जहां विडंबना है, विरोधाभास है, वहां कविता है. कृषि प्रधान देश भारत में कृषकों की हालत को बयां करती अरुण चन्द्र रॉय की कविता इसी विरोधाभास और विडंबना की भूमि पर खड़ी है.
ख़ाली मेरी थाली
भरा है तेरा पेट
अन्न उगाऊं मैं
खाऊं मैं सल्फ़ेट
मिट्टी पानी से लड़ूं
उसमें रोपूं बीज
पसीना मेरा गन्धाए
महके तेरी कमीज़
ख़ूब जो उगे मेरी फ़सल
गिर जाए इसका मोल
कोल्ड-स्टोरेज में भरकर
पाओ तुम दाम अनमोल
जो व्यापारी बन गए
उनके खुले हैं भाग्य
जो बैठे धरती पकड़
रोए अपना दुर्भाग्य
गेहूं न फैक्ट्री उपजे
कम्प्यूटर न बनाए धान
जिस दिन देश ये समझे
बढ़े किसान का मान
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