कभी सोच कर देखा है आपने कि जो चीज़ें प्रकृति ने हमें मुफ़्त ही बहुलता में दी हैं, जैसे- हवा, पानी और धूप, आख़िर वे इन दिनों सिमटती क्यों जा रही हैं? कहीं विकास को पिता बनाने की क़ीमत पर हम अपनी प्रकृति माता से दूरी बना कर अपनी, अपने बुज़ुर्गों और बच्चों की उम्र बीमारियों के गुलदस्ते से तो नहीं सजा रहे हैं? इसी संजीदा और लोकहित के मुद्दे पर जानें पंकज मिश्र का नज़रिया. जिसे पढ़ कर आप विकास के दूसरे पहलू से रूबरू होंगे, अपने जीवन पर उसके असर को महसूस करेंगे और संभवत: इस अंधाधुंध विकास के पैरोकार नहीं रह सकेंगे.
वो ख़ुशकिस्मत हैं, जिनके छत, आंगन या बरामदे में अब भी धूप बची है. धूप का एक टुकड़ा भी अगर सुबह से शाम तक मयस्सर है तो ही नया साल मुबारक है, वरना अपनी हदों में तो सब कुछ वही है और हमारे विस्तार की यह हद भी साल दर साल सिकुड़ती जा रही है.
धूप को कसौटी इसलिए बनाया कि 90’ के दशक से जिस तरह का विकास हो रहा है, उससे जिन तीन चीज़ों की सप्लाई में निरन्तर कमी आ रही है वे हैं: धूप हवा और पानी. आपने फ़्लैट लिया हो या प्लॉट, वह किराए का हो निजी, जो चीज़ आपके कन्ट्रोल में बिल्कुल भी नहीं है, वो यही तीन नेमतें हैं, जिन्हें मदर नेचर ने इफ़रात दिया था, मगर फ़ादर डेवलपमेंट लगातार छीनते जा रहे हैं.
डेवलपमेंट का यह मॉडल हमे लगातार प्रकृति से अलग कर रहा है. मनुष्य को मनुष्य से, खग, मृग, मधुकर यानी सारी प्राणवान श्रेणियों से अलग कर रहा है. और यह हमें जोड़ किससे रहा है? सिर्फ़ बाज़ार से और वहां बिकने वाली वस्तुओं से.
विकास, प्रकृति से मनुष्य को विलग कर उसे बाज़ार पर निर्भर कर देने की साज़िश का नाम है. हम प्रकृति की ईकोलॉजी का हिस्सा है और हमें ज़बर्दस्ती बाज़ार के ईकोसिस्टम में काट-छांट के, रन्दा मार के फ़िट करने की कोशिश की जा रही है.
कब आपके सिंगल स्टोरी मकान के बगल चार मंज़िला इमारत खड़ी हो जाए, आपके अपार्टमेंट के आगे का सारा जंगल काट के कंक्रीट का जंगल उग आए और आपकी हवा, पानी, धूप सब छीन ले आप नहीं जानते. वो अचानक आपके बगल में मेट्रो की खुदाई और दूसरी तरफ़ फ़्लाइओवर की ढलाई दो साल से चालू है और इधर सात साल की आपकी बिटिया और 70 साल के बूढ़े बाप दोनों अस्थमा से मरे जा रहे हैं. मगर आप तो ख़ुश हैं और बधाई ले रहे हैं कि आपके बगल से मेट्रो की लाइन गुज़र रही है, उधर तब तक आपके बूढ़े मां-बाप भी पलूशन से गुज़र चुके होंगे. यह चौतरफ़ा विकास है.
आबादी को कोसने वाले, कभी आबादी बढ़ने की रफ़्तार देख लें और जीवन की बर्बादी की ग्रोथ रेट देख लें, तब पता चलेगा कि विकास को बाप बनाने की क़ीमत अपने आपको अपने मां-बाप को और बच्चों की ज़ेहनी और जिस्मानी सेहत खो कर दे रहे हैं. आज हम लंबी आयु नहीं प्राप्त कर रहे हैं, आज हम अपनी बीमारियों का इलाज कर कर के उम्र लंबी कर पा रहे हैं. असल में हम बीमारियों के गुलदस्ते से उम्र सजाए बैठे हैं, मगर कब तक?
फ़ोटो: फ्रीपिक