क्या आपको पता है बालों से निजात पाने का एक ऐसा देहाती नुस्ख़ा, जिसका मॉडर्न साइंस भी लोहा मानता है? यदि आप इस बारे में नहीं जानतीं/जानते तो इसके बारे में जानिए डॉक्टर दीपक आचार्य से, जिन्होंने मेडिसिनल प्लांट्स में पोस्ट डॉक्टरेट किया है. इसे आज़मा के भी देखिए, क्योंकि जब आज़माएंगे तभी तो आप मानेंगी/मानेंगे इसका लोहा.
अपनी टीम के साथ एक बार सौराष्ट्र (गुजरात) के दौरे पर था. मेरा काम ये भी है कि गांव-देहातों में जाकर बुज़ुर्गों से घंटों पंचायत करते रहता हूं. मेरा हमेशा से मानना रहा है कि जो जानकारी हमें हमारे बुज़ुर्ग दे सकते हैं, वो गूगल या उसके मौसरे भाई नहीं दे सकते.
गीर नैशनल पार्क के पास तलाला नाम का गांव है. ये गांव जूनागढ़ से क़रीब 70 किमी दूर है. एक दिन गांव में स्थानीय लोगों से मुलाक़ात के दौरान एक बुज़ुर्ग महिला को देखा. वो महिला कच्चे पपीते को सिलबट्टे पर पीसकर उसे लुग्दी की तरह तैयार कर रही थी. मैं उनके क़रीब जाकर उन्हें ग़ौर से देखने लगा. गुजरात में गाठिया और फाफड़ा जैसे व्यंजनों के साथ कच्चा पपीता और उसकी चटनी ख़ूब खाई जाती है. मुझे लगा कि शायद कच्चे पपीते से उसी तामझाम की तैयारी हो रही, लेकिन बातों ही बातों में पता चला कि यहां तो दादी मां कुछ अनोखा ही जुगाड़ तैयार कर रहीं थी. नैचुरल हेयर रिमूवर तैयार हो रहा था.
पुराने समय से चला आ रहा पारंपरिक ज्ञान
इस बात की बस थोड़ी-सी भनक क्या लगी, मैं अपना आसन वहीं लगा लिया. बुज़ुर्ग महिला ने बताया कि कच्चे पपीते को छीलकर उसके टुकड़ों को सिलबट्टे पर पीसकर पेस्ट बना लेंगी, और फिर इस पल्प को होंठों के ऊपर निकल आए अनचाहे बलों के रिमूवल के लिए इस्तमाल करेंगी. उन्होंने बताया कि इस पल्प को 20-25 मिनट लगाकर सूखने दिया जाएगा और फिर इसे रगड़कर साफ़ करेंगे और बाद में साफ़ पानी से शरीर के उस हिस्से को धो लिया जाएगा. वाह जी…! ये तो गजबई जुगाड़ है. उन्होंने ये जानकारी अपनी मां से ली थी यानी यह दशकों से चला आ रहा एक पारंपरिक ज्ञान था.
तस्दीक करता है मॉडर्न साइंस
अब चलते हैं इंटरनैशनल जर्नल ऑफ़ फ़ार्मास्युटिक्स की वर्ष 2007 की उस रिसर्च फ़ाइंडिंग पर, जो बताती है कि कच्चे पपीते में एक ज़बर्दस्त एंजाइम ‘पपैन’ पाया जाता है. इस पपैन की ख़ासियत है कि ये हेयर फ़ॉलिकल को कमज़ोर कर देता है, जिससे बाल आसानी से रिमूव हो जाते हैं. लगातार कच्चे पपीते को इस तरह इस्तेमाल करने और पपैन की सक्रियता से उस जगह से बालों का उगना भी बंद हो जाता है, जहां नियमित तौर से इसका इस्तमाल होता है. अंतरराष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित इस पूरी स्टडी का टाइटल ही हिस्टोलॉजिकल इवैलूशन ऑफ़ हेयर फ़ॉलिकल ड्यू टू पपैन्स इफ़ेक्ट (Histological evaluation of hair follicle due to papain’s effect) था.
पारंपरिक ज्ञान पर आधुनिक विज्ञान का ठप्पा
एक तरफ़ है हमारे देश का पारंपरिक ज्ञान और दूसरी तरफ़ इस तरह के ज्ञान पर ठप्पा लगाता आधुनिक विज्ञान. ये रिसर्च वर्ष 2007 की है और मेरी मुलाक़ात उन बुजुर्ग महिला से वर्ष 2005 में हुई थी. और सबसे बड़ी बात ये कि कच्चे पपीते के इस फ़ॉर्मूले के बारे में इन्हें इनकी मां ने बताया था यानी यह बात उन्हें 6-7 दशक पहले से पता रही होगी. अंडा पहले आया या मुर्गी, इस बहस से कोई फ़ायदा नहीं, क्योंकि हमें पता है हमारे देश का ज्ञान कितना सटीक और दमदार है…तभी तो माइक्रोबायोलॉजी को एक किनारे रखकर देहाती ज्ञान के साथ खेल रहे हैं हम.
अब आपको क्या करना है, मुझे बताने की जरूरत नहीं… मेरा जिम्मा है आपको आपके आसपास, अड़ोस-पड़ोस में उपलब्ध देसी नुस्ख़ों से परिचित करवाना, उन नुस्खों की बात करना, जिनके दमखम को आधुनिक विज्ञान ने भी माना है. अब चुनाव आपके हाथ में हैं. आज़माकर देखें, असर मिले तो बताएं, ना मिले तो खारिज करें. पर एक बात तो तय है कि हमारे देहातऔर जंगल के ज्ञान को जो जान जाएगा, वो इसको मान जाएगा!
फ़ोटो: गूगल