गुरु को प्रथम पूज्य इसलिए कहा जाता है कि वह हमें जीवन की राह में आगे बढ़ना सिखाते हैं. गुरु ही हमारे जीवन को सही दिशा देते हैं. यूं तो हर वह व्यक्ति जो हमें कुछ सिखाता है, फिर वह चाहे हमसे उम्र में बड़ा हो या छोटा, गुरु के समकक्ष ही माना जाना चाहिए, लेकिन यहां कुम्हार और मिट्टी को जो संवाद है, वह हमें और आपको गुरु की महत्ता सहज ही समझा देगा.
मिट्टी का अनगढ़ ढेला(कुम्हार से)- मुझे सुपात्र बनना है.
कुम्हार- सुपात्र का मतलब समझते हो?
ढेला- हां, नहीं, शायद. मैं समाज के काम आने योग्य आकर ग्रहण करना चाहता हूं.
कुम्हार-ठीक है, पर उसके लिए तुम्हें कठिन प्रक्रियाओं से गुज़रना होगा.
ढेला- ठीक है. मैं तैयार हूं.
कुम्हार- तो आरंभ करते हैं.
ढेला- लेकिन… लेकिन मुझे इतनी खुरदुरी सतह पर क्यों रखा? मैं घिस रहा हूं.
कुम्हार- ये कठिन दिनचर्या की छन्नी है. इस प्रक्रिया को आत्मविश्लेषण कहते हैं. इससे तुम्हारी सारी अशुद्धियां छन कर निकल जाएंगी.
मिट्टी- पहले प्यार से मन टटोलते हो. फिर ऐसे प्रश्नोत्तर करते हो जैसे उठा कर पटक रहे हो.
कुम्हार- मैं तुम्हे गूंध रहा हूं. मन टटोल कर ग्रंथियां और कुंठाएं खोल रहा हूं.
मिट्टी- ये ग्रंथियां एक दिन में नहीं बनीं. आसानी से नहीं जाएंगी.
कुम्हार- हमें सतत प्रयत्न करना होगा. आकार ग्रहण करने के लिए ज़रूरी समरसता प्राप्त करने की इस प्रक्रिया को साधना या संधान करना कहते हैं.
मिट्टी- समरस होकर आनंद का अनुभव कर रहा हूं. मेरी ग्रंथिया ही पीड़ा का कारण थीं शायद.
कुम्हार- अब मैं तुम्हें चाक पर बैठाऊंगा.
मिट्टी- ये तो बहुत तेज़ घूम रहा है. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा.
कुम्हार- इसे मंथन और पुनर्विवेचन कहते हैं. ये आकर ग्रहण करने की सबसे लंबी प्रक्रिया है. धीरे-धीरे सब समझ में आने लगेगा.
मिट्टी- (थोड़ी देर बाद) अब मुझे अभ्यास का आवर्तन-प्रत्यावर्तन अच्छा लगने लगा है. मन में एक डर भी है कि ध्यान ज़रा सा भटका तो मैं बिखर न जाऊं, भटक न जाऊं.
कुम्हार- डरो नहीं, मैं हर पल तुम्हारे साथ हूं.
मिट्टी- हां, मैं अपने भीतर लगे हाथ की स्निग्धता और ममता महसूस कर रहा हूं.
कुम्हार- वो स्नेह और प्रोत्साहन का हाथ है. तुम्हे आत्मविश्वास देने के लिए है, ताकि तुम अंतर्मुखी न हो जाओ.
मिट्टी- पर बाहर वाले हाथ से चोट लग रही है.
कुम्हार- वो सख़्त अनुशासन का हाथ है, ताकि तुममें एक दंभी और लालची की भांति बेडौल फैलाव न आए.
मिट्टी- आहा! मैं सुपात्र बन गया.
कुम्हार- अभी नहीं, अभी तुम कच्चे हो.
मिट्टी (दर्द से कराह कर)- आह!ये आंच कैसी? मैं भस्म हो जाऊंगा.
कुम्हार- नहीं, तुम परिपक्व हो जाओगे. इसे तपस्या कहते हैं. स्वस्थ शरीर और मजबूत मन बनाने की सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया है ये.
मिट्टी- मुझे लग रहा है कि अब मैं झंझावात भी झेल सकता हूं.
कुम्हार- अब तुममें अमृत रस को धारण करने, उसका संरक्षण करने और उसे शीतलता प्रदान कर जगत को लौटने की योग्यता आ गई है. तुम सुपात्र बन गए हो. जाओ विश्व का कल्याण करो.
ठीक ही कहा गया है-
‘गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि-काढ़े खोट.
भीतर हाथ सहार दे, बाहर बाढ़े चोट.’
फ़ोटो : फ्रीपिक