बेहतर अवसर की तलाश में अपने गांव को छोड़कर शहरों की ओर रुख़ करना ज़्यादातर लोगों की मजबूरी होती है. अपनी जानी-पहचानी पगडंडी यानी कच्ची सड़क को छोड़कर अनजानी पक्की सड़क पर पैर रखने की असहजता बताती है कवि अरुण चन्द्र रॉय की कविता ‘कच्ची सड़क’.
कच्ची सड़कों को छोड़
जब चढ़ता हूं
पक्की सड़क पर
पीछे छूट जाती है
मेरी पहचान
मेरी भाषा
मेरा स्वाभिमान!
कच्ची सड़क में बसी
मिट्टी की गन्ध से
परिचय है वर्षों का
कंक्रीट की गन्ध
बासी लगती है
और अपरिचित भी
अपरिचितों के देश में
व्यर्थ मेरा श्रम
व्यर्थ मेरा उद्देश्य
लौट-लौट आता हूं मैं हर बार
पीठ पर लिए चाबुक के निशान
मनाने ईद, तीज-त्यौहार
कहां मैं स्वतन्त्र
मैं हूं अब भी ग़ुलाम
जो मुझे छोड़नी पड़ती है
कच्ची सड़क!
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