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ओए अफ़लातून
Home बुक क्लब कविताएं

जनता का आदमी: आलोक धन्वा की कविता

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
October 3, 2022
in कविताएं, बुक क्लब
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Alok-Dhanwa_Kavita_Janta-ka-aadmi
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एक कवि की दुविधा, कर्तव्य, सीमा और पीड़ा को व्यक्त करती आलोक धन्वा की लंबी रचना ‘जनता का आदमी’ एक सिरे से शुरू होकर न जाने कितनी दुनियाओं की सैर करा देती है. कई पूरे और अधूरे बिंब बनाती यह कविता अपने प्रयोगधर्मी अंदाज़ और सटीक कहन के चलते दिल के अंदर गहरे उतर जाती है.

बर्फ़ काटने वाली मशीन से आदमी काटने वाली मशीन तक
कौंधती हुई अमानवीय चमक के विरूद्ध
जलतें हुए गांवों के बीच से गुज़रती है मेरी कविता
तेज़ आग और नुकीली चीख़ों के साथ
जली हुई औरत के पास
सबसे पहले पहुंचती है मेरी कविता;
जबकि ऐसा करते हुए मेरी कविता जगह-जगह से जल जाती है
और वे आज भी कविता का इस्तेमाल मुर्दागाड़ी की तरह कर रहे हैं
शब्दों के फेफड़ों में नए मुहावरों का ऑक्सीजन भर रहे हैं,
लेकिन जो कर्फ़्यू के भीतर पैदा हुआ,
जिसकी सांस लू की तरह गर्म है
उस नौजवान ख़ान मज़दूर के मन में
एक बिल्कुल नई बंदूक़ की तरह याद आती है मेरी कविता
जब कविता के वर्जित प्रदेश में
मैं एकबारगी कई करोड़ आदमियों के साथ घुसा
तो उन तमाम कवियों को
मेरा आना एक अश्लील उत्पात-सा लगा
जो केवल अपनी सुविधा के लिए
अफ़ीम के पानी में अगले रविवार को चुरा लेना चाहते थे
अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है
भाषा और लय के बिना, केवल अर्थ में
उस गर्भवती औरत के साथ
जिसकी नाभि में सिर्फ़ इसलिए गोली मार दी गई
कि कहीं एक ईमानदार आदमी पैदा न हो जाए

सड़े हुए चूहों को निगलते-निगलते
जिनके कंठ में अटक गया है समय
जिनकी आंखों में अकड़ गए हैं मरी हुई याद के चकत्ते
वे सदा के लिए जंगलों में बस गए हैं
आदमी से बचकर
क्योंकि उनकी जांघ की सबसे पतली नस में
शब्द शुरू होकर
जांघ की सबसे मोटी नस में शब्द समाप्त हो जाते हैं
भाषा की ताज़गी से वे अपनी नीयत को ढंक रहे हैं
बस एक बहस के तौर पर
वे श्रीकाकुलम जैसी जगहों का भी नाम ले लेते हैं,
वे अजीब तरह से सफल हुए हैं इस देश में
मरे हुए आदमियों के नाम से
वे जीवित आदमियों को बुला रहे हैं

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वे लोग पेशेवर ख़ूनी हैं
जो नंगी ख़बरों का गला घोंट देते हैं
अख़बार की सनसनीख़ेज़ सुर्ख़ियों की आड़ में
वे बार-बार उस एक चेहरे के पालतू हैं
जिसके पेशाबघर का नक़्शा मेरे गांव के नक़्शे से बड़ा है

बर्फ़ीली दरारों में पाई जाने वाली
उजली जोंकों की तरह प्रकाशन संस्थाएं इस देश की
हुगली के किनारे आत्महत्या करने के पहले
क्यों चीख़ा था वह युवा कवि,‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’
उसकी लाश तक जाना भी मेरे लिए संभव नहीं हो सका
कि भाड़े पर लाया आदमी उसके लिए नहीं रो सका
क्योंकि इसे सबसे पहले
आज अपनी असली ताक़त के साथ हमलावर होना चाहिए

हर बार कविता लिखते-लिखते
मैं एक विस्फोटक शोक के सामने खड़ा हो जाता हूं
कि आख़िर दुनिया के इस बेहूदे नक़्शे को
मुझे कब तक ढोना चाहिए,
कि टैंक के चेन में फंसे लाखों गांवों के भीतर
एक समूचे आदमी को कितने घंटों तक सोना चाहिए?

कलकत्ते के ज़ू में एक गैंडे ने मुझसे कहा
कि अभी स्वतंत्रता कहीं नहीं हैं, सब कहीं सुरक्षा है
राजधानी के सबसे सुर‍क्षित हिस्से में
पाला जाता है एक आदिम घाव
जो पैदा करता है जंगली बिल्लियों के सहारे पाशविक अलगाव
तब से मैंने तय कर लिया है
कि गैंडे की कठिन चमड़ी का उपयोग युद्ध के लिए नहीं
बल्कि एक अपार करूणा के लिए होना चाहिए

मैं अभी मांस पर खुदे हुए अक्षरों को पढ़ रहा हूं
ज़हरीली गैसों और खूंखार गुप्तचरों से लैस
इस व्यवस्था का एक अदना सा आदमी
मेरे घर में किसी भी समय ज़बर्दस्ती घुस आता है
और बिजली के कोड़ों से
मेरी मां की जांघ
मेरी बहन की पीठ
और मेरी बेटी की छातियों को उधेड़ देता है,
मेरी खुली आंखों के सामने
मेरे वोट से लेकर मेरी प्रजनन शक्ति तक को नष्ट कर देता है,
मेरी कमर में रस्से बांध कर
मुझे घसीटता हुआ चल देता है,
जबकि पूरा गांव इस नृशंस दृश्य, को
तमाशबीन की तरह देखता रह जाता है
क्योंकि अब तक सिर्फ़ जेल जाने की कविताएं लिखी गईं
किसी सही आदमी के लिए
जेल उड़ा देने की कविताएं पैदा नहीं हुईं

एक रात
जब मैं ताज़े और गर्म शब्दों की तलाश में था
हज़ारों बिस्तरों में पिछले रविवार को पैदा हुए बच्चे निश्चिंत सो रहे थे,
उन बच्चों की लम्बाई
मेरी कविता लिखने वाली क़लम से थोड़ी-सी बड़ी थी
तभी मुझे कोने में वे खड़े दिखाई दे गए, वे खड़े थे-कोने में
भरी हुई बंदूक़ों की तरह, सायरानों की तरह, सफ़ेद चीते की तरह,
पाठ्यक्रम की तरह, बदबू और संविधान की तरह
वे अभिभावक थे,
मेरी पकड़ से बाहर-क्रूर परजीवी,
उनके लिए मैं बिलकुल निहत्था था
क्योंकि शब्दों से उनका कुछ नहीं बिगड़ता है
जब तक कि उनके पास सात सेंटीमीटर लम्बी गोलियां हैं
रायफ़लों में तनी-पड़ी
वे इन बच्चों को बिस्तरों से उठाकर
सीधे बारूदख़ाने तक ले जाएंगे
वे हर तरह की कोशिश करेंगे
कि इन बच्चों से मेरी जान-पहचान न हो
क्योंकि मेरी मुलाक़ात उनके बारूदख़ाने में आग की तरह घुसेगी
मैं गहरे जल की आवाज़-सा उतर गया
बाहर हवा में, सड़क पर
जहां अचानक मुझे फ़ायर स्टेशन के ड्राइवरों ने पकड़ लिया और पूछा
आख़िर इस तरह अक्षरों का भविष्य क्या होगा?
आख़िर कब तक हम लोगों को दौड़ते हुए दमकलों के सहारे याद किया जाता रहेगा?
उधर युवा डोमों ने इस बात पर हड़ताल की
कि अब हम श्मशान में अकाल-मृत्यु के मुर्दों को
सिर्फ़ जलाएंगे ही नहीं
बल्कि उन मुर्दों के घर तक जाएंगें
अक्सर कविता लिखते हुए मेरे घुटनों से
किसी अज्ञात समुद्र-यात्री की नाव टकरा जाती है
और फिर एक नए देश की खोज शुरू हो जाती है
उस देश का नाम वियतनाम ही हो यह कोई ज़रूरी नहीं
उस देश का नाम बाढ़ मे बह गए मेरे पिता का नाम भी हो सकता है,
मेरे गांव का नाम भी हो सकता है
मैं जिस खलिहान में अब तक
अपनी फ़सलों, अपनी पंक्तियों को नीलाम करता आया हूं
उसके नाम पर भी यह नाम हो सकता है
क्यों पूछा था एक सवाल मेरे पुराने पड़ोसी ने
मैं एक भूमिहीन किसान हूं,
क्या मैं कविता को छू सकता हूं?
अबरख़ की ख़ान में लहू जलता है जिन युवा स्तनों और बलिष्ठ कंधों का
उन्हें अबरख़ ‘अबरख़’ की तरह
जीवन में एक बार भी याद नहीं आता है
क्यों हर बार आम ज़िंदगी के सवाल से
कविता का सवाल पीछे छूट जाता है?

इतिहास के भीतर आदिम युग से ही
कविता के नाम पर जो जगहें ख़ाली कर ली जाती हैं
वहां इन दिनों चर्बी से भरे हुए डिब्बे ही अधिक जमा हो रहे हैं,
एक गहरे नीले कांच के भीतर
सुकान्त की इक्कीस फ़ीट लंबी तड़पती हुई आंत
निकाल कर रख दी गई है,
किसी चिर विद्रोह की रीढ़ पैदा करने के लिए नहीं
बल्कि कविता के अज़ायबघर को
पहले से और अजूबा बनाने के लिए
असफल, बूढ़ी प्रेमिकाओं की भीड़ इकट्ठी करने वाली
महीन तम्बाकू जैसी कविताओं के बीच
भेड़ों की गंध से भरा मेरा गड़रिए-जैसा चेहरा
आप लोगों को बेहद अप्रत्याशित लगा होगा,
उतना ही
जितना साहू जैन के ग्ला‍स-टैंक में
मछलियों की जगह तैरती हुई गजानन माधव मुक्तिबोध की लाश

बम विस्फोट में घिरने के बाद का चेहरा मेरी ही कविताओं में क्यों है?
मैं क्यों नहीं लिख पाता हूं वैसी कविता
जैसी बच्चों की नींद होती है,
ख़ान होती है,
पके हुए जामुन का रंग होता है,
मैं वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाता
जैसी मां के शरीर में नए पुआल की महक होती है,
जैसी बांस के जंगल में हिरन के पसीने की गंध होती है,
जैसे ख़रगोश के कान होते हैं,
जैसे ग्रीष्म के बीहड़ एकांत में
नीले जल-पक्षियों का मिथुन होता है,
जैसे समुद्री खोहों में लेटा हुआ खारा कत्थईपन होता है,
मैं वैसी कविता क्यों नहीं लिख पाता
जैसे हज़ारों फ़ीट की ऊंचाई से गिरनेवाले झरने की पीठ होती है?
हाथी के पैरों के निशान जैसे गंभीर अक्षरों में
जो कविता दीवारों पर लिखी होती है
कई लाख हलों के ऊपर खुदी हुई है जो
कई लाख मज़दूरों के टिफ़िन कैरियर में
ठंढी, कमज़ोर रोटी की तरह लेटी हुई है जो कविता?

एक मरे हुए भालू से लड़ती रहीं उनकी कविताएं
कविता को घुड़दौड़ की जगह बनाने वाले उन सट्टेबाज़ों की
बाज़ी को तोड़ सकता है वही
जिसे आप मामूली आदमी कहते है;
क्योंकि वह किसी भी देश के झंडे से बड़ा है
इस बात को वह महसूस करने लगा है,
महसूस करने लगा है वह
अपनी पीठ पर लिखे गए सैकड़ों उपन्यासों,
अपने हाथों से खोदी गई नहरों और सड़कों को

कविता की एक महान सम्भावना है यह
कि वह मामूली आदमी अपनी कृतियों को महसूस करने लगा है
अपनी टांग पर टिके महानगरों और
अपनी कमर पर टिकी हुई राजधानियों को
महसूस करने लगा है वह
धीरे-धीरे उसका चेहरा बदल रहा है,
हल के चमचमाते हुए फाल की तरह पंजों को
बीज, पानी और ज़मीन के सही रिश्तों को
वह महसूस करने लगा है
कविता का अर्थ विस्तार करते हुए
वह जासूसी कुत्तों की तरह शब्दों को खुला छोड़ देता है,
एक छिटकते हुए क्षण के भीतर देख लेता है वह
ज़ंजीर का अकेलापन,
वह जान चुका है
क्यों एक आदिवासी बच्चा घूरता है अक्षर,
लिपि से डरते हुए,
इतिहास की सबसे घिनौनी किताब का राज़ खोलते हुए

Illustration: Pinterest

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