अरे ओ…; तेरा क्या होगा…!; तुम्हारा नाम क्या है …; … आदमी थे?; ले अब ….खा
चलिए, इसे पहेली ही मान लीजिए. पर मुझे पता है इसे हल करने में आपको बस कुछ सेकंड लगेंगे. जब मैं अपनी पसंदीदा फ़िल्मों की लिस्ट बना रही थी, तो बार-बार इस फ़िल्म का नाम लिख कर काट रही थी. यह भी सच है कि मेरे लिखने ना लिखने से इस फ़िल्म का कद घट नहीं जाएगा. बेशक यह क्लासिक फ़िल्म नहीं है, पर कल्ट फ़िल्म तो हरगिज है. तभी तो छियालीस साल बाद भी इस फ़िल्म का जलवा बरकरार है. मैं बात कर रही हूं शोले की. इस फ़िल्म के ऊपर ना जाने कितने रिसर्च हो चुके हैं, पोथियां लिखी गई हैं. शायद मैं कोई नई बात आपको बता ना पाऊं. पर मेरे लिए शोले को याद करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मैंने भी उसी हवा में सांस लिया है, जहां इस फ़िल्म के किरदारों ने लिया… इस फ़िल्म का जुनून, पागलपन, उन्माद उन सबमें मैं भी शामिल रही हूं. तो आज बात करते हैं भारत की सबसे बड़ी कल्ट फ़िल्म शोले की
15 अगस्त 1975. यही वो दिन था जब शोले रिलीज़ हुई थी. इस फ़िल्म की कहानी से कहीं अधिक दिलचस्प फ़िल्म से जुड़े विभिन्न कि़स्से हैं. यही कारण है कि मैं इस बार फ़िल्म कैसी है, इसमें क्या ख़ास है से ज़्यादा फ़िल्म से जुड़े रोचक क़िस्सों पर बात करना चाहूंगी. तो फ़िल्म की बड़ी-सी बैक ग्राउंड कहानी शुरू करने के पहले बहुत संक्षेप में कहानी के बारे में बात करते हैं. मैं बस दो लाइन में कहानी बताऊंगी. जय और वीरू छोटे-मोटे उचक्के हैं. लेकिन हैं दिलेर. ठाकुर उन दोनों को मोटे पैसे दे कर अपना काम करने को राज़ी करता है. काम है डाकू गब्बर सिंह को पकड़ना. गब्बर ने एक ज़माने में उसके पूरे परिवार को तहस-नहस कर दिया था और ठाकुर के दोनों हाथ भी काट डाले थे. उस अतरंगी गांव में बसंती है जो तांगा चलाती है, और वीरू का दिल उस पर आ जाता है. ठाकुर की विधवा बहू है जो ज़िंदगी की आस में जय से दिल लगा बैठती है. तमाम उठा-पटक के बाद, नाच-गानों के बाद गब्बर सिंह का काम तमाम होता है.
फ़िल्म के ओरिजिनल अंत में पहले ठाकुर के पैरों से कुचल कर गब्बर का अंत होना था. पर उस समय देश में एमरजेंसी चल रही थी. सरकारी प्रेशर के तहत सिप्पी को यह अंत बदलना पड़ा. उसी तरह जय की मौत से भी दर्शकों को ज़बरदस्त सदमा पहुंचा और यह भी ख़बर फैली कि रमेश सिप्पी ने एक और क्लाइमेक्स शूट कर लिया है जिसमें जय ज़िंदा है और ठाकुर की विधवा बहू के साथ ज़िंदगी शुरू करता है. बाद में रमेश जी ने इस बात का खंडन ही किया.
फ़िल्म रिलीज हुई. पहले हफ्ते नहीं चली. जावेद साहब ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था: इस फ़िल्म में ऐसा कुछ नहीं था जो सुपर हिट हो. सब लीक से हट कर बातें थीं. लेकिन अगले सप्ताह ही सलीम-जावेद ने मुंबई के एक फ़िल्मी अख़बार में एड दे दिया कि शोले हर टेरिटेरी में एक करोड़ से ज़्यादा का बिज़नेस करेगी. एक सप्ताह बाद फ़िल्म को दर्शक मिलने लगे और चार सप्ताह बाद हिट और आठ सप्ताह बाद सुपर हिट घोषित कर दी गई.
जावेद जी की सोच चाहे जो हो, मेरे हिसाब से शोले एक अल्टीमेट मुंबइया मसाला फ़िल्म है. जिसकी रेसिपी परफेक्ट है. हर किरदार की कास्टिंग परफ़ेक्ट है. नौ रसों का ऐसा मेल कम ही देखने को मिलता है. मनोरंजन, कॉमेडी, यारी-दोस्ती, प्यार-मोहब्बत, रिश्तों की नज़ाकत, दुश्मनी, गद्दारी, त्याग, दर्द, अच्छाई-बुराई वगैरह वगैरह.
बात रही कि मैंने फ़िल्म कहां देखी? जाहिर है भिलाई में. बसंत टाकीज में. जहां तक मुझे याद है मैंने सबसे पहले रो में बैठ कर यह फ़िल्म देखी थी और मुझे पूरी फ़िल्म में यही लगा कि घोड़े पर मैं सवार हूं और बसंती का तांगा भी मैं ही चला रही हूं. शोर-शराबे और जलजले के बीच इस फ़िल्म को पहली बार देखने का अनुभव अद्भुत था.
एक बात बताना रह गया. फ़िल्म बनने के दौरान सूरमा भोपाली (जावेद), जेलर (असरानी), इतना सन्नाटा क्यों है भाई बोलने वाले हंगल, बसंती की दुर्गा मौसी (लीला मिश्रा) जैसे कई किरदार और क़िस्से मूल फ़िल्म में नहीं थे. हास्य कलाकार और सीन तो बाद में डाले गए. उसी तरह महबूबा-महबूबा गाना भी रमेश सिप्पी की पहली पत्नी गीता सिप्पी ने लंदन में Demis Roussos का गाना Say You Love Me सुनने के बाद फ़िल्म के संगीतकार आरडी बर्मन से कहा कि इसी तर्ज पर एक आयटम नंबर तैयार करे. इस तरह महबूबा गाने का जन्म हुआ. सूरमा भोपाली पर एक कव्वाली का भी फिल्मांकन हुआ था, जिसे आनंद बक्शी, किशोर कुमार और मन्ना डे ने गाया था. पर फ़िल्म की लंबाई को देख कर इस गाने को काट दिया गया. बख्शी साहब काफ़ी अर्से तक सिप्पी से नाराज भी रहे. यह कव्वाली फ़िल्म के कैसेट में शामिल थी. सचिन को छोटी सी भूमिका निभाने के लिए रमेश सिप्पी ने बतौर मेहनताना फ्रिज दिया था.
इस फ़िल्म ने कई नए मील के पत्थर बनाए. इस फ़िल्म के गानों के अलावा डॉयलाग के अलग कैसेट निकले जो बेहद चले. हमारे पास भी यह डॉयलाग का कैसेट था और उस वक़्त के बच्चों की तरह हमें भी फ़िल्म के लगभग सभी संवाद ज़बानी याद थे.
इस फ़िल्म पर सालों बाद राम गोपाल वर्मा ने रीमेक बनाने की हिम्मत की. अमिताभ बच्चन बने गब्बर. पर फ़िल्म भयंकर फ़्लॉप रही. अच्छा हुआ. ज़रा भी चल जाती तो मूल शोले का स्वाद बिगड़ जाता. पर यह भी मज़ेदार बात है कि उस वक़्त से ले कर आज तक के तमाम कलाकार शोले में गब्बर सिंह का ही किरदार निभाने की ख़्वाहिश रखते हैं.
फ़िल्म शोले से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातें
सलीम-जावेद ने सत्तर के दशक में फ़िल्म राइटिंग में एक यात्रा शुरू की. दोनों हुनरमंद, दोनों जादूगर. वो एक सपना था दोनों का, बेहतरीन हिंदी फ़िल्में लिखने का. उनका मन था मुग़ल ए आज़म की तरह एक शाहकार फ़िल्म लिखने का. वाकई दोनों समय से आगे और अलग सोच रखते थे. उनके पास कहानियों का ख़ज़ाना था. शोले की कहानी भी वे काफ़ी पहले लिख चुके थे. दरअसल सलीम के पिताजी भोपाल में पुलिस में काम करते थे, उनसे ही सलीम ने डाकू गब्बर सिंह के बारे में सुना था. ठाकुर बलदेव सिंह सलीम के ससुर थे जो आर्मी में थे, उनके नाम से सलीम ने एक किरदार रचा, बस उसे पुलिस वाला बना दिया. वे दोनों वेस्टर्न काउ बॉय फ़िल्में ख़ूब देखते थे. उनका मन था एक ऐसी ही हिंदुस्तानी फ़िल्म लिखा जाए. तमाम हॉलीवुड की फ़िल्में देखने के बाद सलीम-जावेद ने इस फ़िल्म की कहानी लिखी. नाम रखा अंगारे और स्क्रिप्ट ले कर प्रकाश मेहरा के पास गए, जो उन दिनों उनकी ही स्क्रिप्ट जंजीर पर फ़िल्म बना रहे थे. प्रकाश मेहरा ने जब ज़रा भी रुचि नहीं ली तो सलीम-जावेद पहुंच गए रमेश सिप्पी के पास. रमेश से ज़्यादा उनके पिता जीपी सिप्पी ने इस कहानी में दिलचस्पी दिखानी शुरू की.
शुरू में यह सोचा गया कि ठाकुर का किरदार दिलीप कुमार निभाएंगे. रमेश सिप्पी यह आयडिया ले कर दिलीप साहब के पास गए, पर उन्होंने मना कर दिया. इसके बाद रमेश सिप्पी की बात संजीव कुमार और धर्मेंद्र से होने लगी. धर्मेंद्र ठाकुर का किरदार निभाना चाहते थे और संजीव कुमार गब्बर सिंह का. अपने आपको खलनायक दिखाने के लिए संजीव कुमार एक दिन अपने पूरे दांत काले कर रमेश सिप्पी से मिलने भी पहुंच गए.
रमेश सिप्पी चाहते थे ठाकुर का रोल संजीव कुमार करे. इसके लिए उन्होंने धर्मेंद्र जी से कुछ ऐसा कहा कि वो फौरन वीरू का किरदार निभाने को तैयार हो गए. ऐसा क्या कहा था रमेश ने धर्म जी से?
यही कि फ़िल्म में बसंती का किरदार हेमा मालिनी करने को तैयार हो गई है और वीरू उनके साथ रोमांस करेगा. फिर क्या था, धर्म जी वीरू का रोल करने को तुरंत मान गए. उन दिनों संजीव कुमार का दिल हेमा पर आया था और वे उनको प्रपोज़ भी कर चुके थे. दूसरी तरफ़ धर्मेंद्र हेमा की तरफ आकर्षित होने लगे थे और उनके साथ रहने का एक भी मौक़ा नहीं छोड़ना चाहते थे. इस फ़िल्म की शूटिंग के दौरान दोनों को लगभग एक साल तक साथ रहने का मौक़ा भी मिला. जय का रोल रमेश जी शत्रुघ्न सिन्हा को देना चाहते थे, पर जावेद साहब अमिताभ के काम से प्रभावित थे और उनका नाम आगे बढ़ा दिया. इस फ़िल्म की शूटिंग जंजीर के रिलीज़ होने के पहले ही शुरू हो चुकी थी. बात अटकी गब्बर सिंह पर. डैनी डेनजोंग्पा को साइन कर लिया गया. पर वे उस समय फ़िरोज़ ख़ान की फ़िल्म धर्मात्मा की शूटिंग के लिए बाहर जा रहे थे. सलीम ने अमजद ख़ान का नाम सुझाया. जावेद एकदम तैयार नहीं हुए यह कह कर कि अमजद ख़ान की आवाज़ एकदम पतली है, डाकू के लिए दमदार आवाज़ चाहिए. ख़ैर रमेश सिप्पी ने अमजद के नाम पर मोहर लगा दी. अब बारी आई कि गब्बर को कैसे दिखाया जाए? इससे पहले फ़िल्मों में डाकू धोती कुर्ते में दिखाए जाते थे. सलीम साहब को आयडिया आया कि क्यों ना हम अपने डाकू को मिलिट्री कपड़ों में दिखाएं? फिर क्या था मुंबई के चोर बाज़ार से मिलिट्री के घिसे हुए यूनिफ़ॉर्म ख़रीद कर लाए गए और पूरी फ़िल्म में अमजद ने वो ही घिसे हुए यूनिफ़ॉर्म पहने.
अब बात फ़िल्म के नाम की. अंगारे तो शुरू में ही रिजेक्ट हो गया. सोच-समझ कर शोले रखा गया. शुरू में लगा यह वर्किंग टाइटिल होगा, बाद में कुछ और नाम रखेंगे. पर फ़िल्म बनते-बनते यही नाम फ़ाइनल हो गया. फ़िल्म का बजट शुरू में एक करोड़ रुपए था, जो बढ़ते-बढ़ते तीन करोड़ हो गया.
रमेश सिप्पी रामगढ़ को एक पहाड़ और चट्टानों के बीच गांव के रूप में दिखाना चाहते थे. बैंगलोर के पास एक गांव चुना गया. वहां पूरी नगरी बसाई गई. यही नहीं, ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे गाने के फ़िल्मांकन के लिए नई उबड़-खाबड़ सड़क बनाई गई वो भी गाना तैयार होने के बाद सुरों को मैच करते हुए.
क्यों देखें: यह भारत की सबसे बड़ी कल्ट फ़िल्म है. मैंने कम नहीं तो पच्चीस बार ज़रूर देखी होगी. और आपने?
कहां देखें: यू ट्यूब, अमेज़ॉन, वैसे बाक़ी चैनलों पर भी अक्सर आती रहती है.