कई बार हम जिन कामों को करना चाहते हैं और जानते हैं कि इसे करना हमारा कर्तव्य है, पर फिर भी मन की दृढ़ता की कमी के चलते कर नहीं पाते, वे हमें भीतर ही भीतर मथते रहते हैं. वे हमें हमारी कायरता का एहसास दिलाते रहते हैं. लेकिन कंचन की तरह, देर से ही सही, अपनी ग़लती को सुधारना और उससे उबरना भी बुरा नहीं है. यह हमें जीवन में थोड़ा आगे ला खड़ा करता है. साथ ही, दिली सुकून भी मिलता है. अपने आत्मबल को बढ़ाने की बात कहती इस संजीदा कहानी को ज़रूर पढ़ें.
“बीबीजी, मैं जा रही है.” अपनी धुन में रोज़ का वाक्य बोलकर निकलती हुई कांता को रोकने के लिए कंचन हड़बड़ा गई. पति दौरे पर गए थे. समझ नहीं आ रहा था कि कांता को कैसे रोके, क्या कहे. ये तो कह नहीं सकती थी कि अकेले पड़ते ही वो आत्मा…
पर कांता कुछ सुनने को तैयार ही कब थी? रुखाई से बोलते हुए निकल गई, “ये तो मैं पहले ही कह चुकी है कि जो भी दूसरे काम कराने हों वो शाम को कराना, सुबह मैं बारह बजे के बाद एक मिनट नहीं रुकेगी.”
…और घर में अकेली रह गई कंचन के सामने प्रकट हो गई वो प्रेतात्मा, जिसकी उपस्थिति ही ख़ून निचोड़ लेती थी. कंचन अपनी आंखें खुली रखे या बंद, वो दिखना बंद नहीं होती थी. बस, लाचारगी से उसकी ओर देखते हुए खड़ी रहती. कभी-कभी ख़ून के आंसू रोने लगती, कभी अपने बड़े-बड़े नाख़ून अपने चेहरे पर रखकर उसे ढंक लेती. अबकी मनश्चिकित्सक वीना जी से कहा था कंचन ने.
‘‘मैं चाहती हूं कि वो कुछ बोले, ताकि मैं भी अपना पक्ष रख सकूं, लेकिन उसकी ख़ामोश निगाहें इतना शोर मचाती हैं कि मैं सह नहीं पाती.’’
तो आज वो बोल दी… पर ये बोलना ख़ामोश निगाहों से हज़ार गुना धारदार था. वो हवा में ही एक अख़बार लेकर आराम से पसर गई और एक उम्दा ख़बरवाचक की तरह शुरू हो गई. यही नहीं, उसका सुनाया कंचन की आंखों के आगे प्रत्यक्ष होता गया. ख़बर में नाम कंचन की जान से प्यारी बेटी परी का था.
“परी बस स्टॉप पर उतरी. कुछ कदम ही चली होगी कि उन तीनों के क़दमों की अवांछनीय सरसराहट पिघले सीसे की तरह कानों में उतरने लगी. उनकी अश्लील निगाहें, अशोभनीय फिकरे परी की रगों में ईंधन की तरह उतर गए और उसके क़दम तेज़…और तेज़ होते गए, लेकिन आख़िर वो दबोच ली गई. प्रलय की इस घड़ी में आशा की किरण बनकर रस्ते से गुज़री एक कार. ये किरण कुछ और उजली हो गई जब ड्राइविंग सीट पर दिखी एक महिला. “हे…ल्प!!!” परी पूरी ताक़त से चिल्लाई. महिला का ध्यान भी खिंचा, पर ये क्या? ये तो मैं हूं. एक आत्मा, जो कुछ कर ही नहीं सकती. कार सरसराती हुई निकलती गई और सड़क पर अकेली रह गई परी की चीख़ें उन वहाशियों के ठहाकों के साथ गुंथती गईं…”
“नहीं…! बस करो… मैं और नहीं सुन सकती…” कंचन एक मर्मांतक चीख़ के साथ उछलकर खड़ी हो गई और सामने इत्मीनान से बैठी उस लड़की की भयानक प्रेतात्मा के चेहरे पर व्यंग्यभरी ख़ामोशी पसर गई. कंचन का पूरा बदन पसीने से तर था और सांसें धौंकनी को भी मात दे रही थीं. वो बेबसी में उठकर चहलकदमी करने लगी, ‘‘हे भगवान! मेरे गुनाहों की सज़ा मेरी बच्ची को न देना. अपनी बच्ची के लिए तो मैं सपने में भी ऐसा नहीं देख सकती, नहीं देख सकती भगवान.’’ कंचन वहीं हाथ जोड़े चेहरा आकाश की ओर किए फफक-फफककर रो पड़ी.
शाम को कांता बाई काम पर आई तो कंचन फट पड़ी, “कितना कुछ दिया है मैंने तुम्हें. और तुम? अगर दो मिनट रुक जातीं तो तुम्हारा क्या चला जाता? देख नहीं रही थीं कि मैं कितनी परेशान थी? मुझे उस हालत में देखकर भी…’’ पर कांता बाई के चेहरे पर व्यंग्यभरी मुस्कान देखकर कंचन ने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया.
“हुंह… मैं तो आपको देखी, पर क्या आप देखती हैं मुझे? जब कभी मुझे बारह बजे से देर हो जाती है. पूछा था आपने मुझे काम पर रखते समय कि मैं ये क्यों बोल रही है कि बारह बजे के बाद मैं एक मिनट नहीं रुकेगी? कभी फरक पड़ा है आपको मेरे खसम के घूंसे-लातों के निसान मेरे बदन पर देखकर? और देने का घमंड तो करना मती. आप हमेसा वो सामान देती हैं, जो आपके लिए फालतू हो जाता है. कभी मुझसे पूछा कि..?” कहते-कहते कांता की आंखों में आंसू आ गए. वो ठसक के साथ वाक्य अधूरा छोड़कर काम पर लग गई.
कंचन अवाक्! भले ही कांता हमेशा जल्दी में आधा-अधूरा, जैसा-तैसा काम करके भागती थी पर समय की बड़ी पक्की थी. और आजतक कभी पलटकर जवाब नहीं दिया था उसने. इन्हीं दो ख़ूबियों के कारण वो कई घरों में लंबे समय से टिकी थी. आज जिस लहजे में और जितने वाक्य उसने बोले थे उतने तो पिछले दो सालों में मिलाकर नहीं बोले होंगे. कांता के तल्ख़ वाक्यों में छिपी गहरी पीर किसी धारदार हथियार की तरह कंचन की आत्मा की गहराइयों में उतरती चली गई. कांता अपना काम करती रही और कंचन अपनी ही उधेड़-बुन में खो गई. आज हर कोई कुछ बोल रहा है. कितना तरसी थी कंचन कि ये आत्मा कुछ बोल ही दे, ताकि वो भी अपना पक्ष रख सके पर वो बोली तो…
सबकुछ वैसा ही तो था प्रेतात्मा के दिखाए उस दृश्य में जैसा उस दिन हुआ था. बस, उसमें उस लड़की की जगह परी थी और उसकी जगह वो प्रेतात्मा. वैसी ही कुछ सुनसान-सी सड़क, वैसी ही आत्मरक्षा के लिए बहादुरी से संघर्ष करती लड़की, वैसे ही कार में एक परिवार का गुजरना, वैसा ही उस लड़की का मदद के लिए पुकारना, पति का कार रोकना, उन लड़कों द्वारा चाकू दिखाते हुए उसकी पत्नी को भी घसीट लिए जाने की धमकी देना. और फिर उसे द्वंद्व में देखकर शेर की दहाड़ की तरह गूंजती एक ओजस्वी वाणी, “मुझे थोड़ी-सी मार्शल आर्ट आती है. ये तीन हैं, हम भी तीन हो जाएंगे तो इन्हें कुछ देर और रोक लेंगे. तब तक कोई न कोई और लोग आ जाएंगे, वी कैन डू इट. प्लीज़…”
उस ओजस्वी वाणी ने पति का ही उत्साह नहीं बढ़ाया, पलभर को तो अतिरिक्त सुरक्षा में पली कंचन के भीरू मन में भी ओज फूंक दिया था. पर ये नवागंतुक ओज स्वार्थी और डरपोक मन में अधिक समय टिक न सका. उसने कार से उतरने को उद्यत पति का हाथ पकड़ लिया, “आप चाकू के आगे कर भी क्या कर लोगे? नहीं, मैं आपको ख़तरे में नहीं देख सकती.”
पति में जागी नैतिकता कुछ ही पलों में उसके चेहरे पर लिखी भय की इबारत से सहमत हो गई. कार के आगे सरकने के साथ धीरे-धीरे उस लड़की की चीख़ों और लड़कों के ठहाकों की गुंथी हुई आवाज़ें धीमी पड़ती गईं पर धिक्कारते ज़मीर और डरपोक आत्मबल के अपने-अपने तर्कों की लड़ाई का शोर बढ़ता गया, जो आज तक नहीं थमा. उस दिन एक कुरुक्षेत्र से भागने का निर्णय क्या लिया, ज़मीर ने सारी ज़िंदगी के लिए मन को ही कुरुक्षेत्र बना दिया.
दूसरे दिन सुबह अख़बारों की सुर्खियों में कंचन और उसके पति भी अदृश्य रूप में विद्यमान थे. उस साहसी लड़की ने मीडिया को दिए अपने बयान में उसकी मदद की गुहार न सुनने वाले दम्पति समेत उस बेदर्द ज़माने का ज़िक्र किया था, जो उसके अकेले गिरते पड़ते अस्पताल पहुंचने, परिजनों को फ़ोन करने के संघर्ष में उसका सहयोगी नहीं बना. उसकी दास्तान हर टीवी.चैनल और अख़बार को अपनी बिक्री बढ़ाने का साधन लग रही थी. और उसने बिक्री का ये साधन बनना स्वीकार किया, क्योंकि इसी से पुलिस को उन प्रभावशाली परिवारों के किशोरों के ख़िलाफ़ प्राथमिक शिकायत दर्ज करने और उन्हें गिरफ़्तार करने के लिए विवश होना पड़ा था. क्योंकि इसी से वो अपना संदेश अनजान दम्पति तक पहुंचा पाई थी, “मैं उस भय को समझ सकती हूं, जिसके कारण आपने मेरी मदद नहीं की. पर प्लीज़ अपनी ख़ातिर, अपनी संतान की ख़ातिर पुलिस को उनकी पहचान की गवाही दे आइए. याद रखिए, अगर उन्हें बेल मिल गई तो वो जिस समाज के लिए ख़तरा बने रहेंगे, उसमें आप भी रहते हैं.”
इस बार कंचन के ज़मीर ने बगावत की तो उसके पति का भय रास्ता रोककर खड़ा हो गया. मीडिया में उनमें से एक के पिता का नाम सुनते ही जैसे पति को सांप सूंघ गया. नियमित समाचार सुनने और पढ़ने वाले एक शिक्षित शहरी का गहरा सामान्य ज्ञान अपनी कायरता को व्यावहारिकता का जामा पहना चुका था, “पागल हो गई हो? पुलिस और प्रशासन जिनके रसूख के क़दमों के नीचे रहता है, हम उनके ख़िलाफ़ गवाही देंगे? तुम उन लोगों की ताक़त और क्रूरता की कल्पना भी नहीं कर सकतीं. कुछ नहीं होनेवाला हमारी गवाही से भी. अच्छा हुआ कल हम नहीं रुके, वरना… मैं तुम्हें और परी को ख़तरे में नहीं डाल सकता.”
उसके बाद ख़बरें आती रहीं, उन लड़कों को बेल मिलना, लड़की और उसके परिजनों को डराया जाना, उनका केस वापस न लेने का दृढ़ संकल्प, फिर एक दिन उस लड़की की सड़क दुर्घटना में मृत्यु. हर अख़बार और टीवी चैनल की अपने प्रतिद्वंद्वी से अधिक प्रभावशाली ढंग से सिस्टम और उसके सारे पुर्जों को कोसने की होड़ और दावे के साथ इसे क़त्ल ठहराया जाना.
हर दिन उस ख़बर को मिलने वाली जगह थोड़ी छोटी होती गई. हर आज के कल में बदलने के साथ अख़बार सेंटर टेबल से उठाकर स्टोर में रखे जाते रहे और उनकी निश्चित जगह भर जाने के बाद रद्दी में बिककर घर से बिदा होते रहे. लेकिन अख़बार का वो टुकड़ा अब मेरे मन से चिपक चुका था, जिसमें उस लड़की के मां-बाप बिलखकर- बिलखकर उस अनजान दम्पति को बद्दुआएं दे रहे थे. कह रहे थे कि कोई साथ दे न दे, वो बेटी की आत्मा को न्याय दिलाने के लिए मरते दम तक ये केस लड़ेंगे. लड़की का वो बयान जिसमें उसने कहा था कि ‘वो जिस समाज के लिए ख़तरा हैं, उसमें आप भी रहते हैं’ वो धुन बन गया था, जो ज़बान पर ऐसे चढ़ जाती है कि इनसान चाहते हुए भी उससे पीछा नहीं छुड़ा पाता. कंचन को विश्वास हो गया था कि आज नहीं तो कल उस लड़की की बद्दुआएं उसके जीवन में कोई दुर्घटना बनकर ज़रूर आएंगी.
दो मनश्चिकित्सकों की असफलता के बाद वीना जी का इलाज शुरू किया था. आत्मा से पीछा तो अब तक नहीं छूटा था, पर तपते मन को राहत बहुत मिलती थी उनसे मिलकर.
“मैं जानती हूं कि अगर मैं अदालत जाकर उन लोगों की पहचान की गवाही दे आऊं तो ये आत्मा मेरा पीछा छोड़ देगी, पर उसकी भी हिम्मत कैसे जुटाऊं?” अपनी कहानी बताकर रो पड़ी थी कंचन तो उनकी वाणी ने स्नेह-लेप का काम किया था. “आप ट्यूशंस लेती हैं न? इस प्रश्न का उत्तर आपके लिए तो बहुत सरल है. मान लीजिए कोई बहुत कमज़ोर विद्यार्थी आपके पास आता है जो अपनी कक्षा के कार्य करने में पूरी तरह असमर्थ है तो आप क्या करती हैं?”
“उसे एक पिछली कक्षा का कार्य कराती हूं.”
“यदि वो भी न कर पाए तो?”
“तो एक और पिछली कक्षा का काम देती हूं.”
“इससे क्या होगा?”
“आत्मतुष्टि मिलेगी, जो आत्मबल बढ़ाएगी. वैसे भी पहली सीढ़ी पर क़दम रखकर ही आगे चढ़ा जा सकता है”.
“बस तो फिर वही आप कीजिए. जो नहीं कर पा रहीं उसे कुछ समय के लिए किनारे रख दीजिए. वो कीजिए जो कर सकती हैं. पहली सीढ़ी पर पांव रखिए. आसान काम करिए जो आपका आत्मबल बढ़ाए.”
“मतलब? मुझे क्या करना चाहिए?” उलझन भरी पलकें उठाने पर उन्होंने ही बात आगे बढ़ाई थी.
“ये तो आप ही सोचेंगी तभी सार्थक समाधान मिलेगा. समाधान कोई किसी को बता नहीं सकता, सिर्फ सुझा सकता है. ज़िंदगी के इम्तेहान में वही सफल होता है जो अपने उत्तर ख़ुद ढूंढ़ता है.” ये वाक्य याद आते ही कंचन के दिमाग़ में बिजली सी कौंध गई.
“सॉरी कांता, मैंने तुझसे पहले नहीं पूछा पर अब बताएगी, तू ऐसे हड़बड़ी में क्यों भागती है?” अब अवाक् रह जाने की बारी कांता की थी. इतने रूखे जवाब पर उसे इतनी प्यार भरी प्रतिक्रिया बिल्कुल भी अपेक्षित नहीं थी. वो कुछ देर कंचन की आंखों में एकटक देखती रही. फिर उनमें व्यंग्य की जगह स्नेह पाकर फूट-फूटकर रो पड़ी.
“क्या बताऊं दीदी, आठ साल का बेटा है मेरा. सकूल जाता है. खसम ने उसे सिर चढ़ा रखा है. पांच साल की बेटी है. सकूल नहीं जाती. खसम उसे सकूल भेजने को तैयार भी नहीं है. अब जरा-सी बच्ची करे तो क्या करे, सारा दिन इधर-उधर खेला करती है. नुक्कड़ की पान की दुकान पर सारा दिन आवारा लड़के बैठे तम्बाकू खाते रहते हैं. हर आती-जाती लड़की को छेड़ते रहते हैं. एक बार तो रीना की चार साल की लड़की को चॉकलेट देने के बहाने अपने कमरे तक ले गए थे. वो तो ऊपर वाले की मेहरबानी थी उस पर कि दरवाज़ा बंद कर ही रहे थे कि देख लिया था रीना ने…”
“क्या? तुम लोगों ने पुलिस में शिकायत नहीं लिखाई.” कंचन ने डांटा.
“काहे की शिकायत दीदी?” कांता के होंठों की लकीर दर्द भरी मुस्कान से खिंच गई. “एक तो गरीबों की सुनता नहीं है कोई. उस पर किसी के इरादों का कोई सबूत भी तो नहीं होता. किसी बच्ची को कमरे में ले जाकर चॉकलेट देना कोई जुल्म भी तो नहीं है. तभी हमने ये तय किया. साढ़े बारह पर रीना को काम पर निकलना होता है, तब तक…”
कंचन के डूबते मन को जैसे तिनके का सहारा मिल गया, “बस, अब बंद ये डर और भागमभाग. कल से तुम अपनी और रीना की बेटी को यहां लेकर आओगी.”
कंचन ने स्टोर खोला और बहुत-सी पुरानी नर्सरी की रंगीन चित्रों वाली किताबें, ब्लॉक्स आदि निकालकर अपनी तैयारी को अंजाम दिया. दूसरे दिन सुबह आठ बजे मैले-कुचैले कपड़े पहने दो गंदी-सी दिखने वाली लड़कियों को देखकर ज़मीर ने बुझे मन को डांट लगाई, ‘और क्या अपेक्षा की थी?, ठीक है किताबें बाद में, पहले स्वच्छता का सबक सिखाएंगे.’
बच्चों को प्रेरित करने में सिद्धहस्त कंचन ने उन्हें दो सेब ऐसे दिए, जैसे जो कहा जानेवाला है उसे सुनने की पेशगी रकम हो. उन्हें छोड़ते समय दो ताज़े सेब, और सिखाए सबक पर अमल करने के लिए नया साबुन, शैम्पू आदि देते समय एक अजीब-सी संतुष्टि मिली.
एक ओर बच्चियों में आता बदलाव मन की संतुष्टि बढ़ाता जा रहा था और दूसरी ओर सुबह के समय कभी-कभार अकेले पड़ जाने का अवसर आने का डर भी ख़त्म हो गया था.
आज शाम के समय परी के कोचिंग के लिए निकलने से पहले पति घर नहीं लौटे थे. उसने परी को भेजकर उंगलियां उंगलियों पर चढ़ाईं और आंखें बंद करके घर के मंदिर के सामने बैठ गई.
“इतना ख़ौफ़ है मेरा कि तुम्हें ध्यान ही नहीं रहा परी के मोबाइल में सुरक्षा वाला ऐप डाउनलोड करना और बैटरी फ़ुल चार्ज करना? याद नहीं है कि आज उसे अंधेरा होने के बाद आना है?” घुड़की सुनकर चौंककर पलटी तो आत्मा वयंग्य से मुस्कुरा रही थी.
“हां, तुम ठीक कहती हो, धन्यवाद. पर अब क्या करूं?” कंचन हड़बड़ा गई.
“टैक्सी करके परी को बस स्टॉप तक लेने चली जाना और क्या! अब ये भी मुझे बताना होगा?”
अब कंचन का ध्यान गया कि लड़कियों के आना शुरू करने के बाद से आज आठ महीने में सातवीं बार ऐसा दिन आया था, जब वो अकेली पड़ी थी. हर बार उसे लापरवाही का ताना देकर ऐसी ही कुछ घुड़की लगाई थी उसने. आज पति ने सुबह ही बता दिया था कि वो देर से आएंगे और कंचन ने सारा दिन किसी को साथ रखने का बंदोबस्त करने की कोशिश नहीं की थी. क्यों? शायद इसलिए कि आत्मा वही थी, पर उसकी भयानकता धीरे-धीरे कम हो गई थी. नहीं, नहीं, उसकी भयावहता या उसके अपने मन का डर? वो तो अब भी वैसी ही थी. वैसी ही विषाद और आक्रोश भरी आंखें, वैसे ही बिखरकर आधा चेहरा ढंकते बाल, चेहरे पर जगह-जगह ख़ून, पर वो चेहरा डराने के साथ सहानुभूति भी पैदा करने लगा था.
“कहा था मां ने. जब अंधेरा होने के बाद लौटना हो तो मुझे बता दिया करो. बस स्टॉप तक लेने आ जाऊंगी. उस दिन जन्मदिन था मां का. मैंने ही उन्हें सरप्राइज़ देने के चक्कर में फ़ोन नहीं…और क्या सरप्राइज़ दिया!” उसकी आंखों का सूनापन गहरा गया और दो आंसू टपक पड़े. इस बार वो ख़ून के नहीं थे. वो डर के बजाय दर्द बनकर कंचन की आत्मा में उतरते गए. जाने किस प्रेरणा से वो उसके घावों का खून पोंछने आगे बढ़ गई और आत्मा एक झटके से भयानक रूप में आकर पीछे हट गई, “जाने दो, मुझे इनमें दर्द नहीं होता. ज़िंदा लोगों के घाव तो दिखते नहीं तुम्हें.”
“ज़िंदा लोगों के घाव?” तभी किसी ने दरवाज़ा खटखटाया और पहली बार उस आत्मा के ग़ायब होने पर कंचन को राहत नहीं मिली. वो अपने प्रश्न का उत्तर चाहती थी, जो कांता के चेहरे पर चोट के निशान देखकर ध्यान आया, “क्यों मारता है वो और क्यों चुपचाप मार खाती हो तुम इतनी. विरोध करने का साहस क्यों नहीं करतीं?” काम ख़त्म होने के बाद एक कप चाय के साथ नाश्ता देकर पूछे इस आत्मीय सवाल से कांता की आंखें बरसों से जबरन रोककर रखी गई बदली की तरह बरस पड़ीं.
“क्या करूं दीदी, उसे तो रोज़ मैं चाहिए. बच्चे सोए हों या नहीं, उसे कोई फरक नहीं पड़ता. मना करती हूं तो फिर कभी बेटी को सकूल न भेजने या बेवजह डांटने के लिए और कभी बेटे को बिगाड़ने वाले दुलार देने के लिए. मेरी हर शिकायत का एक ही तो जवाब है उसके पास. और…और मुझे ज्यादा फिक्र इस बात की है कि मेरा बेटा भी खसम की तरह बनता जा रहा है. न पढ़ता है न मेरी इज्जत करता है. और दीदी, जब उसकी टीचर ने उसकी शिकायत की तो घर लौटकर इसका दोष भी मेरे मत्थे मढ़ दिया उस नासपीटे ने.”
“हम्म, ट्यूशन भेजती हो बेटे को?” कंचन का सोच में डूबा स्वर था.
“हां, पूरे पांच सौ लेती है मास्टरनी एक घंटे के.”
“और तुम समझती थीं कि उसकी बेटी को थोड़ा-सा शब्द ज्ञान देकर तुम्हारे कर्तव्य की इतिश्री हो गई? हुंह, पढ़ाना या मुझसे बचने का बहाना?” बस पांच मिनट के लिए अकेली पड़ी थी कंचन और उस आत्मा के व्यंग्य वचनों के बाद हृदय विदारक हंसी उसके रोंगटे खड़ी कर गई.
कांता के बेटे और उसके जैसे दूसरे बच्चों को बिना पैसे पढ़ाने का निर्णय लेना आसान न था. उन्हें सही रास्ते पर लाना तो और भी मुश्क़िल पर कंचन जूझती जाती… कांता की दूसरी समस्याओं के समाधान भी ढूंढ़ती, सुझाती जाती.
जैसे-जैसे कंचन के मन में कांता की समस्याओं का समाधान करने की धुन बढ़ती जा रही थी, आत्मा का डर कम होता जा रहा था. कल वो दिन था जब कांता अपने घरवाले को लेकर आने वाली थी. कंचन को उसे बहुत सी बातें समझानी थीं. बेटी को स्कूल में दाख़िला दिलाने से लेकर सभ्रांत कहे जाने वाले अभिभावकों से तो हज़ारों बार हर तरह की बातें की थीं, पर आज रह-रहकर आत्मबल डोल रहा था. मन में इस तबके के पुरुषों के प्रति पहले से समाज के बनाए दुराग्रह थे या कांता की बातों से बनी छवि, उसे समझाना अपने बस की बात लग नहीं रही थी. रातभर जैसे कोई लेक्चर तैयार करती रही, सोचती रही कि कैसे शुरू करेगी पर जब वो पान चबाए, चेहरे पर ग़ुस्सा लिए एक ठसक के साथ आकर बैठा तो सब कुछ भूल गई. कितना ग़ुस्साती थी बच्चों पर, जब वो इतनी अच्छी तरह समझाए उत्तर परीक्षा में भूल जाते थे. आज समझ में आया, तभी याद आया- एक ग्लास ठंडा पानी और कुछ गहरी सांसें… और वो पानी लाने के बहाने वहां से हट गई. पर रसोई में पानी की टंकी के ऊपर अपनी पूरी भयानकता के साथ हंसती आत्मा ने शरीर में एक झुरझुरी दौड़ा दी.
“डर गईं? ऐसे ही मैं सबकुछ भूल गई थी जब वक़ील ने आड़े तिरछे अश्लील प्रश्न करने शुरू किए, लेकिन मैंने ख़ुद को सम्हाला, सामना किया, मुझे आत्मबल जुटाना ही था, क्योंकि मेरी अपनी जान पर बीती थी, अपनी जान पर!” आत्मा ने सीना ठोंका और उसके चहेरे का विषाद गहराता गया, उसकी आंखों में लगा कि फिर ख़ून के आंसू आ गए हैं. लेकिन इस बार कंचन के मुंह से चीख़ नहीं निकली. उसका मन भागने का नहीं हुआ. मन हुआ, बढ़कर उसके आंसू पोंछ दे. पर उसने डांट लगाई, “क्या करेगा वो? ज़्यादा से ज़्यादा चार बात सुनाकर बेइज़्ज़त ही तो कर लेगा, और क्या?” फिर एक ठंडी सांस लेकर बोली, “इज़्ज़त सबको प्यारी होती है, सबकी कमज़ोरी सम्मान है.”
तभी आवाज़ आई,“काहे को बुलाया मेरे को? जा रहा है मैं.” कंचन पलटी और आत्मा ग़ायब… पर उसके शब्द हवा में तैरते रहे – इज़्ज़त सबको प्यारी होती है, सबकी कमज़ोरी सम्मान है.
ट्रे में जूस, पानी और कुछ नाश्ता सजाए कंचन बैठक में पहुंचकर बोली, “नहीं भैया, अभी कैसे जाएंगे. मैं तो बस ये सब लाने गई थी, पहले कुछ खा पी लीजिए फिए बात शुरू करें.”
इस अनपेक्षित सम्मान ने उसकी भंगिमा पर और उसकी बदली हुई भंगिमा ने कंचन के आत्मबल पर अपना जादुई असर दिखाया. क्या बोला, कैसे समझाया ये याद नहीं. कंचन को होश तो तब आया जब वो फूट-फूटकर रोने लगा, “हां, मैं ग़लत है, पर मैं क्या करे. दिनभर साहब लोगों की बेइज्जती सहकर और कमर तोड़ काम करके थक जाता हूं और ग़ुस्सा जाता है मैं, मैं भी इनसान हैं…” वो बोलता जा रहा था और कंचन अवाक्! क्या आत्मा के आख़िरी शब्द उसको क़ाबू करने का संकेत थे? क्या वो उसे हिम्मत देने आई थी?
उसे लगभग हर बात के लिए राज़ी कर लेने की संतुष्टि पलकों में ऐसी बसी कि रात को बरसों बाद कुछ ही देर में नींद आ गई.
“तुम तैयार नहीं हुईं? भूल गईं आज वीना जी का सेशन है?”
पति के पूछने पर कंचन मुस्कुराई, “अब वहां जाने की ज़रूरत नहीं.”
“मतलब, तुम्हें वो आत्मा दिखनी बंद हो गई?” पति ख़ुशी से उछल उछल पड़े.
कंचन ने धीरे से ‘हां’ में सिर हिला दिया और मन ही मन बुदबुदाई, ‘दिखना तो बंद नहीं हुई, पर अब मुझे उससे डर नहीं लगता, बल्कि शायद मैं उससे बात करने को उत्सुक रहने लगी हूं. शायद मैं चाहने लगी हूं कि एक बार वो खुलकर रोए, खुलकर मुझे कोसे और मैं उसे सांत्वना दूं, उससे माफ़ी मांगू. सतर्कता के कितने नियम समझाएं हैं उसने मुझे पिछले डेढ़ सालों में, कांता के घरवाले को हैंडिल करने की हिम्मत और संकेत भी शायद उसी ने दी. इन सबके लिए उसे धन्यवाद दूं.”
आज सुबह आंख खुलते ही बालकनी में आत्मा दिखाई दी. उसके चेहरे पर विषाद की छाया कुछ ज़्यादा गहराई हुई थी. पति शायद वॉशरूम गए थे. कुछ देर भय से सुन्न रहने के बाद कंचन उठ पाई तो कमरे के बाहर भागने के बजाए पैर जाने किस प्रेरणा से बालकनी की ओर बढ़ने लगे, “क्या हुआ, आज सुबह-सुबह?” कंचन ये बोलने के बाद अपने ही लहजे पर अवाक् रह गई. मन में भय का अपार भंडार था और बोल वो ऐसे रही थी, जैसे किसी प्रिय सखि से बात कर रही हो, जो पति के जाने के बाद गप्पें मारने आया करती हो.
“आज मेरी मां की भी सालगिरह है और उस घटना की भी,” उसने एक लंबी ठंडी आह भरी और फिर बोली, “सात लंबे और उदास साल बीत गए! सात साल से मेरे घर में कोई त्यौहार नहीं मनाया गया. जब तक न्याय नहीं मिलता, मनाया भी नहीं जाएगा.”
आज निवेदिता जी के यहां होने वाली मीटिंग का विषय किसी पीड़ित को न्याय दिलाने के लिए चल रहे संघर्ष में सहयोग के लिए साधन जुटाना था. संयोग से इस बार की पीड़िता ‘वही’ थी. निवेदिता जी एक समाज सेविका थीं, जो नशा मुक्ति और ग़रीब तबके के बच्चों की प्रतिभाओं की खोज और विकास जैसी कई गतिविधियों के साथ जुड़ीं थीं. कंचन ने उन्हें कांता की समस्याओं के समाधान के लिए ढूंढ़ा था और अब उनकी संस्था को अपना एक घंटा दे दिया था.
“क्यों न हम एक बार ‘उस’ लड़की के अभिभावकों से मिलने भी चलें?” कंचन का खोया-सा स्वर सुनकर निवेदिता मुस्कुराईं.
“उससे क्या होगा?”
“उन्हें सांत्वना मिले शायद…”
एक अजीब-सा एहसास था उस घर की हवाओं में. सादगी थी पर सूनापन नहीं, उदासी थी पर निराशा नहीं, उसके अभिभावक अकेले थे, पर चेहरे पर अकेलेपन का कोई निशान नहीं. ‘उसके’ कमरे में पहुंचकर तो जैसे कंचन ख़ुद में रह ही नहीं गई. इकलौती संतान थी वो. ख़ूबसूरती से लैमिनेट की हुई जाने कितने पुरुस्कार लेती हुई तस्वीरें लगी थीं. एक-एक तस्वीर ‘उसके’ बहुमुखी व्यक्तित्व की परतें खोलती जा रही थी. निगाह बीचोंबीच लगी तस्वीर पर पहुंची तो चौंक गई. वो तो उसकी उस दिन की तस्वीर थी, जो मीडिया ने खींची थी. क्षत-विक्षत! बिल्कुल वही रूप जो कंचन को आत्मा के रूप में दिखाई देता था. कंचन को आज भी याद था जब रिपोर्टर के सामने उसने मुंह से कपड़ा हटाकर कहा था, “मेरे चेहरे को डिज़िटलाइज़ करने या नाम छिपाने की ज़रूरत नहीं है. मेरे साथ केवल एक दुर्घटना घटी है और मैं दोषियों को सिर्फ़ इसलिए सलाखों के पीछे देखना चाहती हूं, ताकि वो दूसरों की दुर्घटना का कारण न बन सकें. उसके चारों ओर एक घेरे में अख़बारों में उसके दिए तेजस्वी बयानों के टुकड़ों की तस्वीरें थीं. उनमें वो बयान भी था, ‘‘वे उस समाज के लिए ख़तरा हैं, जिसमें आप भी रहते हैं!’
तस्वीर के नीचे जलते दिए में तो जैसे पूरे घर में बिखरी सात्विकता और आशावादिता घनीभूत हो गई थी. जाने कितनी देर कंचन उसकी तस्वीर पर पर यों हाथ फेरकर रोती रही जैसे उसके ज़ख़्मों को सहलाने, उसके बिखरे बाल समेटने की कोशिश कर रही हो. मन कह रहा था, ‘तभी वो ज़रा-सी बच्ची ऐसे बात करती, सुझाव देती थी जैसे उससे दुगुनी उम्र की हो.’
तभी कंधे पर ‘उसकी’ मां के हाथ के स्पर्श ने चौंकाया तो खुलकर रोने, सांत्वना देने का सिलसिला शुरू हुआ. कंचन का अपने साथ भविष्य में कोई दुर्घटना हो जाने का डर उस दुर्घटना के अफ़सोस में, सच्चे पश्चाताप में बदल चुका था. एक कली खिलने से पहले ही मुरझा गई थी, एक ख़ुशनुमा ज़िंदगी ने मौत की मनहूस चादर असमय ओढ़ ली थी. सिर्फ़ उसकी कायरता के कारण. उसकी सहानुभूति समानुभूति बन गई, “ओह! तो आप सालों से सामाजिक कार्यकर्ता हैं. आपने दूसरों का साथ देने के लिए खुलकर विरोध किया और इसलिए आपकी बेटी के साथ ये हादसा हुआ? अगर ख़ामोश रहते तो शायद…” बोलने को तो कंचन बोल गई पर अपनी ही ज़बान काट ली. वो उन्हें सांत्वना देने आई है या ज़ख़्म कुरेदने.
पर जवाब एक सात्विक मुस्कान के साथ आया, “हो सकता है कि आपकी बात ठीक हो. पर हमारा सोचना कुछ अलग है. हादसा हो भी सकता था और नहीं भी. पर बुराई को उपेक्षित करने पर भी सिर पर तलवार की तरह तो लटका ही रहता. रोज़ बहुत से ऐसे लोगों के साथ भी हादसे होते रहते हैं, जिन्होंने कभी किसी का विरोध नहीं किया. पर हमारे घर में मेरी बेटी ने बचपन से जो निर्भीक माहौल देखा था, उसने उसे गिरकर उठने की हिम्मत दी. लड़ने की हिम्मत दी. छः महीने में वो बिल्कुल सामान्य हो गई थी, खुलकर हंसने लगी थी. उसकी शहादत के बाद भी हमारे इसी नज़रिए और सामज-सेवाओं के कारण हमें समाज का इतना संबल और सहयोग मिला है कि हम इंसाफ़ की लंबी लड़ाई लड़ पा रहे हैं.”
“क्या आपको यक़ीन है कि इंसाफ़ मिलने से आपकी बेटी की आत्मा को शांति मिल जाएगी?”
“मेरी बेटी की आत्मा तो परमात्मा में विलीन हो चुकी है. उसके साथ कण-कण में विद्यमान होकर हमारे साथ ही रहने लगी है. हमारे दिल में बस गई है वो- हौसला बनकर, विश्वास बनकर. हम उसके लिए नहीं लड़ रहे. हम तो उन गुनहगारों के कारण असुरक्षित होने वाली दूसरी लड़कियों के लिए संघर्ष कर रहे हैं और इसीलिए यक़ीन है कि हम क़ामयाब होंगे.”
“क्या आपको अभी भी उम्मीद है कि ‘वो’ दम्पति कभी बयान देने आएंगे?” कंचन ने फिर ये बोलकर ज़बान काट ली. आज उसकी ज़ुबान क्या बोल रही है, उसे ख़ुद पता नहीं. मगर उन्हें बड़े प्यार से मुस्कुराते देख वो हतप्रभ रह गई.
“उनका आना तो पहला क़दम है. अदालत में गवाही देने से पहले तो उन्हें बातचीत में दक्षता के अभ्यास की लंबी प्रक्रिया से गुज़रना होगा. नहीं तो बचाव पक्ष के वक़ील के पहले प्रश्न में ही वो धराशाई हो जाएंगे कि आपको सात सालों बाद उनकी शक्ल याद कैसे है. मगर हमें यक़ीन है कि वो सीख लेंगे,” ‘उसकी’ माँ ने ये कहते हुए बड़ी ममता के साथ कंचन के कंधे पर हाथ रखते हुए ऐसे आंखों में आंखें डाल दीं, जैसे सब जानती हों.
“वो कैसे” अवाक कंचन के मुंह से निकला.
“उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए जिस वॉलेंटियर ने नाम लिखाया हुआ है, वो इस काम के लिए प्रसिद्ध हैं. वैसे भी ज़मीर हमारे भीतर बसा परमात्मा का अंश है, जिसके भीतर ये जग गया उसके लिए दुनिया में कुछ भी नामुमक़िन नहीं.”
इसके बाद जो बोला पश्चाताप के आंसुओं ने ही बोला. शब्दों की तो इतनी सामर्थ्य थी ही नहीं.
एक महीने के सख़्त प्रशिक्षण के बाद आज अदालत जाने का समय आ ही गया. ढाई बजे दिन का समय मिला था. कंचन ने जानबूझकर पति को ऑफ़िस भेज दिया. ताकि अकेले में उस आत्मा से बतिया सके. आज वो बहुत ख़ुश और उत्साहित थी. थोड़ी नर्वसनेस भी थी पर…
लगभग एक घंटे पुकारने के बाद, कोना-कोना देखने के बाद भी जब वो नज़र नहीं आई तो कंचन रो पड़ी, “कहां हो तुम? देखो मैं अकेली हूं, कोई नहीं है मेरे पास. धीरे-धीरे उसकी रुलाई सिसकियों में बदल गई पर फिर भी ‘वो’ नज़र नहीं आई तो कंचन हाथ जोड़कर सिर झुकाकर घर के मंदिर के आगे चुपचाप बैठ गई और मन ही मन पुकारा, ‘कहां हो तुम? आज तुम्हरी बरसों की मुराद पूरी होने जा रही है तो मुझे हिम्मत देने नहीं आओगी?’ पलकें बद कीं तो उसकी धुंधली-सी सूरत दिखाई दी. कंचन ने पूरी एकाग्रता के साथ सारी इंद्रियां केंद्रित कर दीं पर वो सूरत साफ़ नहीं हुई, पर एक हल्की-सी आवाज़ कानों, नहीं, नहीं मन में गूंजी, “जो हो गया उसे ठीक नहीं किया जा सकता मगर हां, जो ग़लत होने जा रहा है उसे रोका जा सकता है. मैं यहां अपने नहीं, तुम्हारे लिए आती थी. मुझे तुम्हारी नहीं, तुम्हें मेरी सहायता की ज़रूरत थी. तुम्हारा ज़मीर ज़िंदा था, बस उसकी सुनने का आत्मबल नहीं था तुम्हारे पास. अब वो आ गया है. अब तुम्हें मेरी कोई ज़रूरत नहीं…’’ कंचन को लगा आत्मा का बिदा लेता चहेरा रूप बदल रहा है. श्रद्धा का पात्र होता जा रहा है. उसमें वात्सल्य है, करुणा है, ज्ञान है, वो ज्योति पुंज बनता जा रहा है. उसकी आंखें झटके से खुल गईं, पर वहां सामने मंदिर में स्थापित श्रीकृष्ण की तेजस्वी मूर्ति के अलावा और कुछ नहीं था!
फ़ोटो: पिन्टरेस्ट, sara-arasteh.com