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Home ज़रूर पढ़ें

पानी पर पड़ता है वाइब्रेशन्स का असर! तो पानी को जानिए…

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
September 29, 2021
in ज़रूर पढ़ें, डायट, हेल्थ
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पानी पर पड़ता है वाइब्रेशन्स का असर! तो पानी को जानिए…
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पानी को जिस तरह जानना चाहिए, जिस तरह पीना चाहिए और जितनी तवज्जो देनी चाहिए यदि हम वैसा करें तो बहुत से रोगों से तो यूं ही छुटकारा मिल जाएगा. लेकिन कॉर्पोरेट ओैर बाज़ारवाद के दौर में पानी पर हुए शोध सामने ही नहीं आ पाते. आप केवल इस बात पर ग़ौर कीजिए कि हमारे शरीर में जितना भी द्रव (लिक्विड) है, उसका 99% हिस्सा सिर्फ़ पानी है और बचा 1% हिस्सा न्यूक्लिक एसिड, प्रोटीन, हॉर्मोन्स, विटामिन्स इत्यादि से बनता है. उस 1% हिस्से में थोड़ी बहुत कमी होने शरीर को कोई ख़ासा फ़र्क़ नहीं पड़ता, लेकिन 99% पानी का 1% हिस्सा भी कम हो जाए तो डिहाइड्रेशन की वजह से हमारी हालत ख़राब हो सकती है, यहां तक कि मौत भी संभव है… तो पानी को जानिए डॉक्टर दीपक आचार्य के साथ.

एक सच पता है आपको? कॉर्पोरेट के दबाव में काम करने वाला विज्ञान और स्पॉन्सरशिप वाला विज्ञान हमेशा आसान रास्ता खोजता है और उस रास्ते को बहुत कठिन बताया जाता है. झूठ कहकर, झूठ बताकर… इस बात को सिर्फ़ एक उदाहरण से समझने का प्रयास कीजिए-हमारे शरीर में जितना भी द्रव (लिक्विड) है, उसका 99% हिस्सा सिर्फ़ पानी है और बचा 1% हिस्सा न्यूक्लिक एसिड, प्रोटीन, हॉर्मोन्स, विटामिन्स इत्यादि से बनता है. उस 1% हिस्से में थोड़ी बहुत कमी होने शरीर को कोई ख़ासा फ़र्क़ नहीं पड़ता, लेकिन 99% पानी का 1% हिस्सा भी कम हो जाए तो डिहाइड्रेशन की वजह से हमारी हालत ख़राब हो सकती है, यहां तक कि मौत भी संभव है. तो फिर पैथोलॉजी वाली ब्लड प्रोफ़ाइल को देखकर हम यकायक घबरा क्यों जाते हैं?

पानी हम कम जानते हैं और बाज़ार को उससे भी कम
दुर्भाग्य से पानी को लेकर हमारी जानकारियां बिल्कुल निम्नस्तर की हैं, जैसे- इससे प्यास बुझती है, इसमें दो हाइड्रोजन और एक ऑक्सीजन का मॉलिक्यूल है, इसे जिस बर्तन में डाला जाए, उसका आकार ले लेता है, ये ठोस, द्रव और गैस रूप धारण कर सकता है, वगैरह वगैरह… सेहत से जुड़े मुद्दों की खोज-परख के लिए सबसे ज़्यादा फ़ंड कॉर्पोरेट सेक्टर की भलाई के लिए या कॉर्पोरेट के दबाव से पारित होता है, जिसमें अधिकतर बिके हुए वैज्ञानिक रिसर्च करके कॉर्पोरेट के मन मुताबिक़ परिणामों को दुनिया के सामने लाते हैं, वो भी पूरे टीम-टाम के साथ, फ़ेक क्लीनिकल डेटा, फ़ेक सक्सेस रिव्यू और फ़ेक प्रोजेक्ट स्टडीज़… और फिर बाज़ार में नए-नए रोगों की हवा फैलाई जाती है और फिर बनता है बाज़ार. बाज़ार फिर मल्टीविटामिन कैप्सूल का हो या सब्ज़ियों को सैनिटाइज़ करने का या बच्चों की ग्रोथ बढ़ाने वाले चूरन या सौंदर्य निखारने वाले उत्पाद का… बाज़ार माया है, जो डराता है, बहकाता है और फिर आपको कन्ज़्यूमर बनाता है.

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आख़िर पानी पर क्यों नहीं किया गया रिसर्च?
कॉर्पोरेट फ़ंडेड यानी बिकी हुई रिसर्च ने बाज़ार की सेहत दुरुस्त करने के लिए पूरी ताक़त लगा दी, आसान रास्ते को खोजने में. हमारे शरीर के लिक्विड वाले 1% हिस्से पर जितनी रिसर्च की गई है, जितना हो हल्ला मचाया, उस रिसर्च का तिनकाभर हिस्सा 99% वाले ‘पानी’ पर नहीं किया गया…क्यों? जिस 1% हिस्से के बारे में खोजने के लिए अरबों-खरबों डॉलर्स ख़र्च कर दिए गए हों, विटामिन, न्यूट्रिएंट्स, लिपिड्स, कोलेस्टरॉल, फ़ैट, ब्लड प्रोफ़ाइल जैसे पॉइंट्स को तूल दिया गया हो, उतना ही पानी के रोल के बारे ख़र्च किया गया होता तो मल्टीनैशनल फ़ार्मा कंपनीज़ का साम्रज्य तैयार ही नहीं होता. बड़े-बड़े तामझाम वाले अस्पताल नहीं खुलते, सेहतमंद बने रहने का डर बताकर बोतलबंद पानी नहीं बेचा जाता. स्पॉन्सर्ड साइंस हमेशा से पारंपरिक देहाती दावों को खारिज करता आया है. आसान रास्ते कठिन कर दिए जाते हैं, बाज़ार तैयार किया जाता है. कभी फुरसत से बतियाऊंगा इस विषय पर…

पहले तो पानी पीने का सही तरीक़ा जानिए
साफ़ पानी पीजिए, पानी को ग़ौर से देखते हुए, महसूस करते हुए पीजिए. पानी पीते वक़्त सकारात्मक विचारों को मन में लाएं, क्योंकि पानी सुनता है, समझता है और इसके कण-कण में वाइब्रेशन्स हैं. ये हमारे शरीर, हमारे विचारों और हमारे शब्दों के वाइब्रेशन भांप लेता है. ठीक वैसे ही जैसे पेड़-पौधे भी वाइब्रेशन्स पकड़ लेते हैं. पानी आपकी सेहत दुरुस्त करता है, ठीक वैसे ही जैसे जड़ी-बूटियां करती हैं. सही तरीक़े, सही समय और सही मापदंड वाले पानी को पीना, कई बड़े रोगों को छू मंतर कर देता है. ये प्रवचन नहीं है. आज से 80 साल पहले की गई ‘सेलफ़ फ़ंडेड’ यानी ख़ुद के पसीने से कमाई रकम और उसे ख़र्च कर की गई एक रिसर्च का दावा था, जिसे दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिक जर्नल में प्रकाशित भी किया गया था. और जिस वैज्ञानिक ने पानी से जुड़े बेहतरीन से बेहतरीन पारंपरिक उपायों को वैज्ञानिक तौर-तरीक़ों से प्रमाणित किया और कई तरह के रोगों की छुट्टी कर दिखाई, उसकी रिसर्च को जिस तरह का रिस्पॉन्स मिला वो बेहद चौंकाने वाला था. सारे बड़े रिसर्च स्कूल्स और फ़ार्मा क्लिनिकल एक्सपर्ट्स ने उनकी रिसर्च को बकवास और दकियानूसी कहकर नकार दिया यानी एक तगड़ी और क्रांतिकारी साबित हो सकने वाली रिसर्च की मौत हो गई या उस रिसर्च को कबाड़ में डाल दिया गया. ऐसी कई रिसर्च मारी जाती हैं, निगल ली जाती हैं, ये बाज़ार शार्क है. शार्क है फ़ंडेड रिसर्च का जुगाड़. हर दिन नई दवाओं, क्लीनिकल टेस्ट्स और तगड़े तामझाम को दिखाने और डराने का बाज़ार है ये दुनिया.

यह जान लीजिए कि पानी सुनता है
ये जो तस्वीर ऊपर लगी है, ये इंटरनेट से ली गई है, सिर्फ़ यह दिखाने के लिए कि यह पानी है, पानी पर सही तरह के वाइब्रेशन्स, शांत और मधुर धुन या पॉज़िटिव वाइब्स वाले साउंड वेव्स जाएं तो ऐसे खिल उठता है यह. ये तस्वीर एक ऐसे शोध के दौरान ली गई थी, जिसमें बताया गया कि अलग-अलग तरह के साउंड वाइब्रेशन देने से पानी में किस-किस तरह से क्रिस्टल्स बनते हैं. डर की आवाज़ या कर्कश आवाज़ के क्रिस्टल्स बड़े वाहियात तरीक़े से बनते हैं. तो अब समझे न आप कि पानी रिऐक्ट करता है, आपके और मेरे इमोशन्स की तरह. और कोई प्यार से, आराम से इसे निहारकर पिए तो बननेवाले क्रिस्टल्स तस्वीर में देख सकते हैं.

पानी हीलर है!
जी हां, पानी भी हीलर है, पर आप हैं कि कोलेस्टरॉल, लिपिड प्रोफ़ाइल, आयन, विटामिन, एंज़ाइम की 1% वाली दुनिया से बाहर ही नहीं आ पा रहे. घबरा घबरा कर फ़ुल बॉडी चेकअप करवाते हैं, खौफ़ का बाजार है भई… और ऑफ़र का भी बाज़ार है, फ़ुल बॉडी चेकअप करवाएं केवल 999 रुपए में, कुल 64 टेस्ट… दैय्या रे! जब तक आपको एक्स्पर्ट डॉक्टर इसकी सलाह न दे, तब तक इस सब तामझाम से दूर रहें. बढ़िया साफ़ पानी पिएं, हेल्दी फ़ूड खाएं, दिनभर में एक घंटे पैदल घूमें, सूर्योदय देखें, दिन में नींद ना लें, रात आठ बजे के बाद खाना न खाएं…आप फ़िट नहीं हुए तो मेरा नाम दीपक आचार्य नहीं.
अगली बार जब भी पानी पिएं, दीपक आचार्य का नाम फूंककर पिएं, क्या पता वो पानी भी आपको बंजारा बना दे, मेरी दुनिया में ले आए, गांव-देहात और जंगलों की तरफ़ देखने और उनके बारे में सोचने पर मजबूर कर दे. अच्छा, अगर आलेख पसंद आए तो शेयर करें, लेकिन क्रेडिट ज़रूर दें, क्योंकि हवा नहीं लिखती है इसे, मेरी उंगलियां लिखती हैं. लिखते वक़्त दिमाग़ उलझाए रखना पड़ता है. पढ़ना, समझना और फिर समझाना भी पड़ता है, इतनी तो क़दर की ही जा सकती है, मेहनत की, है ना!

फ़ोटो: फ़ेसबुक, पिन्टरेस्ट

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