपनी लड़कियों को उच्चा शिक्षा दिलवा रहे हैं, युवतियां और महिलाएं नौकरी कर रही हैं उसे किसी भी समाज के लिए अच्छा ही कहा जाएगा. लेकिन इस अच्छाई के हिसाब से उनके आगे के जीवन की योजनाएं बनाने पर भी हमें उतना ही ध्यान देना होगा, अन्यथा यह अच्छाई अधूरी ही रह जाएगी. यहां हम इन पढ़ी लिखी महिलाओं की शादी से जुड़ी बात कर रहे हैं. क्या बढ़ते तलाक़ के मामलों को देखते हुए यह अच्छा न हो कि शादी से पहले ही इस बात पर भी ध्यान दिया जाए कि यदि शादी नहीं टिक सकी तो वह युवती अपना गुज़ारा कैसे करेगी? पढ़िए चंद्र भूषण का नज़रिया, जो आपको इस मुद्दे की व्यावहारिकता से रूबरू कराएगा.
अपने नज़दीकी दायरे में आनेवाले कई परिवारों में कुछ स्त्रियों को राक्षसी शक्लों में पेश किया जाता देख रहा हूं. सारे मामले सीधे तौर पर तलाक़, संपत्ति की मांग और गुज़ारा राशि से जुड़े हैं. यह भी एक संयोग है कि जिन स्त्रियों के बारे में ऐसी बातें कही जा रही हैं, वे सब पढ़ी-लिखी हैं लेकिन उनमें कोई भी नौकरी नहीं कर रही. दो-तीन साल शादी ठीक-ठाक चली, बच्चा भी हो गया, फिर किसी बात पर अनबन शुरू हुई. कुल पांच में से चार मामलों में पति के माता-पिता, भाई-बहन के व्यवहार को लेकर हैं. पांचवां मामला स्वयं पति के यौन व्यवहार से जुड़ा है, उसे फ़िलहाल छोड़ देते हैं.
तीन मामलों में स्त्री चुपचाप पति का घर छोड़कर अपने मां-बाप के घर चली गई, जबकि दो में वह गंभीर मनोरोग की शिकार हो गई. एक ने सूसाइड अटेंप्ट किया, बड़ी कोशिशों के बाद किसी तरह उसकी जान बची. दूसरी को हिंसक दौरे पड़ने लगे. उसको किसी साइकियट्रिस्ट से दिखाने की सख़्त ज़रूरत है, लेकिन यह तभी संभव है जब उसका किसी पर भरोसा हो. भारत के मध्यवर्गीय परिवारों में अचानक इतना खलल कैसे पैदा हो गया, इस बारे में मनोवैज्ञानिक मित्रों से बात की तो उन्होंने देश की पढ़ी-लिखी स्त्रियों में घर कर रही असुरक्षा को इसके लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेवार ठहराया.
मनोवैज्ञानिक हैं कारण
उनका कहना था कि पहले लड़कियां शादी करके बच्चे पालने को ही अपनी नियति मानती थीं. उनकी पढ़ाई भी इस सोच के साथ चलती थी कि इससे उन्हें बच्चे पालने में मदद मिलेगी और सोसाइटी में थोड़ी इज़्ज़त भी रहेगी. लेकिन अभी वे करियर ऐंगल से पढ़ाई कर रही हैं. अपने जीवन को लेकर उनके मन में एक खाका है, जो कुछ तो शादी के साथ ही बिगड़ जाता है. इसके बाद उनसे किसी अतिरिक्त ऐड्जस्टमेंट की मांग की जाती है तो बात सीधे दिल पर लगती है. सबसे बुरी बात यह कि उनके पास आगे-पीछे कहीं भी पैर टिकाने की जगह नहीं होती. ऐसे में उनका अंधा आक्रोश कभी झगड़े और तलाक़ की दिशा में बढ़ता है, तो कभी मनोरोग का रूप लेकर और भी भयानक परिणतियों की ओर ले जाता है.
उनकी नियमित जीविका की सुध पहले लें
अपने देश में लड़कियों को नौकरी या बिज़नेस के ज़रिए अपनी नियमित जीविका की व्यवस्था किए बग़ैर शादी करनी ही नहीं चाहिए, यह मेरी पुरानी राय रही है. लेकिन ज़्यादातर मामलों में यह बात ख़ुद में बेमानी साबित हो जाती है. लड़कियों को काम मिलने की संभावना अपने यहां लड़कों की तुलना में काफ़ी कम है. जब इतने सारे लड़के ही आज बेरोज़गारी या अर्ध-बेरोज़गारी से गुज़र रहे हैं तो सारी लड़कियों को काम पकड़ने के बाद ही शादी करने की सलाह देना उन्हें कोरा उपदेश सुनाने जैसा हुआ. और एक बार को अगर सारी लड़कियां बिना कोई काम पकड़े शादी के लिए अपनी मंज़ूरी न देने पर राजी हो जाएं तो भी, जो शादियां हो चुकी हैं, जो परिवार पहले ही बन चुके हैं, उनमें मौजूद स्त्रियों की सेहत पर इससे क्या फ़र्क़ पड़नेवाला है?
चिंता की असल वजह यह है
मैंने ऊपर जो बातें कहीं उनसे ज़ाहिर है कि चिंता की असल बात यह है कि विवाहित स्त्रियों में इतनी असुरक्षा क्यों है और इसे कम करने के लिए क्या किया जा सकता है. पश्चिमी देशों में स्त्रियां एक हद तक इस चिंता से बाहर आ चुकी हैं. अमेरिका में स्त्रियों की निजी संपत्ति 14 ट्रिलियन डॉलर है, जो वहां मौजूद कुल व्यक्तिगत संपत्ति का 51 प्रतिशत है. इसके अलावा मेरे सामने अमेरिकी स्त्री-पुरुषों की औसत (मीडियन) संपत्ति का नवीनतम आंकड़ा भी है, जिसे वहां 2011 में हुई अंतिम जनगणना से लिया गया है.
इसमें एक जगह 35 साल से कम उम्र की स्त्री के मालिकाने वाले परिवारों की औसत संपत्ति 1392 डॉलर, जबकि इसी आयु वर्ग के पुरुष मालिकाने वाले परिवारों की औसत संपत्ति 6200 डॉलर बताई गई है. यह आंकड़ा 55 से 64 वर्ष आयु वर्ग के स्त्री और पुरुष मालिकाने वाले परिवारों में सीधा पलट कर क्रमश: 61,879 डॉलर और 55,718 डॉलर हो गया दिखता है. इस चमत्कार की वजह यह तो नहीं हो सकती कि 35 से 55 साल के बीच अमेरिकी स्त्रियों की आमदनी पुरुषों की तुलना में जादुई ढंग से बढ़ जाती है!
फिर दूसरी वजह क्या हो सकती है? रोज़गार और कारोबार की बेहतर स्थितियों और सामाजिक पूर्वाग्रहों के अभाव के अलावा जो चीज़ अमेरिकी स्त्रियों को सबसे ज़्यादा मदद पहुंचाती है, वह यह कि इस आयु वर्ग में आने तक वे एक-दो विवाह बंधनों के टूट जाने पर उनसे एलिमोनी हासिल कर चुकी होती हैं. हम भारत के लोगों के लिए बात अटपटी है, लेकिन यह निर्वाह निधि उन्हें पकी उम्र में अपनी योग्यता-क्षमता के भरपूर उपयोग का मौक़ा देती है. इसके बरक्स भारत में लोग-बाग बेटी की शादी पर पचीस-पचास लाख रुपये यूं उड़ा देते हैं, लेकिन एक बार भी नहीं सोचते कि कल को अगर शादी नहीं चली तो इसी बेटी को दस-बीस हज़ार रुपये के घर ख़र्च के लिए अदालत की ठोकरें खानी पड़ेंगी.
तो इन बातों का सार क्या है?
तात्पर्य यह कि स्त्रियों को अगर ज़िदगीभर असुरक्षा के पिंजड़े में क़ैद हो जाने की नियति से बचाना है तो सारी बातें शादी से पहले ही साफ़ हो जानी चाहिए. शादी की तैयारी में जुटी लड़की को पक्का पता होना चाहिए कि किसी वजह से उसका यह नया रिश्ता नहीं चल पाया तो स्थायी संपत्ति और नियमित गुज़ारा राशि के रूप में उसे अपने मायके और ससुराल से कम से कम इतनी रकम ज़रूर मिल जाएगी. इसके बिना विवाह में स्त्रियों की दशा दो अनजान कुनबों के बीच खेले जा रहे जुए में दांव पर लगी चीज़ जैसी ही बनी रहेगी.
फ़ोटो: गूगल
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