‘तुम से पहले जो इक शख़्स यहां तख़्त-नशीं था, उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था’ अपनी इन पंक्तियों से दुनिया के हर तानाशाह के दिल की बेचैनी बढ़ानेवाले पाकिस्तान के मशहूर शायर हबीब जालिब की रचना ‘कहां क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं’ भी उतनी ही प्रभावशाली है.
कहां क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं
अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं
बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीरां
न पूछो हाले चारां शाम को जब साए ढलते हैं
वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुंचती है
न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं
कहां तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम
चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल1 निकलते हैं
हमेशा औज पर देखा मुक़द्दर उन अदीबों का
जो इब्नुलवक़्त2 होते हैं हवा के साथ चलते हैं
हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया ‘जालिब’
कि दीप ऊंचे मकानों में हमारे ख़ूं से जलते हैं
1. क़त्लगाह की तरफ़
2. मौक़ापरस्त
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