महानगरों की आपाधापी में हम जीवन के ही नहीं, मौसम के भी कई रंग-ढंग मिस कर देते हैं. उनमें से एक है बसंत. हम महानगरों में रहनेवाले लोग भले ही बसंत को न देख पाते हों, बसंत हर साल अपने नियत समय पर आता है. कवि अरुण चन्द्र रॉय की यह कविता महानगर में बसंत का पता बता रही है.
महानगर में बसंत
सड़कों के किनारे लगे
बबूर, कीकर के वृक्षों के काले पत्तों के बीच
अपुष्ट खिले बेगनबेलिया से
झांकता है और
घुल जाता है झूलते अमलताश की यादों से जुड़ी
गांवों की स्मृतियों में
महानगर में बसंत
दस इंच के गमलों में माली द्वारा लगाए गए
अकेली गुलदाउदी के अलग-अलग कोणों से
खींचे गए फ़ोटो और सेलफ़ियों को सोशल मीडिया के
विभिन्न प्लैटफ़ॉर्मों पर किए गए अपडेट से
झांकता है और
घुल जाता है आमों की नई मंजरियों की गंध से जुड़ी
गांवों की स्मृतियों में
महानगर में बसंत
वास्तव में उन्हीं के हिस्से आता है
जो सुबह होने से पहले पार्कों की सफ़ाई करते हुए
गिरे हुए फूलों को देख हिलस उठते हैं
जो शहर की नर्सरियों में भांति-भांति के नन्हें-नन्हें पौधों को
नहलाते हैं, धुलाते और सजाते हैं
महानगर में बसंत
पौधे बेचने वालों के ठेले पर रखे गमलों के समूह में
होता है अपने उन्मान पर
Illustration: Pinterest