ज़ाहिर है इस सिरीज़ में मैं रोहित शेट्टी की गोलमाल सिरीज़ की बात तो नहीं ही करूंगी. जब रोहित शेट्टी ने गोलमाल नाम से फ़िल्म बनाई, मुझे तक़लीफ़ हुई. एक क्लासिक फ़िल्म के नाम के साथ छल मुझे जमा नहीं. पर रोहित शेट्टी की इस नाम की बनी सिरीज़ की सभी फ़िल्में सुपरहिट रहीं. यही नहीं, आज के ज़माने का यह निर्माता-निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी के सत्तर के दशक में बने गोलमाल से इतना इम्प्रेस्ड था कि उसने लगभग उसी विषय को तोड़-मरोड़ कर बोल बच्चन फ़िल्म बना दी. चली तो यह फ़िल्म भी, पर बात वही…क्या इसकी ज़रूरत थी?
सत्तर के दशक में हृषिकेश मुखर्जी एक बड़ा नाम थे. वे सीधी-सादी, ज़िंदगी से जुड़ी, गुदगुदाने और मोहने वाली फ़िल्में बनाते थे. गुड्डी, अनुपमा, आनंद, सत्यकाम, बावर्ची, अभिमान, ख़ूबसूरत, चुपके-चुपके उनकी कुछ बेहतरीन फ़िल्में थीं. उसी कड़ी में एक फ़िल्म थी गोलमाल, 20 अप्रैल 1979 को रिलीज़ हुई थी.
गोलमाल को मैं अपनी पसंदीदा फिल्मों में क्यों शामिल कर रही हूं? वजह एक नहीं अनेक हैं. इस फ़िल्म को आप महज़ एक कॉमेडी फ़िल्म के तौर पर नहीं देखें. इसमें कई लेयर्स हैं. किरदार एकदम हम जैसे. भीगते हुए रिश्ते, ख़ुशबू से भरे लोग. इस फ़िल्म को जब भी देखती हूं, लगता है बसंत का मौसम मेरे आसपास घिर आया है. कानों में किशोर कुमार का दिल को छू लेने वाला गाना आने वाला पल, जाने वाला है बजने लगता है. क्या मेरी पीढ़ी का कोई यह कह सकता है कि उसने यह गाना नहीं सुना है या नहीं पसंद? यह गाना हमारे किशोर मनों का ऐंथम सॉन्ग है…
पहले मैं फ़िल्म की रफ़ सी कहानी बताती हूं. राम प्रसाद दशरथ प्रसाद यानी अमोल पालेकर एक चार्टर्ड अकाउंटेंट है. वह नौकरी की तलाश कर रहा है. उसके अंकल (डेविड) उसे उर्मिला फ़र्म के प्रोपराइटर भवानी शंकर (उत्पल दत्त) के बारे में बताते हैं. भवानी शंकर को मूंछों से प्रेम है (ग़नीमत कि राम की पतली ही सही मूंछें तो हैं). वो मानते हैं कि बिना मूंछों वाला आदमी भरोसे के क़ाबिल नहीं होता. भवानी को अपना नाम छोटा करके रखने वाला शख्स भी नहीं पसंद. वह पुराने लोग, पुराने दिन, पुरानी सोच का कायल है. राम छोटे कुरते और पाजामा में इंटरव्यू देने जाता है और उसे नौकरी मिल जाती है. लेकिन राम की ज़िंदगी यह तो नहीं.
अपनी बहन रत्ना के साथ रहने वाले राम को गाना गाने, फ़ुटबॉल और हॉकी मैच देखने और अड्डेबाज़ी का शौक़ है. अपनी मां (जो है नहीं) की बीमारी का बहाना बना कर वह दोस्तों के साथ हॉकी मैच देखने पहुंच जाता है. भवानी शंकर उसे वहां देख लेते हैं. अगले दिन भवानी उससे जवाब-तलब करते हैं और घबराहट में राम कहता है वो वो नहीं था, उसका जुड़वा, आवारा, निकम्मा गवैया भाई श्याम था.
पुराने खिलाड़ी भवानी उसकी बातों में आ जाते हैं. इसके बाद शुरू होता है रोलरकोस्टर राइड. राम को आननफानन अपने लिए नकली मां (दीना पाठक) का इंतज़ाम करना पड़ता है, भवानी से मिलाने के लिए. भवानी श्याम को अपनी लड़की उर्मिला (बिंदिया गोस्वामी) को गाना सिखाने का काप सौंप देता है. खैर पोल तो खुलनी ही थी. तमाम मज़ेदार मोड़ों के बाद यह भी होता है.
अमोल ने बेहतरीन काम किया है. पर उन पर भारी पड़े उत्पल दत्त. बंगाली और हिंदी फिल्मों में गंभीर भूमिका करने वाले उत्पल दत्त ने इस फ़िल्म में जलवा बिखेर दिया है. वे ख़ुद हंसते नहीं, हमें हंसा कर लोटपोट कर देते हैं. उनकी संवाद अदायगी, चलने का ढंग, कॉमेडी टाइमिंग लाजवाब है. वो जब लास्ट सीन में पूरी खाते हुए राम की चोरी पकड़ कर उससे कहते हैं: मैं तुझे माफ़ नहीं, मैं तुझे साफ़ कर दूंगा, गज़ब है…
और बानगी देखिए:
तुम्हारी शादी उससे नहीं होगी जिससे तुम प्यार करती हो, तुम्हारी शादी उससे होगी, जिससे मैं प्यार करता हूं.
जो अपना नाम शॉर्ट कर दे, वो काम भी छोटा करेगा.
नैशनल ड्रेस का मज़ाक नहीं उड़ाओगे तो ब्रॉडमाइंडेड कैसे कहलाओगे?
लंबे कपड़े पहनना हानिकारक फ़ैशन है…
डॉयलाग में यह तुर्शी डॉक्टर राही मासूम रज़ा और सचिन भौमिक की वजह से आई है.
फ़िल्म गोलमाल से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें
इस फ़िल्म के लिए अमोल पालेकर को उस साल का बेस्टर ऐक्टर का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला था. मुझे याद है एक फ़िल्म पत्रिका ने लिखा था: कॉमन मैन की एंग्री यंग मैन पर विजय. उस साल काला पत्थर के लिए अमिताभ बच्चन का नाम भी नॉमिनेट हुआ था.
इस फ़िल्म का बजट मात्र 45 लाख के लगभग था. जो उस समय बनने वाली फ़िल्मों के बजट के हिसाब से एक चौथाई भी नहीं था. हृषि दा पहले इस फ़िल्म में हीरोइन के रोल के लिए रेखा को लेने वाले थे, बाद में उन्हें लगा कि फ़िल्म में हीरोइन का ज़्यादा काम नहीं है, इसलिए रेखा का सही इस्तेमाल नहीं होगा. इसके अलावा उन्होंने फ़िल्म के कलाकारों से कहा कि वे अपने घर से कपड़े ले कर आएं, यानी ड्रेस डिज़ाइनर का ख़र्च नहीं. गाड़ी भी कलाकारों की ख़ुद की. इसके अलावा फ़िल्म की अधिकांश शूटिंग हृषि दा ने मुंबई के कार्टर रोड पर अपने बंगले अनुपमा में की. भवानी का ऑफ़िस, राम प्रसाद का घर, दीना पाठक के साथ पार्टी का सीन और भवानी का बंगला, उनकी कोठी में ही शूटिंग हुई. इसके अलावा फ़िल्म में एक सीन है जहां अमोल पालेकर अपने ऐक्टर दोस्त देवेन वर्मा से मिलने मोहन स्टूडियो जाते हैं. वहां वो अमिताभ बच्चन की एक फ़िल्म की शूटिंग देखते हैं. वो फ़िल्म जुर्माना थी, जो उस समय हृषि दा ही बना रहे थे और वो असली शूटिंग का सीन था. रेखा भी इस फ़िल्म के एक गाने में झलक दिखा गईं. यह फ़िल्म महज 40 दिन में बन कर तैयार हो गई.
इस फ़िल्म का आयडिया हृषि दा को बंगाली फ़िल्म कांचा पीठा (ग़लत हो तो सही कर दें) देख कर मिला. जहां हीरो एक झूठ को बचाने के लिए झूठ पर झूठ बोलता चलता है.
गोलमाल ज़बरदस्त हिट रही. अगले ही साल यह फ़िल्म तमिल में तुलुमुलु नाम से बनी, इसमें अमोल पालेकर का रोल रजनी कांत ने किया था. इस फ़िल्म को और भी कई भाषाओं में बनाया गया.
हिंदी वाले तो इस फ़िल्म के प्रेम से कभी उभरे ही नहीं. कुली नंबर वन, रब ने बना दी जोड़ी, हेराफेरी आदि फ़िल्मों गोलमाल का जिक्र है ही, रोहित शेट्टी ने इस नाम की सिरीज़ बना कर बचीखुची कसर भी पूरी कर दी.
आज ही मैंने यूट्यूब पर हृषि दा का एक पुराना इंटरव्यू देखा. वे कह रहे थे उन्हें अपनी फ़िल्म नरम गर्म गोलमाल से ज़्यादा पसंद थी. ख़ैर, मैं उनकी इस बात से मुतमईन नही.
हां, मैंने यह फ़िल्म अपने भाई, बहन, अप्पा और अम्मा के साथ भिलाई के चित्र मंदिर टाकीज़ में देखी थी. गर्मी की छुट्टियां थी. इस फ़िल्म को देखने के बाद हम कई दिनों तक इसके डायलॉग याद करके हंसते रहे थे. यह भी एक फ़िल्म थी, जिसे देखने के बाद मुझे अपने सपनों के महानगर मुंबई से कुछ और ज़्यादा इश्क़ हो गया था…
क्यों देखें: वैसे हम मानकर चल रहे हैं कि आपने यह फ़िल्म ज़रूर देखी होगी, नहीं देखी तो भवानी शंकर आपको ज़रूर श्रॉप देगा… तो जल्दी से देख डालिए.
कहां देखें: यूट्यूब, अमेज़ॉन प्राइम, टीवी के विभिन्न चैनलों पर.