जगत मिथ्या और ब्रह्म सत्य है या ब्रह्म मिथ्या और जगत सत्य. ये विवाद सदैव से चलता आया है और चलता रहेगा. किंतु इसका उत्तर जानने के लिए अगर हम पुराणों की ओर जाएं और उनका सिर्फ़ पठन ही नहीं मनन भी करें तो पाएंगे कि हमारे व्रत, उपवासों में कोई तो वैज्ञानिक आधार छिपा है, जिन्हें यदि हम समझ लें तो इन्हें बनाने के उद्देश्य से परिचित हो सकेंगे. हो सकता है हमारे द्वंद्वग्रस्त मन को पूजा की सही विधि भी मिल जाए और अपने स्तर पर कुछ सार्थक करने का संतोष भी. यहां नवरात्र के सातवें दिन की पूज्य देवी कालरात्रि की पूजा की प्रासंगिकता पर चर्चा कर रही हैं भावना प्रकाश.
मां कालरात्रि, देवी का वो भयंकर तथा डरावना रूप है, जो उन्होंने राक्षसों के संहार के लिए धारण किया था. माना जाता है कि इनकी साधना से निर्भयता की प्राप्ति होती है. अब इनकी प्रासंगिक पूजा विधि की ओर बढ़ते हैं.
गांधीजी और उनके सिद्धांतों के प्रति पूर्ण श्रद्धा रखने वाले भी स्वतंत्रता संग्राम में झांसी की रानी, मंगल पांडे, भगत सिंह आदि के योगदान को सर्वथा नकार नहीं सकते. इसी प्रकार बुद्ध के बोध को अकाट्य मानने वाले भी राम और कृष्ण को ईश्वर मान, पूजते हैं, जिन्होंने न्याय के पक्ष में और अन्यायी को सज़ा देने हेतु भयंकर युद्ध रचे.
अभिप्राय ये कि अक्सर हमारे जीवन में अन्याय और दमन इतना बढ़ जाता है कि शोषण का रूप ले लेता है. कई बार अन्यायी का प्रतिकार केवल दृढ़ लेकिन विनम्र अडिगता से संभव नहीं होता. अंग्रेज़ी की एक प्रसिद्ध कहावत है – ‘थिंक फ़ार दि बेस्ट ऐंड प्रिपेयर फ़ॉर दि वर्स्ट’ अर्थात अच्छे से अच्छा सोचो और बुरे से बुरे के लिए तैयार रहो. इस बुरे के लिए ख़ुद को शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक रूप से तैयार करने की कला ही है, मां कालरात्रि की पूजा.
‘काल’ का अर्थ होता है निश्चित समय. ये शब्द मृत्यु, अंत या समाप्ति के लिए काफ़ी हद तक रूढ़ हो चुका है. हम सब जानते हैं कि सदियों से चले आ रहे अन्याय आज भी हमारे समाज में विद्यमान हैं. और शोषण के प्रति उग्र प्रतिरोध की आवश्यकता भी समीचीन है. चाहे वो किसी प्रकार की घरेलू हिंसा हो या कार्य स्थान पर होने वाला कोई आर्थिक या भावनात्मक अन्याय, अक्सर हमें उसके ख़िलाफ़ लड़ने के लिए अपने कोमल एवं सुंदर रूप का बलिदान देकर ‘कठोर’ रूप को अपनाना ही पड़ता है. और इसीलिए मां प्रतीकात्मक रूप में कालरात्रि की साधना आज के युग की सबसे बड़ी आवश्यकता बन गया है.
राह चलते सिरफिरों से अपनी हिफ़ाज़त के लिए उसकी आंख में काली पिर्ची का स्प्रे करना हो या किसी अत्याचारी को सज़ा दिलाने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी हो. इनके लिए जिस आत्मबल की ज़रूरत है, उसे अर्जित करने का सतत प्रयास ही है मां कालरात्रि की पूजा. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि कुछ ग़लत दिखते या किसी अत्याचार का शिकार होते ही हम अपनी क्षमता आंके के बिना ही शोषक पर टूट पड़ें. ध्यातव्य है कि अवतार आकस्मिक नहीं होते. लंबे संगठन के पश्चात लंबे समय के अनुरोध से देवी या ईश्वर अवतरित होते हैं. पौराणिक कथाओं में ये एक लंबी प्रक्रिया होती है. इसका क्या अर्थ है? अर्थ है, स्वयं के भीतर इन्हें अवतरित करने के लिए सतत साधना की आवश्यकता पड़ेगी. यदि एक लड़की, जिसने जीवन का केवल कोमल रूप ही देखा है, कभी किसी आपात स्थिति के लिए ख़ुद को तैयार नहीं किया, कोई मनचला राह में उसका हाथ पकड़ लेता है. उसके इरादे साफ़ हैं. तो लड़की की पॉकेट में अगर काली मिर्ची का स्प्रे रखा भी हो या उसने औपचारिक रूप से मार्शल आर्ट के थोड़े क्लास अटेंड किए भी हों तो क्या इतना आत्मरक्षा के लिए पर्याप्त होगा? हम सब जानते हैं कि हिंसा की स्थिति आ पड़ने पर हथियार से ज़्यादा हथियार प्रयुक्त करने का आत्मबल आवश्यक है.
यही बात क़ानूनी लड़ाइयों में भी लागू होती है. आकस्मिक रूप से हिंसा की अपरिहार्य परिस्थितियां आ पड़ने ख़ुद को उनके लिए तैयार रखने का अभ्यास करते रहना ही अपने मन-मंदिर में देवी कालरात्रि की स्थापना है. अन्याय के निषेध का प्रण ही मां कालरात्रि की पूजा है. जो इस पूजा में खरा उतरता है उसे साहस और निडरता का दृढ़ नैतिक संबल वरदान स्वरूप मिलता अवश्य है. और यही वरदान अन्याय और शोषण का ‘काल’ बनता है.
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