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Home ओए एंटरटेन्मेंट

चुपके चुपके: ऋषिकेश मुखर्जी की एक और शुद्ध फ़ैमिली एंटरटेनर

जयंती रंगनाथन by जयंती रंगनाथन
May 14, 2021
in ओए एंटरटेन्मेंट, रिव्यूज़
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चुपके चुपके: ऋषिकेश मुखर्जी की एक और शुद्ध फ़ैमिली एंटरटेनर
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जो फ़िल्म आप पिछले 46 सालों में 46 से ज़्यादा बार देख चुके हों, वो फ़िल्म तो आपकी पसंदीदा फ़िल्मों में वाजिब है होगी ही. अब बात करते हैं उस फ़िल्म की जो मैंने इतनी बार देखी कि उसका हर सीन रटा हुआ है. जब भी देखती हूं उतना ही हंसती हूं जितना पहली बार देख कर हंसी थी. फ़िल्म है 1975 में अप्रैल के महीने में रिलीज़ हुई चुपके चुपके. मुझे पहली पीढ़ी के लिए जो काम पड़ोसन ने किया, मेरे लिए चुपके चुपके ने किया.

शुरू करते हैं फ़िल्म की कहानी से. सुलेखा (शर्मिला) अपने कॉलेज की टीम के साथ एक स्टडी टूर पर गई है. वहां उसकी मुलाक़ात प्रोफ़ेसर परिमल जो अपने आपको मज़ाक में फूल-पत्तियों का डॉक्टर कहते हैं, से होती है. इलाहाबाद लौट कर दोनों की शादी तय हो जाती है. अपनी पत्नी के मुंह से बंबई वाले जीजाजी के पराक्रम की कहानी सुन-सुन कर परिमल तय करते हैं कि वे उनकी फिरकी लेंगे. जीजाजी वैसे हैं क़ामयाब बिज़नेसमैन, पर भाषा की अशुद्ध उन्हें बर्दाश्त नहीं. परिमल एक ड्राइवर बन कर उनके पास पहुंचते हैं. ज़ाहिर है जीजाजी को भनक नहीं लग पाती. सुलेखा के वहां आने के बाद ड्राइवर से उसकी नज़दीकियां कहानी में ऐसा तड़का लगाती है कि जीजा जी हक्के-बक्के रह जाते हैं. परिमल अपने दोस्त सुकुमार को परिमल बना कर मुंबई बुलाता है. सुकुमार को पसंद है परिमल के दोस्त प्रशांत की बहन वसुधा. इन सबके बीच सुलेखा के भाई डेविड भी हैं, जो आगे की स्क्रिप्ट तैयार करने में चौकड़ी की मदद करते हैं.

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इस फ़िल्म में कठिन हिंदी, बोलचाल की हिंदी, बंबइया हिंदी इन सबको लेकर कॉमेडी के कई दृश्य रचे गए हैं. फ़िल्म को देखते समय भाषा के सवाल पर मत पड़िए. यह दिक़्क़त तो हिंदी के साथ आज भी है. बहुत बार जो लिखा जाता है जैसा बोला जाता है, समझने के लिए डिक्शनरी की ज़रूरत पड़ती है. वो भाषा ही क्या जो आसानी से समझ ना आए?
इस फ़िल्म में धर्मेंद्र का काम ग़ज़ब का है. उनकी रेंज बाद के फ़िल्मों में कोई पकड़ ही नहीं पाया. रोमैंटिक और मारधाड़ की फ़िल्में वे जितनी सहजता से करते थे, उतना ही बहते हुए वे कॉमेडी करते थे. लेकिन फिर मैं कहूंगी इस फ़िल्म का ताज ओम प्रकाश के सिर. उनकी कॉमेडी टाइमिंग, संवाद बोलने का अंदाज़, चेहरे के भाव, चलने-फिरने का अंदाज़… बेहतरीन है. अमिताभ बच्चन कई जगह ओवर ऐक्टिंग करते लगे, जया भी. लेकिन शर्मिला, असरानी, केष्टो मुखर्जी का काम लाजवाब है.
इस फ़िल्म के गाने में मज़ेदार हैं, संगीत दिया था एसडी बर्मन ने. इस फ़िल्म के रिलीज़ होने से पहले शोले की हवा चल चुकी थी. हृषि दा को पता था कि आरडी बर्मन ने शोले में अमिताभ और धर्म जी को एक धांसू सा गाना दिया है. उन्होंने सीनियर बर्मन से फ़र्माइश की कि इस फ़िल्म में भी कुछ ऐसा ही धमाल का गाना होना चाहिए. एसडी ने सारेगामा पा… गाना किशोर कुमार और मोहम्मद रफ़ी से गवाया. इस मज़ेदार गाने में धरम और अमित जी ने ख़ूब मस्ती की है. फ़िल्म के दूसरे गाने, अबके सजन सावन में और बाग़ों में कैसे ये फूल खिलते हैं और टाइटिल गाना चुपके चुपके चल री पुरवैया भी बेहद सुकून भरे गाने हैं. फ़िल्म के चुटीले संवादों को भी क्रेडिट देना होगा. कई सारे नामों में गुलज़ार का भी नाम है.

ढाई घंटे लगातार हंसने के बाद जब आप मुस्कराते हुए टीवी का रिमोट ऑफ़ करते हैं तो दिल में अच्छी-सी फ़ीलिंग आती है. एक ख़ुशनुमा दिन बिताने की, कुछ अच्छा होने की, हां एकदम फ़ील गुड वाली. मैंने पहली बार अपने पूरे परिवार के साथ यह फ़िल्म भिलाई के चित्र मंदिर में देखी थी. बाद में टीवी पर ना जाने कितनी बार.
इस फ़िल्म से जुड़ी एक रोचक बात सामने आई. 1980 में फरवरी के महीने में सूर्यग्रहण के दौरान दूरदर्शन में चुपके चुपके चलाया गया था, ताकि लोग अपने घर से बाहर निकल कर नंगी आंखों से सूरज को ना देख लें. हंसी का तड़का हर जगह काम आता है. शायद कोरोना की दूसरी लहर से परेशान और बीमार हमें भी थोड़ी ही सही राहत मिल जाए.

फ़िल्म चुपके चुपके से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें
हृषिकेश मुखर्जी के लंबे करियर की यह सबसे चर्चित और सफल फ़िल्म थी. इस फ़िल्म का आयडिया उनके पास कई दिनों से था. 1971 में आई बंगाली फ़िल्म छद्मभेशी फ़िल्म में उत्तम कुमार को हंसते-हंसाते देख हृषि दा को इस फ़िल्म को बनाने का आयडिया आया. वे अपने चहेते धर्मेंद्र के साथ दो फ़िल्में अनुपमा और सत्यकाम बना चुके थे. तीसरी फ़िल्म चैताली में सायरा बानो के साथ साइन कर चुके थे. जब उन्होंने धर्मेंद्र को चुपके चुपके की कहानी सुनाई तो वो फ़ौरन मान गए. हृषि दा ने तय किया कि वे अपनी दोनों फ़िल्म चुपके चुपके और चैताली फ़िल्म सिटी में साथ-साथ बनाएंगे. वे एक शिफ्ट में पहले फ़्लोर पर चैताली शूट करते दूसरी शिफ़्ट में ग्राउंड फ़्लोर पर चुपके चुपके. धर्मेंद्र भी उनके साथ ऊपर-नीचे पहुंच जाते. धर्म जी ने इस फ़िल्म के चालीस साल होने पर अपने एक इंटरव्यू में कहा था: चुपके चुपके इतनी मज़े में बनी कि हंसते-हंसते कब फ़िल्म बन कर तैयार हो गई पता ही नहीं चला.
हृषि दा की इस फ़िल्म में हीरो बेशक धर्मेंद्र थे जो बॉटनी के एक नामी प्रोफ़ेसर परिमल त्रिपाठी का रोल कर रहे थे. पर उनके जीजाजी उर्फ़ राघवेंद्र (ओम प्रकाश) की भूमिका सब पर भारी थी और फ़िल्म की कॉमेडी का दारोमदार उनके कंधे पर टिका था. हृषि दा ने पहले इस फ़िल्म में उत्पल दत्त को लेने का मन बनाया था, पर देसी लेकिन स्टाइलिश जीजाजी के रोल के लिए उन्हें ओम प्रकाश जम गए. इस फ़िल्म के बेहतरीन बनने के पीछे इसकी सुपर्ब कास्टिंग भी है. हीरोइन के लिए उन्हें अपनी पहले से आज़माई हुई शर्मिला जम गईं. लगभग पूरी कास्ट फ़ाइनल हो चुकी थी, सिवाय धर्मेंद्र के दोस्त अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर सुकुमार और उनकी प्रेमिका असरानी की साली बनी वसुधा के. हृषि दा ने सोच रखा था कि वे इन दोनों किरदारों में नए कलाकारों को कास्ट करेंगे. पर तब तक जया को यह ख़बर लग गई कि हृषि दा कोई कॉमेडी फ़िल्म बना रहे हैं. उनकी और अमिताभ की शादी हो चुकी थी और वे उस समय प्रेग्नेंट भी थीं. पर उन दोनों ने हृषि दा को मना लिया कि रोल चाहे जितना भी छोटा हो, वो करना चाहेंगे. वे इस काम के लिए अपनी फ़ीस लेने को भी तैयार नहीं हुए. ऐसा था उनका हृषि दा के साथ रिश्ता.
इस फ़िल्म का उस समय बजट दस लाख रुपए के लगभग था. आने वाले दिनों में इस फ़िल्म ने सैटालाइट राइट और तमाम अन्य स्त्रोतों से करोड़ों में कमाई की.

क्यों देखें: कितनी वजह गिनाऊं? नहीं देखी है तो देख ही लीजिए. देखी है तो फिर से देख लीजिए…

कहां देखें: अमेज़ॉन प्राइम, यू ट्यूब

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जयंती रंगनाथन

जयंती रंगनाथन

वरिष्ठ पत्रकार जयंती रंगनाथन ने धर्मयुग, सोनी एंटरटेन्मेंट टेलीविज़न, वनिता और अमर उजाला जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में काम किया है. पिछले दस वर्षों से वे दैनिक हिंदुस्तान में एग्ज़ेक्यूटिव एडिटर हैं. उनके पांच उपन्यास और तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. देश का पहला फ़ेसबुक उपन्यास भी उनकी संकल्पना थी और यह उनके संपादन में छपा. बच्चों पर लिखी उनकी 100 से अधिक कहानियां रेडियो, टीवी, पत्रिकाओं और ऑडियोबुक के रूप में प्रकाशित-प्रसारित हो चुकी हैं.

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हर वह शख़्स फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष ‘अफ़लातून’ ही है, जो जीवन को अपने शर्तों पर जीने का ख़्वाब देखता है, उसे पूरा करने का जज़्बा रखता है और इसके लिए प्रयास करता है. जीवन की शर्तें आपकी और उन शर्तों पर चलने का हुनर सिखाने वालों की कहानियां ओए अफ़लातून की. जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर, लाइफ़स्टाइल पर हमारी स्टोरीज़ आपको नया नज़रिया और उम्मीद तब तक देती रहेंगी, जब तक कि आप अपने जीवन के ‘अफ़लातून’ न बन जाएं.

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