बात उस फ़ेसबुक फ़ोटो से शुरू हुई जिसे एक सिंगल मदर ने पोस्ट किया, जिसमें वह बाथरूम में कमोड पर बैठी है और दरवाज़ा खुला हुआ है, ताकि वह बाहर बैठे अपने बच्चे पर नज़र रख सके. मातृत्व की कठिनाइयों को ज़ाहिर करने और मातृत्व का महिमामंडन न कर मांओं को सामान्य मनुष्य मानने की बात करती इस तरह की फ़ोटो का सोशल मीडिया पर आना कई लोगों को असहज कर गया. कई लोगों ने पोस्ट करने वाली महिलाओं के समर्थन में लिखा तो कइयों ने उसका विरोध भी किया. इस संदर्भ में कनुप्रिया की फ़ेसबुक वॉल पर लिखा गया उनका नज़रिया, जो हमें ज़्यादा सार्थक लगा, जो यहां आपके लिए प्रस्तुत है.
क्या वाक़ई आपने शौच जाती स्त्रियां नही देखी हैं? तो ट्रेन में सेकेंड क्लास से दिल्ली या किसी भी अन्य महानगर में जाइए. खिड़की से बाहर झांकिए आपको ऐसी स्त्रियां नॉर्मली दिख ही जाएंगी. अगर मध्यम वर्ग की स्त्री पैरेंटिंग में सहयोग की लड़ाई लड़ रही है और उस लड़ाई के लिए अपनी निजता का हनन तक करके अपनी बात पहुंचाना चाहती है तो उन स्त्रियों के पास तो निजता का विकल्प भी नहीं है, वो मजबूर हैं आपके समाज की सारी शर्म हया को त्याग कर खुले में शौच जाने के लिए.
सरकार करोड़ों अरबों रुपए में “खुले में शौच न जाइए” का विज्ञापन करवाकर ख़ुद को जन हितैषी साबित करवा लेती है, उस विज्ञापन से कहीं कम लागत में उसके बनवाए उसके शौचालय राहत से अधिक जनता का मज़ाक उड़ाते नज़र आते हैं. देश का महानायक अपनी फ़ीस वसूल कर जनता को समझाता है कि शौचालय बनवाइए और स्त्री को शुचिता सिखाने वाले भक्तगण चिल्लाते हैं कि जनता ख़ुद ही अपनी निजता नही चाहती. उसे खुले में शौच का शौक है. किसे परवाह है कि जाकर देखे पूछे कि शौचालय बनवाने का ज्ञान जिन्हें दिया जा रहा है, उनके पास शौचलय बनवाने के पैसे और जगह भी है या नहीं, यह उनकी मजबूरी है या चॉइस?
सरकार कहती है बिज़नेस करना उसका काम नहीं, ठीक बात है. अगर वो महज़ शौचालयों पर ही फ़ोकस करती और उसे वाक़ई खुले में शौच न किए जाने की इतनी फ़िक्र होती तो देश के सार्वजनिक शौचालयों को स्थिति ही सुधारकर बता देती, कम से कम अपनी महान संस्कृति की ख़ातिर ही स्त्रियों के लिये सार्वजनिक शौचालयों की बेहतर व्यवस्था का प्रबंध करती, यह तो सरकार का काम है न?
मगर हमारी आदत है कि हम व्यक्तियों पर अटैक करते हैं, जिनकी प्रभावित करने की क्षमता बेहद सीमित है और उस सिस्टम को बरी करते हैं जो पूरी जनता को प्रभावित करता है. हम सरकारों से सवाल पूछना पसन्द नहीं करते. जब मामला सरकार का हो तो समाज की हमारी चिंता ख़त्म हो जाती है, हम नागरिक से वोटर में तब्दील हो जाते हैं. एक व्यक्ति जो किसी एक पेड़ के कटने पर पड़ोसी से लड़ाई लड़ लेता है और उसे पर्यावरण की चिंता सताती है, वही व्यक्ति विकास के नाम पर काटे गए लाखों हैक्टेयर जंगलों की कटाई पर चुप रहता है, क्योकि वह उस सरकार का वोटर है, उस समय उसे पर्यावरण की नहीं अपनी सरकार की चिंता सताती है.
सबकी निजता का पैमाना अलग होता है, बहुत से लोग सोशल मीडिया पर अपनी तस्वीरें तक लगाना पसन्द नहीं करते और कई लोग अपनी हर बात कह देते हैं. अक्सर होता ये है कि हम जिस स्तर की निजता चाहते हैं, कई बार उसी स्तर की प्रशंसा करते हैं. उससे अधिक हमारे लिए असुविधाजनक होता है तो सभी किसी चीज़ से सहमत या असहमत हो सकते हैं. मैं गीता यथार्थ की उस अभिव्यक्ति से सहज नहीं थी, मगर मेरी सहजता असहजता से ही सबकुछ निर्धारित नही होता. मैं उनकी बोल्डनेस की तारीफ़ करूंगी कि उनकी पोस्ट ने केवल मातृत्व ही नहीं स्त्री और खुले में शौच के सवाल को भी केंद्र में ला दिया है.
तो अगर आपको स्त्री की निजता की इतनी परवाह है कि उसकी निजता के सवाल पर दिन रात उसे ट्रोल कर सकते हैं, आपके लिए निजता का ये हनन इस क़दर आपत्तिजनजक और समाज के लिए अशोभनीय है कि उस स्त्री को उस भाषा और मानसिकता से नवाज़ते हैं जो टॉयलेट सीट से भी अधिक गन्दी है तो ज़रा अपनी गर्दन घुमाइए, आपकी इस चिंता की ज़रूरत हज़ारों लाखों उन महिलाओं को है, जो सार्वजिनक रूप से शौच करते हुए निजता के उस हनन की जबरन शिकार हैं.
जहां मामला स्त्री की स्वयं की चॉइस का होता है आप महज़ वहीं आपत्ति करते हैं? या जहां उसके साथ ज़बरदस्ती हो रही होती है वहां भी करते हैं. तो जो सिस्टम स्त्रियों की निजता का जबरन हनन कर रहा है, जहां स्त्री की गरिमा का जबरन उल्लंघन हो रहा है, वहां से नज़र चुराकर गुज़र न जाइए. उस सिस्टम को भी ट्रोल कीजिए. चलिए, देखें स्त्री, शौचालय , निजता और गरिमा की आपको वाक़ई कितनी चिंता है. या सारे सवाल स्त्रियों से ही पूछेंगे? कुछ सवाल सरकारों से भी तो पूछिए…
फ़ोटो: गूगल