आज भी हमारे देश में लड़कियों का पालन-पोषण इस ढंग से किया जाता है कि जीवन का तमाम हिस्सा जी लेने के बावजूद, अपने हिस्से के सारे कर्तव्य पूरे कर लेने के बावजूद उन्हें अपना वजूद, अपना मन, जैसे कहीं खोया हुआ सा लगता है. फिर कभी-कभी बड़ी ही छोटी लगने वाली किसी बात पर मन ख़ुशी से झूम भी उठता है. महिलाओं के जीवन की इसी बात को उजागर करती है यह कविता
ब्याही जाती है देह
कुंवारा रह जाता है मन
द्वार पर सतियों सी
सज जाती है देह
जलता है देहरी पर दिया
बुझ जाता है मन
देह से जन्मते हैं वारिस
बन जाती है पीढ़ियां
तन में उगते अमलताश
पतझड़ बन जाता है मन
आँगन में बरसते हैं मेघ
भीगती है तुलसी
उमग उठता है गुड़हल
सूखता जाता है मन
उत्सव और पर्व पर
निभाती नेग दस्तूर
बजता है संगीत और
बहरा हो जाता है मन
घर जेवर जमीन
सबकी वसीयतें हो जाती हैं
किसी के हिस्से
आता नहीं है मन
दूर कहीं ढलती शाम में
पहाड़ों से फूटते हैं झरने
खिल उठती है देह
गा उठता है मन
फ़ोटो साभार: पिन्टरेस्ट