हमें पता ही नहीं चला कि कब बाज़ार के दबाव में अभिभावकों और बच्चों को एक ऐसे एजुकेशन सिस्टम का हिस्सा बना दिया गया, जहां बच्चे बजाय अपने प्राकृतिक स्वरूप में बढ़ने के, गमलों में और नियंत्रित वातावरण में बढ़ रहे हैं, जिसकी वजह से वे अवसाद का शिकार हो रहे हैं और कई बार तो नतीजे अच्छे न आने पर आत्महत्या तक कर लेते हैं. जबकि बच्चों के लिए एक ऐसी शिक्षा प्रणाली होनी चाहिए, जहां वे जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव को पार करने में सक्षम बन सकें. पंकज मिश्र इस बात की पड़ताल करते हुए बता रहे हैं कि अब स्थितियों को कैसे बदला जा सकता है.
सब कुछ दो ध्रुवों पर स्थित नहीं होता. ध्रुवों पर सिर्फ़ बर्फ़ होती है. हड्डियों को जमा देने वाली, जहां सहज रूप में मनुष्य का जीवन असंभव है. प्रकृति ने वहां जीने के लिए अलग किस्म के प्राणियों की रचना की है, वह मनुष्यों के लिए नहीं है.
सौ प्रतिशत और शून्य प्रतिशत यही दो ध्रुव हैं. यह दोनों सामान्य स्थितियां नहीं हैं. मानव समाज इनके बीच फलता फूलता है. न तो कक्षाओं में फ़ेल होते जाना ही अच्छा है और न टॉपर बनने की सनक ही अच्छी है. यह दोनों अतियां ही हैं, जिनका गुणगान बच्चों और किशोरों के लिए पूर्णतः प्रतिकूल है.
सबसे ख़राब वह एजुकेशन सिस्टम है, जो इस प्रक्रिया को प्रोत्साहित करता है. किसी ज़माने मे उत्तर प्रदेश बोर्ड का परीक्षाफल 60 फ़ीसदी छात्रों को फ़ेल कर देता था. इतने कड़े मानदंड. आज पांच फ़ीसदी भी फ़ेल नहीं होते और 100% पाने वाले स्टूडेंट्स भी चकित नहीं करते. यह सब अत्यंत भयावह संकेतक है. ज़्यादा फ़ेल करने से भी ज़्यादा ख़तरनाक है, बच्चों को उनकी क्षमता से ज़्यादा सिद्ध कर उनके भीतर एक खोखले आत्मविश्वास का निर्माण.
यह उन्हें जीवन मे आने वाले उतार-चढ़ाव को पार करने में अक्षम बना कर पंगु बना देगा. यही, प्रतिकूल परिस्थितियों में उन्हें अवसाद ग्रस्त करेगा, शिखर पर न रह सकने के दबाव में हमेशा दुखी रखेगा और उनमें से बहुतों को आत्महत्या के लिए प्रेरित करेगा. सत्ता के लिए यह बेहद मुफ़ीद स्थितियां है कि वह लोगो को ज़िंदगी भर एक के बाद एक झूठा दिलासा देकर बहलाती रहे.
अरे कभी तो सोचिए कि उदारीकरण के एक दशक बाद, जब उसके विकार लोगों के सामने आने लगे, लगभग तब से ही क्यों अचानक मार्किंग पैटर्न बदला? और वह भी इसी लुभावने तर्क से कि फ़ेल होना और कम नम्बर लाना बच्चों को हतोत्साहित और कुंठित करता है. लिहाजा इसमें परिवर्तन करने की ज़रूरत है. तर्क तो अच्छा था, पर सतह का सत्य, सार का भी सत्य हो यह ज़रूरी तो नहीं.
सतह और सार के बीच के अंतर के विश्लेषण के लिए तो सिस्टम ने हमे कभी प्रशिक्षित ही नहीं किया, क्योंकि सबसे ख़तरनाक तो विश्लेषण कर पाने वाला दिमाग़ ही होता है… तो इसे गर्भ में ही मार दो… मार दिया. बाज़ार समस्या और उसका समाधान दोनों ही प्लेट पर रखकर परोस देता है और हम वही भकोस लेते हैं.
बाज़ार करता क्या है? बाज़ार का गणित जब आपके जीवन का समीकरण सुलझाने में अक्षम होने लगता है तो वह पुनः मिथ्या आत्मविश्वास और उसके झूठे समाधान प्रस्तुत कर देता है, जिसकी तथाकथित पैकेजिंग लुभावनी होती है (सतह का सत्य) लिहाज़ा इधर आप ने उसका ऑफ़र ख़ुद बढ़कर स्वीकार किया, उधर उसने ख़ुद को और मज़बूत बना लिया. आपके हितसाधन के नाम पर जिस तर्क को लेकर आपके सामने नई योजना प्रस्तावित करता है और आप ख़ुशी-ख़ुशी उसका हिस्सा बनते जाते हैं. दरअसल, यह उसके बड़े गेम प्लान का हिस्सा ही होता है जो वह आपको भरोसे में लेकर करता है.
वह ज़मीन के भीतर का पानी गंदा करेगा और फिर वॉटर प्यूरिफ़ायर की दुकान खोल लेगा. वह पर्यावरण दूषित करेगा और बगल में खड़ा होकर ऑक्सिजन सिलेंडर बेचने लगेगा. चित भी, पट भी और अंटा भी, सब उसका. वह एक बड़े कसिनो का मालिक है, जो हमेशा फ़ायदे में रहता है मगर जुए में जीतने की झूठी उम्मीद से आप लबरेज़ रहते है. कैसी ग़ज़ब की विडंबना और कितनी आकर्षक पेशबन्दी.
इसे इस उदाहरण से समझिए, जैसे- सफ़ाई होनी चाहिए कि नहीं? आप कहेंगे- होनी चाहिए. तो दीजिए 2% स्वछता सेस , वह सेस जाएगा बड़ी-बड़ी सफ़ाई करने वाली कम्पनियों को. कभी पूछ लीजिएगा वो भगवा और पीले कपड़ो में लैस ट्रेन साफ़ करने के नाम पर आपसे फ़ीडबैक भरवाने वालों से कि तुम्हे 4000 रु मिलते हैं कि 6000 रुपए? और तुम जनरल डिब्बों में कितना जाते हो? फिर पता कीजिएगा कि रेलवे ने यह ठेका किस कम्पनी को किस क़ीमत पर दिया है. वह क़ीमत आपके होश उड़ा देगी. ठेकेदार का वह आदमी अब किसी भी तरह के सर्विस प्रोटेक्शन से महरूम है. तो यह है आपकी साफ़-सफ़ाई की नैसर्गिक भावना का दोहन जिसे न तब आपने समझा और अब तो ख़ैर आपका अभ्यास हो चुका है.
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में तेल का दाम इस समय बहुत कम है और आपके बाज़ार में पहले की तुलना में सबसे अधिक. ऐसा क्यों? शुरू-शुरू में जब इसे लेकर थोड़ा शोर हुआ तो संकोचन ही व्हट्सएप यूनिवर्सिटी के फ़र्जी फ़ॉर्वर्ड्स के ज़रिए आपको समझाया जाता था कि इतने बिलियन आईएमएफ़ का लोन, इतने अरब रु का वर्ल्ड बैंक का लोन चुकता करने में ख़र्च हो रहा है. फिर , धीरे-धीरे ऐसे फ़ॉर्वर्ड्स बन्द हो गए और साथ ही आपकी जिज्ञासा भी. क्यों भला? कभी सोचा कि कब और क्यों तेल के इस लुटेरे खेल को आप तार्किक तरीक़े से डीकोड करने के बजाए इसे नियति मान कर स्वीकार करने लग गए? नहीं सोचा तो सोचिए.
अब पुनः मुद्दे पर आ जाइए, ठीक इसी तरह बच्चों और उनके अभिभावक लोगों के लिए दबाव और अकुंठ छात्र निर्माण के तर्क पर यह नंबर पैटर्न बदला. टॉपर्स को विज्ञापित कर कर के उनके प्रति एक आकर्षण पैदा किया गया और धीरे-धीरे, कोचिंग संस्थानों, काउंसलिंग सेशन्स, मोटिवेटर्स, प्राइवेट स्कूलों का एक जाला आपके आस पास बनने लगा और आप कब उसमे फंस गए न आपको, न बच्चों को यह पता चला.
कोचिंग संस्कृति ने पूरे स्कूल सिस्टम को ध्वस्त कर दिया. फिर आया हाइब्रिड स्कूल, मतलब कोचिंग भी और स्कूलिंग भी, यह कोचिंग संस्थानों का नया आइडिया था कि औपचारिक स्कूलिंग के प्रति जो अभिभावकीय आग्रह किंचित मात्र भी शेष बचा हो तो उसकी काट निकाल कर वह परिपूर्ण संस्कार शेष आग्रह की भी भ्रूण हत्या कर दी जाए. इसी तरह कोरोना काल ने भी एक नए बाज़ार की संभावना को जन्म दिया, जहां शिक्षा छोड़िए, अंतर्वैयक्तिक संव्यवहार के भी ख़त्म होने का अंदेशा है.
जैसे नाली में पड़े टुन्न शराबी को नाली की हक़ीक़त नहीं मालूम चलती. हम सबको निरन्तर मदहोश कर के ऐसे ही बजबजाते नरक में धकेल कर उससे अनुकूलित कर दिया गया है.
बिना इन कोचिंग संस्थानों के भी आईआईटी में बच्चे आते थे, एम्स के सारे डॉक्टर कोचिंग के बगैर वाले ही हैं अभी भी. तब अपरिष्कृत प्रतिभा मिलती थी, जो ज़्यादा बेहतर स्थिति थी. अब सिखाई हुई प्रतिभा यानी ट्यूटर्ड टैलेंट है जो बहुत नाज़ुक होता है,क्योंकि वह प्रतिभा फल स्वाभाविक रूप में नहीं पका है. वह कोटा के कोचिंग के कार्बाइड में ज़बरदस्ती पकाया गया है.
ख़ैर, अब हालात यह हैं कि हमारे आपके अकेले अकेले चेतन से कुछ नहीं होगा. हम सारे अभिभावकों को यह जागरूकता पैदा करनी होगी और सरकार को बताना होगा कि कोई भी ऐसा एजुकेशन सिस्टम हमें नहीं चाहिए जो बच्चों के लिए ध्रुवों का निर्माण करे. हम अपने बच्चों को बिल्कुल नियंत्रित वातावरण में, गमलों में बड़ा नहीं करना चाहते. हम चाहते हैं हमारे बच्चे उस तरह बढ़ें, जैसे जंगल में बढ़ते हैं पेड़…
फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट