गोपालदास सक्सेना ‘नीरज’ की कविताओं, गीतों और ग़ज़लों में जीवन का फ़लसफ़ा होता है. उनकी यह रचना भी जीवन के छोटे-छोटे किंतु अनिवार्य विरोधाभासों को व्यक्त करती है.
जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला,
मेरे स्वागत को हर एक जेब से खंजर निकला
तितलियों फूलों का लगता था जहां पर मेला,
प्यार का गांव वो बारूद का दफ़्तर निकला
डूब कर जिसमे उबर पाया न मैं जीवन भर,
एक आंसू का वो कतरा तो समुंदर निकला
मेरे होंठों पे दुआ उसकी जुबां पे ग़ाली,
जिसके अन्दर जो छुपा था वही बाहर निकला
ज़िंदगी भर मैं जिसे देख कर इतराता रहा,
मेरा सब रूप वो मिट्टी की धरोहर निकला
वो तेरे द्वार पे हर रोज़ ही आया लेकिन,
नींद टूटी तेरी जब हाथ से अवसर निकला
रूखी रोटी भी सदा बांट के जिसने खाई,
वो भिखारी तो शहंशाहों से बढ़ कर निकला
क्या अजब है इंसान का दिल भी ‘नीरज’
मोम निकला ये कभी तो कभी पत्थर निकला
Illustration: Pinterest