हर संवेदनशील इंसान जीवन में कभी न कभी ईश्वर की तलाश करता है. उसके अस्तित्व से जुड़े सवाल पूछता है. वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी ‘ईश्वर का प्रश्न’ नामक कविता से अपने ईश्वर से संवाद कर रहे हैं.
ईश्वर तुम शब्द हो कि वाक्य हो?
अर्द्धविराम हो या पूर्णविराम?
संबोधन हो या प्रश्नचिह्न?
न्याय हो या न्यायशास्त्री?
जन्म हो कि मृत्यु
या तुम बीच की उलझन में निरा संभोग हो
तुम धर्म हो कि कर्म हो
या कि तुम सिर्फ़ एक कला हो रोग हो
ईश्वर तुम फूलों जैसे हो या ओस जैसे
चलने में तुम कैसे हो
दो पैरोंवाले? चार पैरोंवाले या सिक्के जैसे?
एक पुरानी कहानी में खड़े हो तुम तीन पैरों से
अच्छे नहीं लगते चार हाथ और तीन पैर
तुम चतुरानन हो या पंचानन
(आख़िर तुम्हारा कोई असली चेहरा तो होगा)
हे ईश्वर तुम गर्मी हो या जाड़ा
अंधेरा हो या उजाला?
अन्न हो कि गोबर हो?
ईश्वर तुम आश्चर्य हो कि विस्मय?
भीतर के अंधेरे में आंख से पहुंचते हो या नाक से?
कान से पहुंचते हो या उत्पीड़न से?
आंख से पहुंचते हैं रंग
नाक से गंध कान से पहुंचती हैं ध्वनियां
त्वचा से पहुंचते हैं स्पर्श
हे ईश्वर तुम इंद्रियों के आचरण में हो या मन के उच्चारण में?
हे ईश्वर तुम सदियों से यहां क्यों नहीं हो
जहां तुम्हारी सबसे ज़्यादा और प्रत्यक्ष ज़रूरत है
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