‘लड़कियां बोझ होती हैं’ हमारे समाज की इस मानसिकता को आईना दिखाती कवि हूबनाथ पांडे की यह कविता न केवल सवाल पूछती है, बल्कि जवाब भी देती है कि लड़कियां बोझ नहीं होतीं, बल्कि धरती का बोझ ढोती हैं.
दुनिया में बहुत काम है
लड़कियों के लिए
काम की कोई उम्र भी नहीं
योग्यता की भी दरकार नहीं
दो साल की लड़की भी
धुले बरतन रख सकती है
रसोई में
या मुट्ठीभर गोबर से
लीप सकती आंगन
या भर अंकवार
उठा सकती है सूखी लकड़ियां
जैसे उम्र बढ़ती है
बढ़ जाते हैं काम उसके
उसके कामों का पाठ्यक्रम
बहुत चुस्त और समृद्ध है
झाड़ना पोछना मांजना
सीना पिरोना कूटना
पीसना छानना बीनना
बटोरना बुहारना गूंथना
रांधना सानना बेलना
सेंकना तलना मलना
परोसना समेटना निराना
गोड़ना फोड़ना तोड़ना
काटना छीलना पछींटना
किसी भाषा में जितनी
हो सकती हैं क्रियाएं
उनमें तीन चौथाई का
प्रशिक्षण लिए बिना
सार्थक नहीं होता जीवन
लड़की का
लड़की काम करती है
घर के भीतर
घर के बाहर
पहाड़ पर मैदान में
नदी समंदर में
मरुथल पठार में
गांव शहर जंगल
बर्फ़ीले बियाबान में
दुनिया में हर जगह काम है
लड़की के लिए
दुनिया में कोई लड़की
बेकाम नहीं
फिर चाहे जैसी हो
काली हो गोरी हो
लूली हो लंगड़ी हो
चतुर हो बेवकूफ़ हो
लड़की को काम के लिए
कोई योग्यता नहीं चाहिए
सिर्फ़ लड़की होना काफ़ी है
हर उम्र की लड़की के लिए
हज़ारों हज़ार काम हैं
धरती के तीन चौथाई काम
लड़कियां करती हैं
जिसकी कोई तनख़्वाह
उन्हें कभी नहीं मिलती
पैदा होते ही धरती को
कंधे पर उठानेवाली
लड़कियां
धरती पर बोझ होती हैं
ऐसा कुछ सयानों का मानना है
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