जीवनभर हम किसी न किसी से कोई न कोई उम्मीद लगाए रहते हैं. हमारी कुछ उम्मीदें किस्मत से हुआ करती हैं, कुछ अपने आप से और कुछ अपने से जुड़े हुए रिश्तों से. सबसे ज़्यादा मुश्क़िल हमें होती हैं दूसरों से उम्मीद लगाने पर और उस उम्मीद के टूटने पर. किसी भी रिश्ते में बंधने पर उस रिश्ते से हमारी कुछ उम्मीदें हुआ करती हैं और उन्हीं उम्मीदों का टूटना सबसे ज़्यादा दर्द देता है, भावनात्मक रूप से कमज़ोर करता है. तो इन उम्मीदों को कैसे मैनेज किया जाए यही बात बता रही हैं भारती पंडित.
रिश्ते हम सबकी ज़रूरत होते हैं और उनसे जुड़ा शब्द है उम्मीद, जो साढ़े तीन अक्षरों का मगर बेहद मुश्क़िल सा शब्द है, लेकिन हमारे जीवन का हर हिस्सा, हरेक रिश्ता किसी न किसी उम्मीद पर टिका रहता है. जीवनभर हम किसी न किसी से कोई न कोई उम्मीद लगाए रहते हैं. हमारी कुछ उम्मीदें किस्मत से हुआ करती हैं, कुछ अपने आप से और कुछ अपने से जुड़े हुए रिश्तों से, उन रिश्तों में बंधे हुए लोगों से. किस्मत से उम्मीद करते समय हम इतने अधीर नहीं होते, क्योंकि हम जानते हैं कि किस्मत से मिलने की उम्मीद 50-50 ही होगी. अपने आप से उम्मीद लगाते हुए भी हम ख़ुद की क्षमताओं का ध्यान रखते हैं, अपने आप को हौसला देते हैं, हड़काते हैं और फिर बढ़ जाते हैं. लेकिन सबसे ज़्यादा मुश्क़िल हमें होती हैं दूसरों से उम्मीद लगाने पर और उस उम्मीद के टूटने पर. किसी भी रिश्ते में बंधने पर उस रिश्ते से हमारी कुछ उम्मीदें हुआ करती हैं और उन्हीं उम्मीदों का टूटना सबसे ज़्यादा दर्द देता है, भावनात्मक रूप से कमज़ोर करता है.
उम्मीदों को व्यावहारिकता की कसौटी पर कसें
यह तो नहीं कहा जा सकता कि रिश्तों से उम्मीद लगानी ही नहीं चाहिए, क्योंकि हर रिश्ते में कुछ सामान्य उम्मीदें शामिल होती ही हैं जैसे- आदर, परवाह, स्नेह आदि जिनके बिना वह रिश्ता चल नहीं सकता पर इसके अलावा भी ऐसी ढेर सारी अपेक्षाएं होती हैं, जो हम सामने वाले से किया करते हैं. और ये उम्मीदें हम अपनी क्षमताओं के मुताबिक़ तय करते हैं. उदाहरण के लिए मैं समय की बहुत ही पाबंद हूं और दूसरे से भी यही अपेक्षा करती हूं. पर सामने वाले की परवरिश ऐसे माहौल में हुई है जहां उसे समय की पाबंदी का कोई ख़ास महत्त्व नहीं लगता तो मेरी उससे यह उम्मीद शायद ही पूरी होगी. या इससे भी सामान्य उदाहरण लें तो मुझे फ़ोन पर बात करना बहुत पसंद है और मैं अपने मित्र से यही उम्मीद करती हूं कि वह फ़ोन पर लम्बी बातें करें, मगर मेरे मित्र को लम्बी बात करना समझ में ही नहीं आता या मुझे फ़िल्में देखना बहुत पसंद है, मगर मेरे साथ जुड़ा व्यक्ति फ़िल्म देखना पसंद नहीं करता, मुझे सर्प्राइज़ पसंद है पर सामने वाले को यह फ़िज़ूल लगता है.
सार्थक रिश्ते सुदृढ़ आधार देते हैं
हमें हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि हरेक व्यक्ति अलग-अलग है, उसका परिवेश, परवरिश और व्यक्तित्व एकदम अलग है. अब यदि मैं इस तरह की उम्मीदें उससे लगाती हूं, जो उसके स्वभाव में ही नहीं है, तो यह न केवल उसके साथ वरन इस रिश्ते के साथ भी अन्याय होगा. और जब सामने वाले को बिना जाने-समझे उस पर इस तरह की उम्मीदें थोपी जाने लगेंगी तो रिश्ते में खटास आना स्वाभाविक ही है. रिश्ता लंबा चले, इसकी शर्त ही यही होती है कि आप रिश्ते में रहते हुए भी अपने आप में पूर्ण रहे. मुझे रिश्ते को लेकर अक्सर कही जाने वाली यह बात ही ग़लत लगती है कि कोई रिश्ता हमें पूर्ण करता है, विशेषतः पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका का रिश्ता. पहली बात तो यह कि मनुष्य के रूप में हम अपने आप में पूर्ण होते हैं, यदि ऐसा नहीं होता तो वे लोग जी ही नहीं पाते जो किसी रिश्ते में बंधकर रहना नहीं चाहते. हां, यह कहा जा सकता है कि सार्थक रिश्ते हमें सुदृढ़ आधार देते हैं.
आपका इमोशनल बैलेंस आपकी ज़िम्मेदारी है
इस मामले में दूसरी बात यह कि अपनी भावनात्मक स्थिति को संतुलित करने का भार किसी रिश्ते पर या उससे जुड़े व्यक्ति पर डालना ग़लत है. आपका भावनात्मक संतुलन पूर्णतः आपकी ज़िम्मेदारी है और उसके लिए आपको ही प्रयास करने होंगे. वास्तव में पूर्ण होकर या स्वतन्त्र होकर जीना मुश्क़िल होता है, क्योंकि ऐसे में हमारी सारी ज़िम्मेदारी हमारे ऊपर आ जाती है पर एक बार स्वतन्त्र होकर, पूर्ण होकर जीना सीख लिया जाए तो हम ख़ुद को और अपने रिश्तों को परेशानियों से बचा सकते हैं. मैं आत्मा और पुनर्जन्म पर पूरा विश्वास नहीं करती मगर फिर भी इस सम्बन्ध में शिवानी (ब्रह्मकुमारी) की एक बात मुझे अच्छी लगती है कि हम सब आत्माएं अपने-अपने संस्कार लेकर पैदा होती हैं और हरेक के संस्कार यानी उनका व्यक्तित्व एक-दूसरे से भिन्न होता है तो ऐसे में दूसरे से अपने जैसी अपेक्षाएं लगाना रिश्ते को ख़त्म करने की दिशा में बढ़ाया जा रहा कदम ही साबित होगा न?
तय करें कि आपको क्या चाहिए
रिश्ता जोड़ते समय यह स्पष्टता होना आवश्यक है कि आपको रिश्ते से क्या चाहिए और क्या सामने वाला व्यक्ति उस तरह का है कि आपकी इन अपेक्षाओं को पूरा कर पाएगा? कई बार हम सही उम्मीदें ग़लत व्यक्ति से लगा लेते है यानी मछली से पेड़ पर चढ़ने की अपेक्षा कर बैठते हैं और निराश होते हैं. आपको रिश्ते से क्या चाहिए, इसके लिए आपस में बात करनी होगी, स्पष्टता से और सरलता से. अधिकांश रिश्तों में खटास इसलिए भी आती है कि हम आपस में बात ही नहीं करते, बस मान लेते है कि ऐसा है और मन ही मन कुढ़ते रहते हैं. यदि रिश्ते में ज़्यादा से ज़्यादा संवाद की गुंजाइश बनाई जाएं, तो अधिकांश समस्याएं हल हो जाएंगी.
सीमाएं तय कीजिए
तीसरी और महत्वपूर्ण बात यह कि हर रिश्ते में सीमाएं तय करना बहुत ज़रूरी है. यहां सीमा का अर्थ है सामने वाले द्वारा की जा रही गड़बड़ी या अपेक्षा भंग को किस सीमा तक सहन किया जा सकेगा और हर व्यक्ति के लिए यह सीमा अलग-अलग हो सकती है. किसी के लिए एक बार की ग़लती मोह भंग का कारण बन सकती है तो कोई बार-बार मौक़ा दिए जाने में विश्वास रख सकता है. किसी के लिए मैसेज का जवाब तुरंत न दिया जाना भी परेशानी का कारण हो सकता है तो संभव है किसी के लिए थोड़ी-बहुत बेपरवाही उतनी मायने नहीं रखे. कहने का मतलब ये कि एक तो जिसके साथ रिश्ते में जुड़ रहे हैं, उसे जानने की कोशिश करें, उसकी भी सीमाओं को, क्षमताओं को समझें और अपनी आकांक्षाओं को भी समझें. दोनों को इस रिश्ते से क्या चाहिए इस पर खुल कर बात करें.
यदि नहीं निभ रही है तो मान लें
चौथी और सबसे ख़ास बात इस बात की स्वीकार्यता रखना है कि हरेक रिश्ता जीवनभर के लिए नहीं जुड़ सकता. कई बार रिश्ता जुड़ता तो है मगर जल्दी ही समझ में आ जाता है कि ज़्यादा दिन साथ चलना सधेगा नहीं, ऐसे में बजाय कि एक-दूसरे पर दोष मढ़ते हुए, परेशान होते हुए भी साथ जुड़े रहने की ज़िद की जाए, बेहतर होगा कि उसे यानी ख़ूबसूरत मोड़ देकर ख़त्म कर दिया जाए. दोनों के ही मानसिक स्वास्थ्य और ख़ुशहाली के लिए यह आवश्यक है. क्योंकि रिश्ते ख़ुशी के लिए होते हैं, स्नेह और अपनेपन का एहसास कराने के लिए होते हैं. यदि रिश्तों में यही स्वाद ग़ायब हो गया है तो ऐसे रिश्ते तकलीफ़ ही देंगे. हां, इसके लिए भी अंतिम सार्थक संवाद आवश्यक होगा ही.
फ़ोटो: फ्रीपिक