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प्रेम प्रेम और प्रेम: नीरज कुमार मिश्रा की कहानी

टीम अफ़लातून by टीम अफ़लातून
June 7, 2023
in नई कहानियां, बुक क्लब
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प्रेम प्रेम और प्रेम: नीरज कुमार मिश्रा की कहानी
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प्रेम… जैसे इस शब्द की परिभाषा हर व्यक्ति के लिए अलग है, बिल्कुल वैसे ही इसकी परिणिति भी हर व्यक्ति के अलग सी हो जाती है. फिर भी प्रेम यदि एक बार किया जाए तो वह ताउम्र बना रहता है. कुछ इसी रह के ताने-बाने से बुनी गई है यह प्रेम कहानी, जो आपके मन में प्रेम की मिठास छोड़ जाएगी. 

 

रजनीश, हां,भला इस नाम को मैं कैसे भूल सकती हूं? यह वही नाम है जिसे मैं सबसे छुपाकर अपनी हथेलियों और किताबों के पन्नों पर लिखा करती थी. यह नाम मेरी हर सांस में सुगंध की तरह रच-बस गया था.

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मैं तीन महीने की गर्भवती थी पर फिर भी जब विश्वविद्यालय में वादविवाद प्रतियोगिता को जज करने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया, तब मैं टाल नहीं पाई. सासू मां ने जाने से पहले मुझे ढेरो नसीहतें दे दी थीं.

मंच पर अपनी बात रखते वक्ता और अपनी बात को और मज़बूत बनाने के लिए तर्क करते ये युवा प्रतिभागी मुझे हमेशा से अच्छे लगते आए हैं. विश्वविद्यालय जाने से पहले मैंने अपनी पसंदीदा हल्के पीले रंग की साड़ी पहनी थी और आईने में देखकर अपने बालों की एक लट निकालना नहीं भूली थी.

जीवन के तीसवें वर्ष में भी ख़ुद को संवारना बहुत अच्छा लगता था, मुझे क्योंकि साज-संवार अच्छी हो तो मन में एक अलग तरह का आत्मविश्वास बना रहता है, पर मेरा आत्मविश्वास पतझड़ में गिरे हुए उस पत्ते की तरह हो गया था, जो हवा के एक झोंके के आने पर इधर-उधर उड़ने लगता है, जैसे ही मेरे कानों में मुख्य अतिथि के नाम की आवाज़ गूंजी तो पहले तो मुझे लगा कि नहीं, एक नाम के बहुत से लोग हो सकतें हैं और फिर भला मेरी किस्मत में अब दोबारा रजनीश से मिलना कहां हो पाएगा? पर नहीं, किस्मत इतनी भी बुरी नहीं थी मेरी.

रजनीश पल्लव, यही नाम पुकारा गया था और जब रजनीश मंच पर आए और अपनी उसी सौम्य मुस्कान के साथ हाथ जोड़कर सबका अभिवादन किया, मेरी नज़र रजनीश पर पड़ी. हां, ये वही रजनीश तो है, जिससे दस साल पहले एकतरफ़ा प्रेम किया था मैंने. नहीं, वह प्रेम दोनों तरफ़ से था. बस इकरार ही तो नहीं किया था उसने. मेरी नज़र रजनीश के समूचे व्यक्तित्व पर फिसलने लगी थी. अब भी उतनी ही ताज़गी है उसमें, बालों को थोड़ा सा लंबा कर रखा है. बड़े पद पर है तो सम्भवतः कटिंग के लिए समय नहीं मिलता होगा. चेहरे पर अब भी वही सात्विकता का तेज और एक तरह की ईमानदारी की झलक थी. हां, पर चश्मा ज़रूर लग गया था… पर इस चश्मे के कारण किसी से कम नहीं लग रहे था वह, बल्कि उसकी ख़ूबसूरती बढ़ ही गई थी.

“आप हमारे जिले के उप जिलाधिकारी साहब हैं और आप हमारे विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफ़ेसर साहिबा.”

भाटी जी ने मेरा परिचय कराया. मैंने एक मुस्कुराहट के साथ अभिवादन किया और तभी मेरी नज़रें रजनीश से टकराईं. रजनीश भी मुझे पहचान गए थे यह बात उनकी आंखों में पढ़ ली थी मैंने. इतने लंबे वक़्त का फ़ासला भी प्रेम को ख़त्म नहीं कर पाया था. एक झटके में ही मैं अपने आपको तीस साल से बीस वर्ष की महसूस करने लगी थी. इस बीच प्रतियोगिता शुरू हो चुकी थी. रजनीश मेरी कुर्सी के पास ही बैठे हुए थे. मेरा पूरा ध्यान रजनीश पर ही था. मैं कनखियों से उसकी तरफ़ देखने का प्रयास कर रही थी, पर रजनीश तो प्रोग्राम में ही लीन थे. हमेशा की तरह अपने लक्ष्य पर पूरी तरह केंद्रित, पर मेरे लिए अब केंद्रित होना कठिन था. मेरे जीवन की शांत झील के पानी को कंकड़ मार कर झिंझोड़ दिया था और यह और कोई नहीं बल्कि रजनीश ही थे.

पूरी ईमानदारी से प्रतियोगियों की प्रतिभा का आकलन करके उन्हें सम्मानित किया था रजनीश ने. कार्यक्रम के बाद गेस्ट हाउस में चाय नाश्ते का इंतज़ाम रखा गया था, पर रजनीश नहीं रुके, अलबत्ता मेरे पास आकर इतना ज़रूर बोले, ‘‘आज तुमसे इतने साल बाद मिलकर बहुत अच्छा लगा. अब मैं तुम्हारे शहर में ही आ गया हूं इसलिए मुलाक़ात होती रहेगी.” यह कहते हुए अपना कार्ड आगे कर दिया था रजनीश ने और मैंने भी कार्ड पर लिखे नंबर पर तुरंत ही काल करके फ़ोन कट कर दिया, जिससे रजनीश के मोबाइल पर मेरा नंबर पहुंच जाए.

घर पर आकर चाय पीने का वादा करके रजनीश बाहर की ओर चल दिए, हम मिलकर भी मिल कहां पाए थे?

घर पहुंची तो मेरी सास को मेरा मूड कुछ उखड़ा सा लगा तो उन्होंने चाय ऑफ़र की तो मैंने भी ‘हां’ कर दी और चाय का कप लेकर अपने कमरे में आ गई. अविनाश को ऑफ़िस से आने में देर थी, सो मैं न चाहते हुए भी अपनी पिछली ज़िंदगी की यादों में गोते लगाने लगी.

उस समय मैं बीए प्रथम वर्ष में थी. इस उम्र में जज़्बात अपने चरम पर होते हैं और अपने को ही सही मनवाने की ज़िद भी तो होती है. मैं भी ज़िद्दी थी. बहुत जल्दी कोई भी फ़ैसला ले लेना मेरी चारित्रिक विशेषता थी. रजनीश हमारे मकान के एक कमरे में किराए पर रहने के लिए आया था. बेहद शांत रहता था वह. कई बार बोलने पर एक बार ही उत्तर देता था. उसने केवल इतना बताया था कि उसके घर में बड़ी बहन है और एक छोटा भाई है, घर में खेती है जो उसके पापा देखते है और वे सब यही चाहते हैं कि रजनीश पढ़े-लिखे और बड़ा अधिकारी बने इसीलिए रजनीश भी ख़ूब पढ़ाई करता. उसके कमरे में देर रात तक लाइट जलती रहती थी.

सुबह जब अपनी स्कूटी लेकर प्रिया मुझे पिक करने आई तो उसने भी रजनीश को देखा और रास्ते भर वह उसकी तारीफ़ करते नहीं थकी.

“देख तो सही, कितना सजीला लड़का है. शांत, सौम्य और हैंडसम. तेरी तो सेटिंग हो ही गई होगी उससे.” प्रिया ने यह कहा तो प्रत्यक्ष में तो मैंने ‘धत’ कहकर उसकी बात काट दी, पर सच तो ये था कि रजनीश के साथ मेरा नाम जोड़ा जाना मुझे अच्छा लगा था और उसी दिन से रजनीश के प्रति मेरी सोच बदल गई थी. मैं अब उसे अपने जीवनसाथी के रूप में देखकर रोमांचित हो रही थी और मां-पापा का भरोसा भी हासिल कर लिया था रजनीश ने. तभी तो कभी-कभी मां और पापा दोनों एक साथ बाज़ार आदि चले जाते और वापिस आने में उन्हें दो-तीन घंटे लगते इस बीच पूरे मकान में सिर्फ़ मैं और रजनीश ही अकेले रह जाते थे. मकान में एक युवा लड़के के साथ अकेले रहना मुझे कुछ रोमांचित करता तो कभी डर भी पैदा करता था पर अनुभवी मां-पापा ने शायद रजनीश की निष्ठा को पढ़ लिया था, तभी तो वे मुझे अकेला छोड़ने में भी नहीं हिचकते थे.

मैं कई बार उसके कमरे के सामने से निकलती. मोबाइल को कान से लगाकर सहेलियों से बात करने का बहाना करती, पर उस पर कोई असर नहीं पड़ता. वह अपनी नज़रें झुकाए पढ़ता रहता. कभी-कभी तो उसकी इस हरकत पर मुझे झल्लाहट भी हो जाती, “अरे तो इतना भी पढ़ीस क्या बनना कि इधर-उधर की खोज-ख़बर ही न रहे.”

“अरे अगर वह इतना ही ईमानदार है तो तू थोड़ी बेईमान बन जा न.” प्रिया ने मेरा हौसला बढ़ाया. ये कहना ग़लत नहीं होगा कि मैं भी अंदर ही अंदर रजनीश से प्रेम कर बैठी थी और इज़हार करना चाहती थी और इसका मौक़ा मुझे जल्द ही मिल गया. जब मां और पापा घर में नहीं थे, तब मैं रजनीश के कमरे में बेधड़क घुस गई और जाकर रजनीश के हाथों को अपने हाथ में ले लिया. रजनीश उस समय बिस्तर पर लेटा हुआ था. मेरी इस हरकत से वह चौंक गया. उसकी सवालिया मज़रें मेरी तरफ़ तनी हुई थी. वह फौरन ही पीछे हट गया और मुझसे चले जाने को कहा. रजनीश से ऐसे व्यवहार की आशा नहीं थी मुझे. मेरे अहंकार को चोट तो लग चुकी थी इसलिए मैं ग़ुस्से में कमरे से बाहर निकल आई और अपने कमरे में मुंह छिपाकर लेट गई.

क़रीब आधे घंटे के बाद कमरे के दरवाज़े पर आहट हुई. कनखियों से देखा तो रजनीश ही था.
“ख़ाली नखरे दिखा रहा था. अब आ गया न मेरे चक्कर में,” मैंने सोचा.

रजनीश धीरे से पास आया और कहने लगा, “हो सकता है तुम्हे मुझे प्रेम हो गया हो, पर अंकल और आंटी मुझ पर भरोसा करते हैं और मैं उन्हें धोखा देना नहीं चाहता. तुम अभी कच्ची उम्र में हो इसलिए दुनियादारी नहीं जानती. हम छोटी जगह से आए लड़कों के लिए अपना करियर प्यार-व्यार से ज़्यादा मायने रखता है.” वह कुछ देर ठहरा और फिर उसने कहा कि वह चाहे तो बड़ी आसानी से मेरे भोलेपन का फ़ायदा उठा सकता है, पर वह ऐसा नहीं करेगा… क्योंकि वह अपने जीवन और माता-पिता के प्रति समर्पित रहना चाहता है इसलिए वह गिरेगा नहीं, बल्कि ख़ुद को उठाने की कोशिश करेगा और अब शायद यहां रहना भी उसके लिए ठीक नहीं होगा इसलिए जल्द से जल्द वह यह जगह भी छोड़ देगा. फिर रजनीश ने मुझे यह सब छोड़कर पढ़ाई पर ध्यान देने की बात कही.

चूंकि मेरी ईगो को चोट लगी थी इसलिए मुझे रजनीश की सारी बातें बनावटी लग रही थीं. मुझे लगा कि ये सब दिखावे की बातें हैं और ऐसी बातें वह मुझे और अधिक इम्प्रेस करने के लिए कर रहा है, पर मैं ग़लत थी. तीन या चार दिन बाद रजनीश ने कमरा छोड़ दिया था और वह कहां गया था यह हमें से कोई नहीं जानता था.

मैं अंदर से टूट गई थी. पहला प्यार मिलने से पहले से विछोह का दर्द सहा था मैंने. कितने ही दिन मानसिक अवसाद में रही, मैं नहीं जानती. बार-बार रजनीश का स्वर मेरे कानो में गूंजता था कि पढ़ाई करो, करियर बनाओ. तुम्हारी सफलता ही तुम्हारी पहचान है. मैं करियर भी बना लेती रजनीश, पर तुम एक बार यह तो कह सकते थे कि हां तुम भी मुझसे प्रेम करते हो. शायद ऐसा कहकर तुम कमज़ोर नहीं पड़ना चाहते थे और तुम्हारा चुपचाप चले जाना इस बात की पुष्टि करता है कि तुम्हें भी डर था कि तुम मेरे प्यार में पड़ सकते हो. मैं जानती हूं कि तुममें बुद्ध बनने की पूरी संभावना थी और आज जब तुम बुद्ध बनकर किसी पुष्प की भांति खिल चुके हो, तब जीवन ने तुम्हें मुझसे फिर मिलवा दिया है, पर अब क्या? अब मिलने से हमारा प्रेम तो पूर्ण नहीं हो सकता. लेकिन क्या प्रेमी से विवाह हो जाना ही प्रेम की परिणिती है? मैं अब विवाहित हूं और बच्चे की मां बनने वाली हूं इसलिए खुलकर किसी से कुछ कह नहीं सकती, क्योंकि समाज फिर ऐसी महिला को सहन नहीं कर पाएगा. बस, यही सोचकर रजनीश का नंबर डायल करके भी काट दिया था मैंने.

“क्यों गुमसुम रहती हो? इसका असर हमारे बच्चे पर भी पड़ेगा.” अविनाश ने मेरे माथे पर हाथ रखते हुए कहा तो बदले में मैं मुस्कुरा भर दी.

डिलीवरी का समय नज़दीक आ रहा था, सो मैंने छुट्टी ले ली थी और पढ़ने के शौक़ को पूरा कर रही थी. आख़िरकार यह शौक़ भी तो रजनीश ने ही दिया था मुझे, तभी तो रजनीश की दी हुई प्रेरणा से पढ़-लिखकर पीएचडी कर पाई और प्रोफ़ेसर बन सकी.
डिलीवरी की तारीख़ से पहले ही मुझे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. डिलीवरी सीज़ेरियन करनी पड़ी.

वॉर्ड में आने के बाद, जब मैंने आंखें खोलीं तो डॉक्टर ने मुझसे कहा, ‘‘बधाई हो बेटा हुआ है,” और मुस्कुराते हुए आगे बोलीं, “हम चाहते हैं कि बच्चे की मां ही अपने बेटे को सबसे पहले नाम से पुकारें. क्या आपने बेटे का कोई नाम सोच रखा है?”
“र…रजनीश…” मेरे मुंह से अस्फुट स्वर निकला.
मैंने देखा कि अविनाश तो पास में खड़े ही थे और उनके पास ही रजनीश भी खड़े मुस्कुरा रहे थे.

फ़ोटो: पिन्टरेस्ट

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